Thursday, March 29, 2012
कटघरे में खडे डॉ. रमन सिंह
कुछ खबरें, खबरें नहीं होतीं। धमाका और तमाचा होती हैं। पर ऐसा लगता है कि अब लोगों पर किसी धमाके और तमाचे का कोई असर नहीं होता। देश के प्रदेश छत्तीसगढ के शहर बिलासपुर में एक पुलिस अधिकारी ने आत्महत्या कर ली। यह खबर भी आयी-गयी हो गयी। देश में हर दिन न जाने कितने लोग आत्महत्या करते हैं। लोग खबरें पढते-सुनते हैं फिर अपने काम पर लग जाते हैं। खाकी वर्दीधारी अधिकारी राहुल शर्मा का हंसता-खेलता परिवार था। अपनी ड्यूटी भी सजगतापूर्वक निभाते चले आ रहे थे। ऊपरी तौर पर सब कुछ ठीक-ठाक था। फिर अचानक उन्हें आत्महत्या को मजबूर क्यों होना पडा? यह तो कोई मान ही नहीं सकता कि कोई पुलिस अधिकारी किसी छोटी-मोटी वजह से मौत को गले लगा लेगा। जो लोग पुलिस में भर्ती होते हैं वे दिल और दिमाग से मजबूत माने जाते हैं। उन्हें यहां-वहां के थपेडे आसानी से डिगा नहीं सकते। फिर भी अपवाद तो हर जगह होते हैं। पुलिस अधिकारी राहुल शर्मा को गंभीर किस्म के अधिकारियों में गिना जाता था। इसलिए जब उनकी आत्महत्या की खबर आयी तो उन्हें जानने-पहचानने वाले स्तब्ध रह गये। कई तरह की अफवाहें भी उडीं। पर एक सच को पता नहीं क्यों नजरअंदाज कर दिया गया! यहां 'सच' शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया जा रहा है क्योंकि इसे उजागर किया है राहुल शर्मा के एक बेहद करीबी ने। आत्महत्या के कुछ दिन पहले राहुल शर्मा ने अपने मित्र को फोन पर अपनी उस परेशानी से अवगत कराया था जिनके कारण वे काफी विचलित हो गये थे। राहुल शर्मा को पुलिस की नौकरी बोझ लगने लगी थी। यह असहनीय बोझ उनकी चेतना पर भारी पडने लगा था। उन्होंने बडे दुखी मन से बताया था कि उन पर अगले वर्ष होने जा रहे विधानसभा चुनावों के लिए धन जुटाने का जबर्दस्त दबाव बनाया जा रहा है।तो क्या बिलासपुर के पुलिस अधीक्षक ने आत्महत्या इसलिए की, क्योंकि वे ऊपरी आदेश का पालन करने में खुद को असमर्थ पा रहे थे? वे चेहरे कौन हैं जो उन्हें येन-केन-प्रकारेण धन जुटाने को मजबूर कर रहे थे? इन सवालो का जवाब सामने आना ही चाहिए। वैसे इन सवालों का जवाब पाने के लिए ज्यादा दिमाग लडाने की जरूरत नहीं है। चुनाव चाहे कोई भी हो, नेताओं को फंड की जरूरत तो पडती ही है। यह फंड आसमान से नहीं टपकता। मिल-बांटकर खाने के इस दौर में एक भ्रष्टाचारी दूसरे के काम आता है और इस चक्कर में ईमानदार मारा जाता है। जब से देश आजाद हुआ है लगभग तभी से यह परंपरा चली आ रही है। शुरू-शुरू में नेता बडे-बडे उद्योगपतियों के चंदों की बदौलत चुनाव लडते थे। तब इतनी अधिक राजनीतिक पार्टियां नहीं थी। इसलिए टाटा-बिरला से लेकर बडे-छोटे सभी अपनी-अपनी हैसियत के हिसाब से रसीदें कटवा कर मुक्ति पा लिया करते थे। कुछ के अपने-अपने स्वार्थ भी होते थे जिन्हें वे वक्त आने पर साध लिया करते थे। अंबानी परिवार इसका जीता-जागता उदाहरण है। अब तो अंबानी बंधुओं के पदचिन्हों पर चलने वाले ढेरों है जो जहां-तहां अपना वर्चस्व जमाये हुए हैं। देश में जिस रफ्तार के साथ काले धंधों ने जोर पकडा उसी तेजी के साथ प्रशासन भी रिश्वतखोरी और तमाम भ्रष्टाचार का संगी-साथी बनता चलता गया। कोई भी सरकारी विभाग भ्रष्टाचार से अछूता नहीं रहा। अपराधियों और खाकी वर्दी वालों में भेद कर पाना मुश्किल होता चला गया और देखते ही देखते वर्दी पर इतने दाग लग गये कि ईमानदार वर्दीवाला ढूंढ पाना दुर्लभ-सा हो गया। सत्ताधारी नेताओं की कौम ने इसका भरपूर फायदा उठाया। कमायी वाली जगह पर नियुक्ति देने और पाने के लिए बोलियां लगनी शुरू हो गयीं। इस हकीकत से लोग वाकिफ हो चुके हैं कि जो पुलिस अधिकारी सत्ताधारी नेताओं के इशारे पर चलते हैं उनके लिए तरक्की के रास्ते अपने आप खुलते चले जाते हैं। ऐसे उदाहरण भी अनेकों हैं जब किसी ईमानदार अधिकारी ने भ्रष्ट राजनेता को थैली पहुंचाने से इनकार किया तो उसकी नियुक्ति ऐसे स्थान पर कर दी गयी जिसे सजा के तौर पर देखा जाता है।यह पंक्तियां लिखते-लिखते मुझे मुंबई के पूर्व पुलिस अधिकारी वाय.के. सिंह याद आ रहे हैं। वाय.के. सिंह ने असहायों को न्याय और दुर्जनों को हथकडियां पहनाने के उदेश्य से पुलिस की वर्दी पहनी थी। कर्तव्यनिष्ठ सिंह राजनेताओं की जी-हजूरी नहीं कर पाये। अपराधियों और राजनेताओं का खतरनाक गठजोड उन्हें बर्दाश्त नहीं था। इसलिए पुलिस की नौकरी में होते हुए भी उन्होंने विद्रोह का झंडा थाम लिया। सच के लिए डटे रहने वाला पुलिस अधिकारी उच्च अधिकारियों और मंत्रियों को खटकने लगा। सिंह को अपमानित और प्रताडित करने के बहाने-दर-बहाने ढूंढे जाने लगे। ऐसे दमघोटू माहौल में नौकरी बजाने की बजाय उन्होंने खाकी वर्दी उतार फेंकी और इस्तीफा देकर व्यवस्था को बदलने के अभियान में कूद पडे। उन्होंने पुलिस विभाग में व्याप्त चाटूकारिता और मंत्रियों की दखलअंदाजी की जो तस्वीर देश के सामने रखी उससे तमाम राष्ट्रप्रेमी स्तब्ध रह गये। महाराष्ट्र के संदिग्ध मंत्रियों और पुलिस के उच्च अधिकारियों में भी खलबली मच गयी। वाय.के. सिंह ने जो रास्ता चुना उसकी तारीफ हर किसी ने की। क्या राहुल शर्मा के लिए सभी रास्ते बंद हो गये थे कि उन्हें आत्महत्या करने को मजबूर होना पडा? छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह खुद को बहुत ईमानदार बताते नहीं थकते। ईमानदार पुलिस अधिकारी की आत्महत्या ने कहीं न कहीं उन्हें तथा उनके चंगु-मंगुओं को भी कटघरे में खडा कर दिया है।
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