Thursday, December 20, 2012

बर्बरता और व्याभिचार की इंतिहा

विदायी के कगार पर होने के बावजूद २०१२ अपने नये रंग दिखाने और जख्म देने से बाज नहीं आया। वैसे भी इस वर्ष को भुला पाना आसान नहीं होगा। राजनेताओं के मुखौटों को तार-तार करके रख देने वाले सन २०१२ में भ्रष्टाचार, व्याभिचार और बलात्कार की खबरों में प्रतिस्पर्धा-सी चलती रही। साल का कोई भी दिन ऐसा नहीं बीता जब किसी बेबस नारी की अस्मत लुटने और छेडछाड की घटना ने सुर्खियां न बटोरी हों। देश की राजधानी दिल्ली ने तो जैसे इतिहास ही रच डाला। लगा ही नहीं कि यहां पर बेहद ताकतवर राजनीतिक हस्तियों का बसेरा है और एक महिला यहां की मुख्यमंत्री है।
हमारे देश में महिलाओं को जन्मजात भावुक और संवेदनशील माना जाता है। पर यह कैसी विडंबना है कि एक महिला की सल्तनत में दिलवालों की दिल्ली अराजक तत्वों और बलात्कारियों की राजधानी बन गयी और मुख्यमंत्री के चेहरे पर कहीं कोई शिकन ही नहीं आयी! महिलाओं का रात को घर से बाहर नहीं निकलने की सीख देने वाली शीला दीक्षित और दूसरे तमाम ढोंगी राजनेताओं में ज्यादा फर्क नहीं है। जहां एक ओर नारी को पूजा जाता है और दूसरी तरफ सरे बाजार उसकी अस्मत लूट ली जाती है। दरअसल यही असली सच है, बाकी सब फरेब है। राजधानी दिल्ली में एक बार फिर एक युवती को उसके मित्र के सामने बंधक बनाकर चलती बस में दरिंदों ने अपनी हवस का शिकार बना डाला। लगातार दो घंटे तक बलात्कारियों का तांडव चलता रहा और बस राजधानी की सडकों पर दौडती रही। बाद में युवती और उसके मित्र को चलती बस से सडक पर फेंक कर बलात्कारी फरार हो गये। सोचिए जब दिल्ली जैसे महानगर में ऐसी दरिंदगी को सहजता से अंजाम दिया जा सकता है तो देश के अन्य शहरो में तो कुछ भी हो सकता। वैसे सच किसी से छिपा नहीं है। मुझे वो वक्त याद आता है जब किसी घर की बहू-बेटी किसी काम से बाहर निकलती थी तो सुरक्षा की दृष्टि से उसके साथ आठ-दस बरस के बच्चे को भेज दिया जाता था। परिजन आश्वस्त रहते थे कि बच्चे के साथ होने पर उनकी बहू-बेटी पर कोई गलत नजर डालने की हिम्मत नहीं कर पायेगा। पर आज प्रेमी और पति के सामने प्रेमिका और पत्नी गैंगरेप की शिकार हो जाती है।
दिल्ली में हुए जघन्य सामूहिक बलात्कार की शिकार युवती मेडिकल की छात्रा है। उसका मित्र उसे घर छोडने जा रहा था। यानी उसे भी यकीन था कि रात के समय दिल्ली महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं है। उन्हें जो बस मिली उसी में सवार हो गये। कोई भी यात्री ऐसा ही करता है। उसे अपने गंतव्य स्थल तक पहुंचने की जल्दी होती है। उन दोनों को उस स्कूली बस में सवार होने के बाद फौरन अहसास हो गया कि बस में सवारियां नहीं हैवान सवार हैं। उनकी गुंडागर्दी के आगे दोनों बेबस थे। सात वहशियों ने दो घंटे तक बेखौफ होकर अपनी दरिंदगी का तांडव तब तक मचाये रखा जब तक युवती अधमरी नहीं हो गयी।
