Thursday, September 27, 2012

वफादारी का ईनाम

देशभर में काला धन के खिलाफ बिगुल बजाते फिरते बाबा रामदेव घटिया तेल, नमक, लीची शहद, जैम आदि बाजार में खपा कर लोगों की जिन्दगी से खिलवाड कर रहे हैं। वैसे इस तरह के घटिया काम घटिया किस्म के व्यापारी किया करते हैं। रामदेव बाबा तो योगी हैं। योगी के साथ ऐसा दुर्योग...! हैरान परेशान करने वाली बात तो है। देशवासियों को जागृत करने की कसरत करने वाले बाबा अपने बचाव में लाख दलीलें दें, पर उत्तराखंड खाद्य विभाग की रिपोर्ट ने दबी-छिपी सच्चाई सामने लाकर रख दी है। योगी के भीतर दुबक कर बैठे मुनाफाखोर के इस मलीन चेहरे को भी लोगों ने देख लिया है। उनके अंध भक्त इसे भी सरकारी साजिश बताने से बाज नहीं आएंगे। इस मुल्क में जितने भी बाबा हैं, उनका सारा का सारा साम्राज्य उनके अंध भक्तों की बदौलत ही टिका हुआ है। इन अंध भक्तों में कई तो ऐसे होते हैं जिनके ऊपर 'बाबा' के बहुतेरे उपकार होते हैं। 'बाबा' के गोरखधंधो को आगे बढाने में भक्तों का भी खासा योगदान होता है। राजनीति की तरह यहां भी 'चोर-चोर मौसेरे भाई' की कहावत चरितार्थ होती रहती है।
रामदेव, पतंजली योगपीठ और दिव्य फार्मेसी के कर्ताधर्ता हैं, जहां अरबो-खरबों का धंधा होता है। उनके आश्रम में शुरू-शुरू में 'योगासन' पर विशेष ध्यान दिया जाता था। माया के चक्कर ने अपनी ऐसी माया दिखायी कि आश्रम में नमक, काली मिर्च, लीची शहद, पाचन चूर्ण, काली मिर्च, तरह-तरह की यौन शक्तिवर्धक दवाओं के साथ-साथ और भी बहुत कुछ बनने लगा। कहीं और बने सामानों को भी बाबा की कंपनी का ठप्पा लगाकर धडल्ले से बेचा जाने लगा। योग ने बाबा की 'साख' जमा दी। चंदा भी जम कर बरसने लगा। बाबा जान-समझ गये कि जनता उनकी मुरीद हो चुकी है। वे जो भी माल खपाना चाहें खपा सकते हैं। अब जब पोल खुलने लगी है तो रामदेव कहते हैं कि उन्होंने सरकार के खिलाफ जंग छेड रखी है इसलिए उन पर बदले का डंडा चलाया जा रहा है। वे ये भी फरमाते हैं कि यह आम आदमी और अमीरों के बीच की जंग है। बाबा खुद को आम आदमी मानते हैं!
रामदेव भले ही खुद को आम आदमी प्रचारित कर आम आदमी की सहानुभूति बटोरने की कोशिशों में लगे हुए हैं पर असली आम आदमी इतना बेवकूफ नहीं है कि हकीकत से वाकिफ न हो। दिव्य फार्मेसी के बैनर तले देशभर में खुली बाबा की दूकानों पर जो भी माल बिकता है उसकी ऊंची कीमतें ही बता देती हैं कि रामदेव की असली मंशा क्या है। दरअसल वे भी नेताओं की तरह आम आदमी के झंडे को ऊंचा उठाकर अपना असली हित साधने में लगे हैं। उनके व्यवसायी मकसद और असीम महत्वाकांक्षाओं के बारे में जितना भी लिखा जाए, कम है। कुछ महीने पहले तक देश जो सपना देख रहा था उसकी धज्जियां उड चुकी हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ अगर रामदेव, अन्ना हजारे की तरह पारदर्शी होते तो जनहित की जंग की ऐसी दुर्गति न होती। जब तक अन्ना और उनकी विद्राही टीम अकेले 'लोकपाल' की मांग पर अडी थी, तब तक सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। जैसे ही बाबा ने अन्ना के मंच पर पांव धरे, सारा मामला ही गडबडा गया। अन्ना टीम बिना कोई भेदभाव किये सभी भ्रष्टाचारियों पर निशाना साधना चाहती थी, वहीं बाबा कुछ को नजरअंदाज करने की भूमिका में थे। उन्हें सारी की सारी कमियां कांग्रेस में ही नजर आयीं। भारतीय जनता पार्टी के जगजाहिर भ्रष्टाचारियों को भी उन्होंने पाक-साफ होने के प्रमाण पत्र बांटने में कोई कमी नहीं की।
पिछले वर्ष अन्ना आंदोलन के साथ जो भीड खडी नजर आती थी, वह धीरे-धीरे नदारद होती चली गयी। अन्ना का इसमें कोई दोष नहीं था। दोषी थे तो सिर्फ और रामदेव जिन्होंने 'योग' के मार्ग को त्यागकर व्यापार की राह पकड ली थी। अन्ना सभी को एक ही तराजू में तोलने में यकीन रखते आये हैं। उनका ठिकाना एक मंदिर था तो योगी ने देश तो देश विदेशों में भी टापू खरीदने शुरू कर दिये थे। आश्रम में बनने वाले विभिन्न सामानो का धंधा भी जोर पकड चुका था। उनके धंधे पर भी उंगलियां उठने लगी थीं। अपने 'गुरू' को गायब करा देने के संगीन आरोप भी रामदेव पर लगे। शीशे के घर में रहने वाला चतुर-चालाक बाबा राजनीति के दस्तूर को समझ नहीं पाया! बाबा अगर सिर्फ योगी होते तो उन्हें कटघरे में खडा करने की कोई जुर्रत ही न कर पाता। अन्ना और रामदेव के इसी फर्क ने एक अच्छे-खासे आंदोलन को पानी पिला दिया है। अन्ना की कोई मजबूरी नहीं। रामदेव की अनेकों मजबूरियां हैं। अन्ना हजारे सीधे और सरल किस्म के समाजसेवक हैं। वे सच को सच और भ्रष्ट को भ्रष्ट कहने में कोई संकोच नहीं करते। बाबा बहुत नापतोल कर चलते हैं। उनके धंधे ही कुछ ऐसे हैं, जिनके कारण उन्हें अपने बचाव और पक्ष में खडे होने और बोलने वाले राजनेताओं की जरूरत पडती रहती है। उनका यह काम भाजपा वाले पूरी ईमानदारी के साथ करते चले आ रहे हैं। अब तो किरण बेदी भी भाजपा के साथ खडी हो चुकी हैं। किरण बेदी का रंग बदलना लोगों को हैरान कर गया है। भाजपा को तो ऐसे 'गिरगिटी' चेहरों की तलाश रहती है। तभी तो उसने अभी से दिल्ली की गद्दी पर किरण को बैठाने के सपने भी देखने शुरू कर दिये हैं। अगर ये सपना पूरा नहीं हुआ तो राज्यसभा की सांसद तो बन ही जाएंगी किरण बेदी। हर किसी को 'वफादारी' का ईनाम मिलना ही चाहिए...।

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