Thursday, February 23, 2012

ऐसे हालातों में...?

दिल्ली की एक अदालत ने एक छह वर्षीय बच्ची के साथ अप्राकृतिक सैक्स करने वाले तीस वर्षीय युवक को उम्र कैद की सजा सुनायी है। न्यायाधीश जब यह सजा सुना रही थीं तब वे किस कदर रोष की गिरफ्त में थीं उसका अंदाजा उनके द्वारा कहे गये इन शब्दों से लगाया जा सकता है: ''बच्चों के यौन शोषण करने वालों का बंध्यकरण करना ही सबसे उपयुक्त सजा है, लेकिन कोर्ट के हाथ बंधे हैं, क्योंकि कानून इसकी इजाजत नहीं देता।'' बलात्कारियों के प्रति ऐसा गुस्सा आम सजग जनों के बीच भी अक्सर देखा जाता है। अबोध बच्ची का अपहरण कर उसका यौन शोषण करने वाला यह दरिंदा कोई गैर नहीं बल्कि उसका रिश्तेदार था। नारी की पूजा करने का ढकोसला करने वाले इस देश में बच्चियों पर कैसे-कैसे कहर ढाये जाते हैं इसका खुलासा तो अखबारों और न्यूज चैनलों के जरिये सामने आने वाली खबरों से हो जाता है। देश में शायद ऐसा पहली बार देखने-सुनने में आया है कि अपना फैसला सुनाते समय किसी जज की व्यक्तिगत पीडा उजागर हुई हो। जज भी तो आखिर इंसान होते हैं। उन्हें भी उतनी ही तकलीफ होती है जितनी कि इस सृष्टि के हर विचारशील शख्स को। वैसे कुछ देशों में बलात्कारियों को नपुंसक बना देने की सजा दी भी जाती है। भारत वर्ष में जब एक न्यायाधीश को यह कहने को विवश होना पडा है कि बच्चों के साथ दुष्कर्म करने वालों को नपुंसक बना देना चाहिए तो विधायिका को भी इसपर गौर करना चाहिए। न्यायाधीश के समक्ष यकीनन पहले भी ऐसे कई मामले आये होंगे। जब उन्हें लगा कि यह दरिदंगी बेकाबू होती चली जा रही है तभी उन्हें अपना गुस्सा जाहिर करने को विवश होना पडा होगा।कहने को तो यह इकीसवीं सदी है पर अभी भी कई लोग ऐसे हैं जो अपने ही अहंकार, स्वार्थ और नियम-कायदों से बाहर नहीं निकल पाये हैं। महाराष्ट्र के शहर सातारा के रहने वाले एक पिता ने अपनी पढी-लिखी बेटी को इसलिए मार डाला क्योंकि वह अपनी पसंद के युवक से शादी करना चाहती थी। सोलहवीं सदी के विचारों और संस्कारों में रचा-बसा बाप बेटी को अपनी गुलाम समझता था। उसे यह कतई बर्दाश्त नहीं था कि उसकी औलाद उसके आदेश का पालन न करे। बेटी ने जब उसकी पसंद के लडके से शादी करने से इनकार कर दिया तो उसने वही किया जो अक्सर उत्तरप्रदेश और हरियाना में अपनी तथाकथित आन-बान और शान बचाने के लिए किया जाता है। इस घटना ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि ऑनर किलिं‍ग के मामले में देश का कोई भी प्रदेश किसी से पीछे नहीं हैं। जहां-तहां ऐसे हत्यारे भरे पडे हैं जो बेटियों पर जुल्म ढाने, अस्मत से खेलने और उनकी हत्याएं करने से कतई नहीं घबराते। कोई भी दिन ऐसा नहीं बीतता जब देश में पांच-सात बलात्कार होने की खबरें न आती हों। जिन महानगरों को कभी महिलाओं के लिए सुरक्षित समझा जाता था वहां भी जोर-जबरदस्ती करने की घटनाओं में निरंतर होता इजाफा यह बताता है कि कामुकता की आग में झुलसते नराधमों के लिए नारी मात्र भोग और खिलवाड की वस्तु है। देश की राजधानी दिल्ली में तो जैसे कानून का खौफ ही गायब हो चुका है। बीते सप्ताह एक चौदह साल की नाबालिग लडकी जब दूध लेने के लिए बाजार जा रही थी तो उसे कुछ अय्याश युवकों ने अपनी गाडी में खींच लिया। चलती गाडी में उसपर बलात्कार किया और फिर देर रात जंगलनुमा इलाके में मरने और तडपने के लिए पटक कर चलते बने। कोई भी दिन खाली नहीं जाता जब दिल्ली में इस तरह के बलात्कार को अंजाम न दिया जाता हो। हैरानी की बात तो यह भी है कि पुलिस के लाख हाथ-पांव पटकने के बावजूद भी बलात्कारी पकड में नहीं आ पाते। न जाने कितने बलात्कार के मामले अनसुलझे पडे हुए हैं। अपने देश में परंपरा, संस्कृति और सभ्यता की बातें करने वाले तो ढेरों हैं पर यह भी कमाल की बात है कि यहां के मंत्री ही विधानसभाओं में ब्ल्यू फिल्म का आनंद लेते देखे जाते हैं। जिन्हें आम लोग अपना आदर्श मानते हैं, अक्सर वही नारी का अपमान करते देखे जाते हैं।पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में गजब का बदलाव आया है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने उन लोगों को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है जो कभी अपनी बहू-बेटियों को नैतिकता और मर्यादा का पाठ पढाते नहीं थकते थे। खाओ-पीओ और मौज करो की नीति के साथ जीवन जीने वालों की संख्या के बढते चले जाने के कारण पथभ्रष्ट होने वाली नारियों की संख्या में भी बेतहाशा इजाफा हुआ है। पिछले दिनों पुणे के एक फाइव स्टार होटल में वेश्यावृति करते पकडी गयी एक फिल्म अभिनेत्री के साथ उसके भाई को भी दबोचा गया। तय है कि भाई को बहन के देह धंधे से कोई आपत्ति नहीं थी। यह भी कह सकते हैं कि भाई अपनी बहन की देह की कमायी से मजे लूट रहा था। मुंबई, कोलकाता, दिल्ली, हैदराबाद जैसे कई महानगरों में ऐसे मां-बाप भी देखे-सुने गये हैं जिन्हें अपनी बेटियों से देह व्यवसाय करवाने में कतई शर्म नहीं आती। कई बार तो पति के द्वारा ही पत्नी से वेश्या व्यवसाय कराने की खबरें पढने और सुनने को मिल जाती हैं। यह बडी दुविधाजनक स्थिति है। ऐसे में कोर्ट और कानून भी क्या कर सकता है? जो लोग पवित्रता, शालीनता और नैतिकता के हिमायती हैं उनकी तमाम कवायदें और गुस्सा भी बेअसर होकर रह जाता है।

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