इस सामूहिक बलात्कार की खबर ने दिल्ली ही नहीं, पूरे देश को हिला कर रख दिया। एकाएक संसद जाग उठी। महिला सांसदो का गुस्सा फूट पडा। हर किसी ने कहा कि बलात्कारियों को फांसी की सजा मिलनी चाहिए। सडक से संसद तक प्रदर्शनों और बयानबाजियों ने जोर पकड लिया। देश के सियासी माहौल ने भी गरम होने में देरी नहीं लगायी। दिल्ली पुलिस को जी-भरकर कोसा और फटकारा गया। पर लगता नहीं खाकी पर इसका कोई असर पडेगा। खादी की तरह खाकी की भी चमडी मोटी हो चुकी है और उसकी तमाम भावनाएं और संवेदनाएं कहीं गिरवी रखी जा चुकी हैं। इस सामूहिक वहशियत ने साफ कर दिया है कि अराजक तत्वों को कानून और उसके रखवालों का कोई खौफ नहीं है। वे जब और जहां चाहें किसी की भी बहन-बेटी को अपनी हवस का शिकार बना सकते हैं। सच तो यह है कि इस देश में अपराधियों को सज़ा दिलवाने के लिए कानून तो हैं पर कानून का ईमानदारी से पालन नहीं किया जाता। खुद सरकारें नकारा हो चुकी हैं। कई बलात्कार ऐसे होते हैं जिनके पीछे सफेदपोशों का हाथ होता है। खुद कानून के रखवाले उनकी ताकत के आगे बौने हो जाते हैं। व्यवस्था के अपाहिज होते चले जाने के कारण लोग कानून को अपने हाथ में भी लेने लगे हैं। कुछ ही वर्ष पहले की बात है, जब नागपुर में एक हवसखोर दरिंदे की भीड ने ही भरी अदालत में हत्या कर दी थी। यह तो शुरुआत थी। इसके बाद तो भीड के द्वारा अराजक तत्वों और बलात्कारियों को ढेर करने का सिलसिला ही चल पडा। इस पहल में महिलाओं की हिस्सेदारी बेहद चौंकाने वाली रही। पता नहीं क्यों प्रशासन और सत्ताधीशों ने ऐसे 'फैसलों' से कोई सबक लेने की कोशिश क्यों नहीं की। दिल्ली में चलती बस में हुए सामूहिक बलात्कार से भी देश की तमाम सजग महिलाएं इस कदर आहत हुई कि उनका बस चलता तो वे बलात्कारियों को कुत्ते की मौत मार डालतीं। स्कूल-कॉलेज की छात्राएं चीख-चीख कर यह मांग करती नजर आयीं कि ऐसे दरिंदो को सिर्फ और सिर्फ फांसी पर लटकाया जाना चाहिए। बलात्कारियों का गुप्तांग काटकर उन्हें नपुंसक बनाने की सजा देने की मांग के पीछे छिपे गुस्से को समझने का भी वक्त आ गया है। ऐसा रोष और आक्रोश तब जन्मता है जब 'अति' हो जाती है। यकीनन बर्बरता और व्याभिचार की इंतिहा हो चुकी है।
इस देश में ऐसे विद्वानों की भी कमी नहीं है जो यह मानते हैं कि लडकियों का आधा-अधूरा पहनावा और भडकाऊ साज-सज्जा पुरुषों की वासना को भडकाती है। महिलाओं को रात में कहीं आने-जाने से भी बचना चाहिए। यह घोर अक्लमंद इस सच्चाई को भी भूला देते हैं कि यह वो देश है जहां कचरा बिनने और भीख मांगने वाली महिलाओं और लडकियों की आबरू लूटने में कोई संकोच नहीं किया जाता। राह चलती किसी भी लडकी को वेश्या समझ लिया जाता है और पैंसठ-सत्तर साल की वृद्धाएं और पांच-सात साल की अबोध बच्चियां भी शैतानों की वासना की आंधी का शिकार हो जाती हैं।

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