Wednesday, October 5, 2011
राम कहां हैं?
त्योहारों का मौसम है। कुछ नेताओं की याददाश्त गुम हो चुकी है तो कुछ सपनों की बंजर-बगिया में फूल खिलाने के अभियान में लग गये हैं। सबसे पहले बात केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम की। कोई कितनी भी पी ले पर वह इस कदर होश नहीं खोता जैसे चिदंबरम ने खोये हैं। वे सब कुछ भूल गये हैं। अगला-पिछला कुछ भी उन्हें याद नहीं है। देश के गृहमंत्री जिन पर देश की सुरक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी है वे ही अगर घपले-घापों के आरोप लगने पर यह कहें कि भूल गया सब कुछ याद नहीं अब कुछ... तो देश कैसे चलेगा! कुछ लोग तो अब यह भी मान चुके हैं कि यह देश चलना-फिरना भूल गया है। सत्ता-उपासकों ने इसके चक्के जाम करके रख दिये हैं। ऐसे लोग भी हैं जो यह कहते-फिरते हैं कि देश का सत्यानाश कर दिया गया है और जो सत्यानाशी हैं वे सर्कस के जोकर की तरह उछल-कूद रहे हैं। आइना हर किसी का चेहरा-मोहरा दिखा रहा है। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी जब यह कहते हैं कि यदि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसी तरह से भ्रष्टाचार करने वालों को संरक्षण देना जारी रखा तो वे शीघ्र ही घोटालों की आंच में झुलसे नजर आएंगे और उनकी अगली केबिनेट की बैठक तिहाड जेल में होगी तो सुनने-पढने वालों को बरबस हंसी आ जाती है। दरअसल इस हंसी के पीछे भी एक गहरा व्यंग्य भाव छिपा होता है। जिस पार्टी में राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में रिश्वतखोर बंगारू लक्ष्मण, भ्रष्टम मुख्यमंत्री येदियूरप्पा और रेड्डी बंधुओं जैसे खनिज माफियाओं का वर्चस्व रहा हो उस पार्टी के मुखिया का हर बयान आसानी से हजम नहीं किया जा सकता। वैसे खबर यह भी है कि करीब दस साल पहले टीवी पत्रकारों से सरेआम घूस लेते दिखने वाले भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण पर गडकरी काफी मेहरबान हो गये हैं। उन्हें उन पर दया आने लगी है। इसलिए उन्होंने अपनी पार्टी के इस दलित नेता के निर्वासन का खात्मा करते हुए उन्हें तामिलनाडु में 'कमल' को खिलाने और चमकाने के काम पर लगा दिया है। वैसे यह तो तय है कि यह वर्ष तिहाड के नाम को रोशन करने वाले वर्ष के रूप में याद किया जायेगा। कितने-कितने महारथी तिहाड की शोभा बढा रहे हैं। न जाने कितने वर्षों से देशवासी ऐसे ऐतिहासिक अवसर की राह देख रहे थे। नोट के बदले वोट के चक्कर में जब से अमरसिंह की गिरफ्तारी हुई है तब से देशवासियों के मन में कहीं न कहीं यह भरोसा तो जागा ही है कि कानून के रखवाले यदि चाहें तो हाई प्रोफाइल लोग भी सीखंचों के पीछे पहुंचाये जा सकते हैं। सरकारी भ्रष्टाचारियों की निरंतर होती गिरफ्तारियों से प्रफुल्लित भारतीय जनता पार्टी हमेशा की तरह काठ की हांडी में मसालेदार पुलाव बनाने की तैयारियों में जुट गयी है। इस पार्टी के दिग्गजों को दूसरों के घरों के जलने-फुंकने का सदैव इंतजार रहता है। लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, राजनाथ सिंह और वेकैंया नायडू को किसी ज्योतिष ने पूरी तरह से आश्वस्त कर दिया है कि सन २०१२ में कभी भी मध्यावद्धि चुनाव होने तय हैं। दशहरे के बाद यानी ११ अक्टुबर से आडवाणी चालीस दिन की यात्रा पर निकलने वाले हैं। इस यात्रा का एक मकसद तो कांग्रेस को डराना है और दूसरा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के होश ठिकाने लगाते हुए उन्हें उनकी हैसियत से रूबरू कराना है। वैसे यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा कि कौन किस पर भारी पडता है। भारतीय जनता पार्टी में प्रधानमंत्री पद को लेकर मोदी और आडवाणी के बीच चल रही लडाई को देख कर एक असली योद्धा की बरबस याद हो आती है। इसी जूझारू योद्धा ने पार्टी को खादपानी देकर सींचने में कोई कमी नहीं की। उसकी बोयी फसल को आज भी काटा जा रहा है। जी हां हम उन अटल बिहारी वाजपेयी का जिक्र कर रहे हैं जिनके अटूट परिश्रम और निष्कलंक छवि की बदौलत भारतीय जनता पार्टी ने लोगों के दिल में जगह बनायी थी। एक निष्पक्ष और निर्भीक राजनेता आज विश्राम की मुद्रा में है। आडवाणी दिखावे के तौर पर मोदी का कितना भी विरोध कर लें पर उनमें अटल जैसा साहस और आकर्षण पूरी तरह से नदारद है। यह अकेले और इकलौते अटल बिहारी वाजपेयी ही थे जिन्होंने मोदी को गुजरात में राजधर्म का पालन करने की सीख दी थी। यह भी सच है कि मोदी ने इसे सुन कर भी अनसुना कर दिया था। ऐसे में यह सोचना कि आडवानी मोदी को उनकी हैसियत दिखा पायेंगे यकीनन सपने देखने जैसी बात है। भाजपा में चल रहे पटका-पटकी के खेल को देखकर सजग देशवासी अब कतई अचंभित नहीं होते। वे तो सिर्फ अपना माथा पीटकर रह जाते हैं कि कुर्सी के भूखे नेताओं की वजह से हालात कहां से कहां जा पहुंचे हैं। देश के गृहमंत्री भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों का साथ देने के आरोप में कटघरे में खडे हैं। जिस व्यक्ति पर देश की रक्षा का जिम्मा है वही असहाय की मुद्रा में यह कह रहा है कि उसे भूलने की बीमारी है। उनसे ज्यादा सवाल न किए जाएं। जिस देश के गृहमंत्री की याददाश्त का दिवाला पिट गया हो उस देश का क्या होगा सोचकर ही भय लगने लगता है। कांग्रेस की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी जिस तरह से चुप और खामोश हैं उससे भी लोग बेहद विस्मित हैं। लगता है वे भी थकहार गयी हैं। हकीकत तो यही है कि मंदिर के नाम पर सत्ता पाने वाली भाजपा और कांग्रेस का हाथ जनता के साथ के नारे लगाने वाली कांग्रेस पूरी तरह से बेनकाब हो चुकी हैं। ऐसे में सियासत के खिलाडियों की याददाश्त ने भले ही उन्हें धोखा दे दिया हो पर सजग देशवासियों के होश चुस्त और दुरुस्त हैं... इसलिए वे 'रावण' को जलाना तथा राम को पूजना कभी भी नहीं भूलते। पर रावणों की भीड में राम कहां हैं?
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