Thursday, July 5, 2012

यात्रा और यात्रा

ताशकंद-समरकंद-उज्जबेकिस्तान की बहुप्रतिक्षित यात्रा को लेकर मैं बेहद उत्साहित और रोमांचित था। आखिर वो दिन आ गया। सृजन-गाथा डॉट कॉम छत्तीसगढ, रायपुर के द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिं‍दी सम्मेलन में भाग लेने हेतु पहुंचा हमारा काफिला २५ जून की सुबह उज्जबेकिस्तान की राजधानी ताशकंद की जमीन पर कदम रख चुका था। दिल्ली से ताशकंद की उडान में लगभग साढे तीन घंटे लगे थे फिर भी किसी के चेहरे पर थकान की लकीरें नहीं थीं। हर कोई जल्दी से जल्दी फ्रेश होकर उस ताशकंद को देखने को लालायित था जिसने कभी भयंकर भूचाल की जबरदस्त मार झेली थी और बुरी तरह से तहस-नहस हो गया था, लेकिन फिर भी देखते ही देखते उसने फिर से वही अपना पुराना गौरव हासिल कर पूरी दुनिया को चौंका दिया था।
ताशकंद की साफ-सुथरी सडकों से गुजरते हुए हमारा कारवां सबसे पहले हिं‍दुस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री के स्मृति स्थल को देखने के लिए पहुंचा। ताशकंद का नाम लेते ही 'जय जवान, जय किसान' का नारा लगाने वाले राष्ट्र के सच्चे सपूत श्री लालबहादुर शास्त्री की याद ताजा हो जाती है। १९६५ में पाकिस्तान और भारत के बीच जंग हुई थी। दोनों देशों के बीच दुश्मनी की नंगी तलवारें खींच चुकी थीं। अमन और शांति कायम करने के उद्देश्य से १९६६ में लाल बहादुर शास्त्री पहली बार ताशकंद पहुंचे थे। १० जनवरी १९६६ को ताशकंद समझौता हुआ। समझौते के अनुबंध पर भारत के प्रधानमंत्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के हस्ताक्षर हुए थे। इस समझौते के दूसरे दिन श्री शास्त्री को हार्ट अटैक का दौरा पडा और वे चल बसे। जिस स्थान पर उनका देहावसान हुआ था उसी के समक्ष एक आकर्षक बाग है। इसी बाग में ही उनकी एक प्रतिमा स्थापित है। सम्मेलन में शामिल सभी साहित्यकारों, पत्रकारों, शिक्षाविदों आदि ने देश के सीधे-सादे-सच्चे नेता को श्रद्धांजली अर्पित की। जब ताशकंद में श्री शास्त्री का आकस्मिक निधन हुआ था तब कई तरह की चर्चाएं उभरी थीं। उन्हें जहर दिये जाने की शंकाएं भी व्यक्त की गयी थीं। यह भी सुना-सुनाया जाता था उन पर कोई भारी दबाव बनाया गया था जो उन्हें कतई स्वीकार नहीं था। दरअसल उनके लिए देश की अस्मिता से बढकर और कुछ भी नहीं था। वे दिल के इतने कमजोर भी नहीं थे। फिर भी हार्ट-अटैक के शिकार होकर वहीं चल बसे! असली सच क्या था वह अभी तक पर्दे में है। हकीकत को उजागर न किये जाने के कारण देश के सजग जनों में अभी भी कई तरह की शंकाएं बरकरार हैं। आतंक प्रेमी पाकिस्तान के हुक्मरानो के कारण हमें एक ऐसा राजनेता खोना पडा जो देश और दुनिया के लिए एक आदर्श था। पाकिस्तान और हिं‍दुस्तान के बीच अमन और शांति के लिए अपनी अहूति देने वाले श्री शास्त्री राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बाद एक मात्र ऐसे महापुरुष थे जिनका समूचा जीवन और कार्यकाल निष्कलंक रहा। ताशकंद समझौते पर हिं‍दुस्तान और पाकिस्तान के शासकों ने हस्ताक्षर किये थे, परंतु पाकिस्तान कभी भी शांति के मार्ग पर नहीं चल पाया। शास्त्री जी की कुर्बानी व्यर्थ चली गयी। इस पडौसी देश के बददिमाग शासकों को हमारी तरक्की और खुशहाली कभी रास नहीं आयी। आजादी के बाद आक्रमण-दर-आक्रमण कर मात खाने वाले पाकिस्तान में सही मायने में लोकतंत्र इसलिए स्थापित नहीं हो पाया क्योंकि वहां के शासकों की नीयत में हमेशा खोट रहा है। भारत के विभिन्न शहरों में आतंकियों को भेजना और बम-बारुद बिछवाकर निर्दोषों की जान लेना इनकी आदत में शुमार है। ऐसे भेडि‍यों से अमन और शांति की उम्मीद रखना व्यर्थ था, और व्यर्थ है। दरअसल ये इंसान नहीं, जानवर हैं जो हमेशा इस कहावत को चरितार्थ करते रहते हैं कि कुत्ते की पूंछ कभी सीधी नहीं हो सकती।
यह भी सच है कि इस सारे खून-खराबे के खेल में पाकिस्तान की आम जनता कहीं भी शामिल नहीं। वहां की आम जनता दोनों देशों के बीच भाईचारा चाहती है। अधिकांश बुद्धिजीवी, साहित्यकार, पत्रकार और समाज सेवक भी दो पडौसी देशों के बीच दुश्मनी की दिवारें नहीं देखना चाहते। पर वे बेबस हैं। हुक्मरानों की दहशतगर्दी और कमीनगी के आगे उनकी एक भी नहीं चलती। लगभग पूरी तरह से अपराध मुक्त माने जाने वाले शहर ताशकंद से समरकंद की यात्रा के दौरान पाकिस्तान से आयी महिला साहित्यकारों ने जिस उमंग और आत्मीयता के साथ भारतीय पर्यटन दल का स्वागत किया और दिल खोलकर बातें कीं उसे भूला पाना तो कतई आसान नहीं है। ऐसा लग रहा था जैसे किसी दूर देश में हम अचानक अपनों से मिल रहे हों। काश! पाकिस्तान के राजनेता और सत्ता के भूखे फौज के उच्च अधिकारी इस तस्वीर को देखते-समझते और अपना दिल और दिमाग दुरुस्त कर पाते कि असली खुशी तो एक दूसरे के गले लगने से मिलती है न कि बम-बारुद बिछाने और गर्दनें उडाने से।

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