Thursday, October 13, 2011

अंडा खाये फकीर

एक ही हफ्ते में दो धुरंधरों की किताबों का विमोचन हुआ। पहले हैं चेतन भगत जो कि नामी-गिरामी लेखक हैं। दूसरे हैं राजनीतिक नितिन गडकरी जो संघ की मेहरबानी से भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन हवा में उड रहे हैं। युवाओं के चहेते लेखक चेतन भगत की नई किताब 'रिवोल्यूशन २०२०:लव, करप्शन, एंबिशन' बाजार में आते ही हाथों हाथ बिक गयी। भारत वर्ष में जहां दमदार माने-जाने हिं‍दी लेखकों की किताब के किसी भी संस्करण की चार-पांच सौ से ज्यादा प्रतियां नहीं छपतीं वहीं चेतन की अंग्रेजी में लिखी इस किताब की दस लाख प्रतियां छापी गयी हैं और हैरत की बात यह भी है कि पहले ही दिन दो लाख से ज्यादा किताबों की रिकॉर्ड तोड बिक्री हो गयी। बनारस की एक प्रेम कहानी में रचे-बसे चेतन के इस उपन्यास में शैक्षणिक जगत में व्याप्त भ्रष्टाचार की सच्ची तस्वीर पेश की गयी है। चेतन ने किताब लिखने से पहले कई बार बनारस की गलियों की खाक छानी। देश की विभिन्न शिक्षण संस्थाओं का अंदरूनी हाल-चाल भी जाना।आज यह कौन नहीं जानता कि देश की अधिकांश बडी-बडी शिक्षण संस्थाएं लालची उद्योगपतियों, काले-पीले कारोबारियों और भ्रष्ट नेताओं की गिरफ्त में हैं। इन धनखोरों के कॉलेजों में प्रवेश पाने के लिए छात्रों को लाखों रुपये की रिश्वत देनी पडती है। बेचारे मां-बाप अपने बच्चों के सुनहरी भविष्य के लिए जैसे-तैसे रुपयों का इंतजाम कर निजी कॉलेज संचालकों की मंशा को पूरा करते हैं। प्रतिभा न होने के बावजूद थैलियां देकर डॉक्टर और इंजिनियर बनने वाले युवक जहां मौका मिलता है वहां भ्रष्टाचार करने से नहीं चूकते। इसे उनकी विवशता भी कहा जा सकता है। दिया है तो लेंगे भी। असली डाकू ये नहीं वो हैं जो माल कमाने के लिए स्कूल कॉलेज चलाते चले आ रहे हैं। यह ऐसे डकैत हैं जो जनता को भी लूटते हैं और सरकार को भी। सरकार की नादानी कहें या मिलीभगत कि वह इन्हें करोडों की जमीनें कौडि‍यों के भाव खैरात में दे दी जाती हैं। फिर भी इनका पेट नहीं भरता। इन धनपशुओं ने शिक्षा संस्थानों में विद्या दान की बजाय उसे बेचना शुरू कर दिया है। जिनकी जेबे भारी हैं उन्हीं की नालायक औलादें डॉक्टर और इंजिनियर बन रही हैं और देश में भ्रष्टाचार बढा रही हैं। महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, हरियाना और जहां-तहां सत्ता का सुख भोग चुके राजनेताओं के स्कूल कॉलेज हैं। 'चौधरी', 'भाऊ', 'बाबू' जैसे तमाम नामधारी राजनीति में आते ही इसलिए हैं कि मेडिकल और इंजिनियर कॉलेज खोल अपने मंसूबे पूरे कर सकें। महाराष्ट्र में तो नेता विधायक बनते ही 'कॉलेज' हथिया लेते हैं और मंत्री बनने के बाद तो कॉलेजों की कतार लग जाती है।