मंत्री और सांसद अपनी गरिमा खोने लगे हैं। उन्हें अब लोगों के सवाल रास नहीं आते और आग बबूला हो उठते हैं। आम जनता का गुस्सा भी उफान पर है। पता नहीं क्या कर बैठे। नये-नये घपले-घापे और तमाशे सामने आ रहे हैं। यह सिलसिला कहां पर जाकर थमेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को एक कार्टून इतना आहत कर गया कि उन्होंने कार्टूनिस्ट को जेल में सडाने की ठान ली। ऐसा लगा कि इस देश में लोकतंत्र का जनाजा निकालने की तैयारी हो रही है। जिस शख्स ने ममता का कार्टून बनाया और जेल यात्रा की सजा भुगती, वह कोई अनपढ गंवार नहीं है। अंबिकेश महापात्र नाम है इनका। जादवपुर विश्वविद्यालय में केमेस्ट्री के प्रोफेसर हैं। कार्टून के जरिये वे दंभी ममता को 'राजधर्म' से अवगत कराना चाहते थे। परंतु ममता उखड गयीं, जैसे किसी ने भरे चौराहे पर तमाचा जड दिया हो। सत्ता के मद में चूर मुख्यमंत्री ने अपना आपा खो दिया। दरअसल ममता अपनी ही छवि को ध्वस्त करने पर तुली हैं। जब देखो तब अपनी पर आ जाती हैं। किसी भी नागरिक को मुख्यमंत्री, मंत्री से प्रश्न पूछने का पूरा अधिकार है। आमसभा के दौरान एक किसान ने अपने प्रदेश की मुख्यमंत्री पर सवाल दागा कि 'आप कब तक खोखले वादे करती रहेंगी? गरीब किसान मर रहे हैं और आपको उनकी कोई चिंता नहीं है...! आप किसानों के उद्धार के लिए कुछ करना भी चाहती हैं या यूं ही भाषणबाजी करती रहेंगी?' किसान की पीडा को समझने की बजाय ममता भडक उठीं। उनका खून खौल उठा। एक अदने से किसान की उनसे सवाल पूछने की हिम्मत कैसे हो गयी! गुस्सायी मुख्यमंत्री ने मंच से ही दहाड लगायी कि हो न हो यह कोई माओवादी ही है जो उनकी सभा में बाधा पहुचाने के लिए आया है। मुख्यमंत्री के आरोप जडने की देरी थी कि पुलिस वालों ने उसे फौरन गिरफ्तार कर लिया। अगले दिन उसे रिहा भी कर दिया फिर पता नहीं क्या हुआ कि दो दिन बाद उसे फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। इस बार उस पर मुख्यमंत्री पर हमले का प्रयास करने, आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने और शांति भंग करने के संगीन आरोप जड दिये गये। ऐसे 'खतरनाक' शख्स को सबक सिखाया जाना जरूरी था। अदालत ने जमानत नहीं दी और उसे उसके सही ठिकाने यानी जेल में डाल दिया गया। ममता को हर वो आदमी अपना दुश्मन लगता है जो उन्हें आईना दिखाने की चेष्टा करता है। सच से खौफ खाने वाली इस मुख्यमंत्री के प्रदेश में वही लोग सुरक्षित हैं जो उनकी आरती गाते हैं। हाल ही में प्रगतिशील लेखक नजरूल इस्लाम की लिखी एक किताब पर इसलिए प्रतिबंध लगा दिया गया, क्योंकि इसमें मुख्यमंत्री पर उंगलियां उठायी गयी हैं और ऐसे-ऐसे सवाल किये गये हैं जो उन्हें कतई पसंद नहीं हैं। लेखक नजरूल इस्लाम सार्थक लेखन के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने वाम मोर्चा की सरकार के कार्यकाल में पुलिस के राजनीतिकरण पर भी एक सशक्त किताब लिखी थी जिसने तब के शासकों की नींद हराम करके रख दी थी। उन्होंने भी लेखक को कानूनी दांव-पेंच में उलझाया था पर अंतत: सच की जीत हुई थी। ममता चाहतीं तो इतिहास से सबक ले सकती थीं। पर वे भी वही सब कर रही हैं उनके पूर्ववर्ती शासकों ने किया था। लगता है कि अहंकार बुद्धि पर हावी हो चुका है। सच, सोच और सजगता की बलि चढाने की प्रतिस्पर्धा चल रही है।
कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी ने भ्रष्ट व्यवस्था पर निशाना साधते हुए कार्टून बनाया तो उन्हें देशद्रोही करार देते हुए १४ दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। देश की सजग जमात ने सरकारी तांडव का जमकर विरोध किया। सारा का सारा मीडिया भी असीम के पक्ष में खडा हो गया तो महाराष्ट्र के सरकारी तंत्र की जमीन खिसकने लगी। असीम त्रिवेदी एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के पोते हैं। उन्हें मालूम है कि हिंदुस्तान को आजाद कराने के लिए कितनी और कैसी-कैसी कुर्बानियां दी गयीं। जब उन्होंने देखा कि शहीदों के सपनों का भारत कहीं नजर नहीं आ रहा तो वे आहत हो उठे। व्यवस्था के खिलाफ अपना विरोध दर्शाने के लिए उन्होंने कार्टून विधा का सहारा लिया। सरकार और उसके तमाम पुर्जे चापलूसी पसंद करते हैं। आलोचना और विरोध तो कतई नहीं। सरकार ने जब देखा असीम सच की लडाई लडने वाला एक जिद्दी नौजवान है और देश के करोडों लोग भी उसके साथ खडे हो गये है तो उसने उसे रिहाई देने में ही अपनी भलाई समझी।
यह कितनी अजीब बात है कि कई राजनेता मीडिया का सामना करने का साहस तक खोते जा रहे हैं। कांग्रेस के सांसद नवीन जिंदल ने हजारों करोड के कोयला कांड में शामिल होकर अपनी छवि को तो कलंकित करने में किंचित भी देरी नहीं लगायी पर जब मीडिया से रूबरू होने की बारी आयी तो हाथ-पांव चलाने लगे! जिस देश में गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और बदहाली के कारण करोडो लोगों का जीना हराम हो गया हो वहां अगर कुछ गिने चुने लोग सरकारी संपदा को लूटने में लगे हों और शाही जीवन बिता रहे हों तो वहां गुस्से के बारूद नहीं तो और क्या फूटेंगे? क्या ऐसे भ्रष्टाचारी ठगों और लुटेरों को नजर अंदाज कर दिया जाए? आज जनता देश के हुक्मरानों से पूछ रही है कि सच को उजागर करने वाले कार्टूनिस्ट, लेखक और किसान देशद्रोही हैं या अरबो-खरबों की सरकारी संपदा चट कर जाने वाले ये तथाकथित राजनेता जिनका कोई ईमान-धर्म नहीं है...।
कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी ने भ्रष्ट व्यवस्था पर निशाना साधते हुए कार्टून बनाया तो उन्हें देशद्रोही करार देते हुए १४ दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। देश की सजग जमात ने सरकारी तांडव का जमकर विरोध किया। सारा का सारा मीडिया भी असीम के पक्ष में खडा हो गया तो महाराष्ट्र के सरकारी तंत्र की जमीन खिसकने लगी। असीम त्रिवेदी एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के पोते हैं। उन्हें मालूम है कि हिंदुस्तान को आजाद कराने के लिए कितनी और कैसी-कैसी कुर्बानियां दी गयीं। जब उन्होंने देखा कि शहीदों के सपनों का भारत कहीं नजर नहीं आ रहा तो वे आहत हो उठे। व्यवस्था के खिलाफ अपना विरोध दर्शाने के लिए उन्होंने कार्टून विधा का सहारा लिया। सरकार और उसके तमाम पुर्जे चापलूसी पसंद करते हैं। आलोचना और विरोध तो कतई नहीं। सरकार ने जब देखा असीम सच की लडाई लडने वाला एक जिद्दी नौजवान है और देश के करोडों लोग भी उसके साथ खडे हो गये है तो उसने उसे रिहाई देने में ही अपनी भलाई समझी।
यह कितनी अजीब बात है कि कई राजनेता मीडिया का सामना करने का साहस तक खोते जा रहे हैं। कांग्रेस के सांसद नवीन जिंदल ने हजारों करोड के कोयला कांड में शामिल होकर अपनी छवि को तो कलंकित करने में किंचित भी देरी नहीं लगायी पर जब मीडिया से रूबरू होने की बारी आयी तो हाथ-पांव चलाने लगे! जिस देश में गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और बदहाली के कारण करोडो लोगों का जीना हराम हो गया हो वहां अगर कुछ गिने चुने लोग सरकारी संपदा को लूटने में लगे हों और शाही जीवन बिता रहे हों तो वहां गुस्से के बारूद नहीं तो और क्या फूटेंगे? क्या ऐसे भ्रष्टाचारी ठगों और लुटेरों को नजर अंदाज कर दिया जाए? आज जनता देश के हुक्मरानों से पूछ रही है कि सच को उजागर करने वाले कार्टूनिस्ट, लेखक और किसान देशद्रोही हैं या अरबो-खरबों की सरकारी संपदा चट कर जाने वाले ये तथाकथित राजनेता जिनका कोई ईमान-धर्म नहीं है...।
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