Thursday, November 10, 2011

उम्रदराज़ नेता की रुलायी

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को समझ पाना कतई आसान नहीं है। उनके आसपास रहने वालों का भी यही मानना है। लालकृष्ण आडवाणी, जिन्होंने मोदी को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाने में अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोडी थी, वे भी अंदर ही अंदर पछता रहे होंगे। पर मुंह से कुछ कह नहीं पाते। राजनीति का यही दस्तूर है कि चुप्पी साधे रहो। हर कोई अटल बिहारी वाजपेयी नहीं हो सकता जो दिल की बात फौरन उजागर कर दे। नरेंद्र मोदी को राजधर्म निभाने की सीख सिर्फ और सिर्फ अटल जी ही दे पाये थे। आडवाणी ने तो चुप्पी ही साध ली थी। चुप्पी में कहीं न कहीं समर्थन भी छिपा रहता है। राजनीति का यह अघोषित नियम है कि यदि अपनी जडे जमाये रखनी हैं तो दूसरे की खोदने की कतई हिमाकत न करो। जिन्होंने भी इस दस्तूर को निभाया वे सदैव मजे में रहे हैं।पिछले कई दिनों से मीडिया में यह खबरें आम थी कि नरेंद्र मोदी और लालकृष्ण आडवाणी के रिश्तों में खटास आ चुकी है। जबसे आडवाणी ने प्रधानमंत्री बनने की मंशा दर्शायी है तभी से मोदी खफा-खफा चल रहे हैं। दरअसल मोदी सभी को धकिया कर खुद देश के पी.एम. बनना चाहते हैं। भ्रष्टाचार और सुशासन के मुद्दे पर निकली लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा से नरेंद्र मोदी के असहमत और रुष्ट होने की न जाने कितनी खबरें मीडिया की सुर्खियां बनीं। पर जब रथ यात्रा मोदी के गुजरात में पहुंची तो उसका वो स्वागत हुआ जिसकी उम्मीद खुद रथयात्री ने भी नहीं की थी। हेलीकाप्टर से पुष्पवर्षा करवा आडवानी को गदगद कर देने वाले मोदी ने जब यह कहा कि 'आडवाणी का पसीना रंग लायेगा और कमल खिलेगा' तो लोग अपनी-अपनी सोच के अनुसार अर्थ तलाशते रहे। आडवाणी के मंच पर पहुंचते ही जैसे नजारा बदल गया। मोदी और आडवाणी के बीच की खाली पडी सिं‍हासननुमा कुर्सी ने दोनों दिग्गजों के बीच की दूरी को उजागर कर ही दिया। तथाकथित भावी प्रधानमंत्रियों की 'खटास' को मीडिया में छाना ही था पर नरेंद्र मोदी बौखला उठे। बोले, मीडिया को तो चटपटी खबरें परोसने की आदत ही पड गयी है।वैसे इस खबर में चटपटा कुछ भी नहीं था। जैसा देखा गया था, वैसा ही छापा और बताया गया था। जो लोग मोदी की फितरत से वाकिफ हैं उनका यह कहना है कि मोदी जानबूझ कर आडवाणी की बगल में नहीं बैठे क्योंकि उन पर हमेशा विवादास्पद खबरें पैदा करने और खबर बनने का जूनून सवार रहता है। इसके लिए वे कुछ भी कर गुजरने का माद्दा रखते हैं। उन्हें क्रुर और कठोर शासक मानने वाले भी ढेरों हैं। सत्ता के लिए मोदी वो सब कुछ कर सकते हैं जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। मोदी के अतीत के साथ जुडे किस्से असंख्य भारतीयों को आज भी भयग्रस्त कर देते हैं। फिर भी उन्हें चाहने और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देखने के इच्छुकों की संख्या भी कम नहीं है। देश और दुनिया के कई जाने-माने उद्योगपति उन्हें देश के शीर्ष सिं‍हासन पर विराजमान करने के लिए एडी-चोटी का जोर लगाते रहते हैं। यह सच्चाई कइयों को डराये हुए है। आडवाणी भी उनमें से एक हैं। आडवाणी को लौहपुरुष भी कहा जाता है। वे अपने सिद्घांतों पर हमेशा भी अडिग रहते हैं। आदमी के हर रूप की उन्हें पहचान है। पर लगता है कि वे मोदी को नहीं पहचान पाये। गुजरात में जब मोदी उनकी प्रशंसा कर रहे थे तब वे चिं‍तक और विचारक की मुद्रा में मंच पर आसीन चेहरों के भाव पढने में तल्लीन थे।यात्रा से हल्का-सा अवकाश निकाल उन्होंने अपना ८५ वां जन्मदिन दिल्ली में मनाया। जन्मदिन के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह में भी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की चर्चा छिड गयी। भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिं‍ह ने फरमाया कि जब मैं अखबारों में आडवाणी जी के प्रधानमंत्री पद की दौड में शामिल होने की खबरें पढता हूं तो मुझे दुख होता है। क्या आडवाणी के कद का नेता कभी खुद को प्रधानमंत्री बनाने का दावा पेश कर सकता है? वे तो इस पद के लिए सबकी स्वाभाविक पसंद हैं। वहां पर उपस्थित दूसरे भाजपाई नेताओं का भी यही मत था कि आडवाणी की नेतृत्व क्षमता का कोई सानी नहीं है। आडवाणी की इतनी प्रशंसा की गयी कि वे भावविभोर हो उठे और उनके आंसू छलक पडे। आंसू सबने देखे पर इन आंसुओं के पीछे का दर्द किसी ने भी नहीं देखा। कोई देख भी नहीं सकता। खुशी और पीडा के अश्रुओं में बहुत फर्क होता है। उम्रदराज नेता यूं ही नहीं रोया करते। इसके पीछे बहुत गहरा दर्द और अपनों के विश्वासघात की पीडा भी छिपी होती है। आडवाणी भी अपनी पीठ के पीछे वार करने वालों को जानते तो हैं पर खामोश हैं। वे ये भी चाहते हैं कि उनके हितैषी ही उनकी राह के कांटें को हटाएं। तभी बात बनेगी। आज की तारीख में लालकृष्ण आडवाणी की राह का कांटा कौन है यह तो आप सब को पता है...। जोर लगाते रहते हैं। यह सच्चाई कइयों को डराये हुए है। आडवाणी भी उनमें से एक हैं।

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