शासन से अधिकतम अनुदान ऎंठने के लिए निर्लज्ज धोखाधडी को भी बेखौफ होकर अंजाम दिया जाता है। महाराष्ट्र में कई शालाओं की जांच करने पर यह असलियत सामने आयी है कि संचालक फर्जीवाडा कर शासन को कई तरह से लूटते-खसोटते चले आ रहे हैं। छात्रों की संख्या कम होने के बावजूद कई गुना अधिक दर्शाकर अनुदान की लूटखोरी के खेल को खेलने के साथ-साथ शिक्षकों को नौकरी देने के नाम पर अच्छी-खासी ठगी की जाती है। मेडिकल कॉलेज, इंजिनियर कॉलेज से लेकर शाला, आश्रम शाला, जूनियर कॉलेज, हाईस्कूल और मतिमंद बच्चों के लिए चलने वाले स्कूलों की आड में शासन तथा जनता के करोडों-करोडों रुपये लूटने का जो शर्मनाक धंधा चल रहा है उसके रूकने और थमने के कहीं आसार नजर नहीं आते। इस लूटमारी से हर दल और हर नेता वाकिफ है। जिस दल की सरकार बनती है उसके नेता बहती गंगा में हाथ धो लेते हैं।भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अपने शारीरिक वजन को घटाने में सफलता पा ली है। अब वे दिल्ली में अपना वजन बढाना चाहते हैं। वैसे भी जब से वे दिल्ली भेजे गये हैं तभी से उन्हें यह गम सताता रहा है कि महाराष्ट्र की तरह दिल्ली में उनकी दाल गल नहीं पा रही है। दिल्ली वाले उन्हें गाली-गलौज करने वाला नेता समझते हैं इसलिए उन्होंने आध्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर के हाथों अपनी एक किताब का लोकार्पण करवा डाला। 'विकास के पथ पर' नामक किताब में ओरिजनल और नया कुछ भी नहीं है जैसा कि चेतन भगत की किताब में है। गडकरी समय-समय पर जो भाषण देते रहे हैं उन्हीं का संग्रह मात्र है यह किताब। दिल्ली के प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस किताब की कितनी प्रतियां बिकीं इस पर दिमाग खपाना बेकार की बात है। ऐसी किताबें न तो बिकती हैं और न ही इन्हें बेचने के लिए प्रकाशित किया जाता है। इन किताबों का मकसद खुद को बुद्धिजीवी साबित करना होता है। इन किताबों को आम पाठक न तो पढते हैं और न ही उनकी ऐसी कोई जिज्ञासा और इच्छा होती है। दरअसल यह संग्रहालयों की शोभा बढाती रहती हैं और यह भी दर्शाती रहती हैं कि नेता जी लेखक भी हैं...। यह बात भी लगभग हर किसी को पता है कि अधिकांश नेताओं के भाषण किसी और के लिखे होते हैं। नेता तो सिर्फ दूसरे के लिखे को मंच पर पढने का ही काम करते हैं। फिर भी नेताओं को अपने नाम से किताब छपवाने का 'सुख' तो मिल ही जाता है। ओरिजनल लेखक में कहां इतना दम कि वह नेता जी का विरोध कर सके। नेता तो नेता बडे-बडे अखबारों के संपादक भी दूसरों के लिखे संपादकीय लेखों के संग्रह की किताबें अपने नाम पर छपवा कर लेखक होने का गौरव हासिल कर लेते हैं। कई अखबार मालिक तो ऐसे भी हैं जो अपने तथा अपने दुलारे के नाम से बडे अधिकार के साथ वह कॉलम प्रकाशित करते चले आ रहे हैं जो दरअसल उनके संपादकीय सहयोगियों के द्वारा लिखा जाता है। मजे की बात तो यह भी है कि ऐसे कॉलम किताब का रूप भी पा लेते हैं जिस पर अखबार मालिक की फोटो परिचय सहित छपी रहती है...। इसे कहते हैं मेहनत करे मुर्गा और अंडा खाये फकीर....।

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