कल तबीयत ठीक नहीं थी। बिस्तर पर था। शरीर ने दिनभर उठने की इजाजत नहीं दी। आधी रात को ऐसे नींद टूटी कि लाख कोशिशों के बाद भी सोना संभव नहीं हो पाया। ऐसे में किताबों की आलमारी की तरफ निगाह डाली तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर लिखी उस किताब ने बरबस अपनी तरफ खींच लिया जिसे मैंने वर्षों पहले शहर में हर वर्ष लगने वाले पुस्तक मेले से खरीदा था। मेरे छोटे से संग्रहालय में महात्मा गांधी के जीवनचरित्र पर लिखी ढेरों पुस्तकें हैं जिन्हें मैंने समय-समय बडे मन से खरीदा पर पढ नहीं पाया। यह पहली किताब थी जिसे मैंने बडी तल्लीनता से पूरी तरह से पढा। इस किताब को पढने के बाद मेरा यह निष्कर्ष बलवती हुआ कि यदि बापू के नाम की माला जपने वाली राजनीतिक पार्टी और सत्ताधीश उनके सिद्धांतों और आदर्शों का थोडा-सा भी अनुसरण कर लेते तो देश कंगाली, बदहाली, भुखमरी और अराजकता के कगार पर नहीं पहुंचता। काश। राष्ट्रपिता के अटूट सिद्धांतों और करनी और कथनी की एकरूपता से कांग्रेसियों ने प्रेरणा लेकर देश को लुटने से बचाने का धर्म निभाया होता तो किसी भाजपाई, बसपाई, समाजवादी और सत्ता के दलाल की जुर्रत नहीं थी कि वह अरबों-खरबों की राष्ट्रीय धन-संपदा पर डाका डाल पाता।
बहरहाल... बात उन दिनों की है जब गांधी यरवदा की जेल में कैद थे। बीमारी और आपरेशन की वजह से वे काफी दुर्बल हो गये थे। हालत यह थी कि चलने-फिरने में भी बेहद कष्ट होता था। उन्हें महंगे जूते या चप्पल की बजाय हलके-फुलके लकडी के खडाऊं पहनने की आदत थी। जिस पुरानी सी खडाऊं को पहन कर वे जेल गये थे वह अचानक टूट गयी। जेल प्रशासन ने चमडे की चप्पल भिजवायी जिसे उन्होंने पहनने से साफ इंकार कर दिया। आखिरकार उन्हें खडाऊं दिये गये जो काफी वजनी थे। उन्हें पहनकर चलने में उन्हें काफी तकलीफ होती थी। अगर आपरेशन न हुआ होता तो खडाऊं से होने वाले कष्ट को वे हंसी-खुशी सह लेते। अपनी तकलीफ के बारे में उन्होंने तो किसी से कुछ नहीं कहा परंतु आश्रम के एक साथी को जब इसका पता चला तो उसकी आंखें नम हो गयीं। उसने बाजार जाकर खडाऊं की हल्की जोडी खरीदी और चुपके से जेल की कोठरी में रख दी। जेल प्रशासन द्वारा दी गयी वजनी खडाऊं वहां से हटा दी। सुबह जब गांधी जी की निगाह नयी खडाऊं पर पडी तो वे फौरन जान गये कि उनके आश्रम के साथी ने ही नयी खडाऊं यहां लाकर रखी है। उन्होंने उस खडाऊं को नहीं पहना। थोडी देर बाद वह शख्स भी बापू से मिलने के लिए आया तो उसने बडे उत्साह के साथ गांधी जी को बताया कि आपको वजनी खडाऊं को पहनने से जो कष्ट हो रहा था वह मुझसे देखा नहीं गया। इसलिए आपके लिए मैं यह सुविधाजनक खडाऊं खरीदकर लाया हूं।
खडाऊं लाने वाला खुश था कि बापू अब आराम से चल-फिर सकेंगे। गांधी जी ने उस महाशय पर फौरन सवाल दागा कि नये खडाऊं लाने के लिए तुम्हारे पास पैसे कहां से आये? उसने बता दिया कि आश्रम में जो चंदा आता है उसी में से कुछ रुपये निकालकर इन्हें लाया गया है। यह सुनते ही गांधी भडक उठे और फिर उस पर बरसने लगे कि क्या तुम्हें जानकारी नहीं है कि कौन लोग आश्रम को सहायता देते हैं! ये वो लोग हैं जिन्हें हम पर यकीन है कि हम उनकी मेहनत की एक-एक पाई की कमायी का सदुपयोग करेंगे। तुमने उन पैसों से मेरे लिए खडाऊं लाकर उनके भरोसे का कत्ल किया है। यह सरासर विश्वासघात है। तुम फौरन इन्हें वापस ले जाओ। मैं इन्हें हर्गिज नहीं पहन सकता।
यह थे गांधी के सिद्धांत जिन्हें उन्होंने जीवनभर धर्म की तरह निभाया। उनकी इसी ईमानदारी ने भारत को स्वतंत्रता दिलवायी। उस सच्चे अहिंसावादी ने अंग्रेजों के ऐसे छक्के छुडाये कि उन्हें आखिरकार हिंदुस्तान को छोडकर भागना पडा। अहिंसा के नायक को भरोसा था कि उसके अनुयायी भी उसी की राह पर चलेंगे। पर देश के आजाद होने के बाद क्या हुआ? उन्हीं के पद चिन्हों पर चलने का दावा करने वालो ने ही देश की आम जनता के साथ छल-कपट करने के न जाने कितने कीर्तिमान रच डाले और देश कराह उठा। जिन नेताओं ने आम जनता से महात्मा गांधी के नाम पर वोट लिये उनमें से कई हद दर्जे के भ्रष्ट और बेईमान निकले। सोने और चांदी के जूते पहनकर और खाकर देश की धन संपदा को लुटवाते चले गये। खुद भी इतने मालामाल हो गये कि तिजोरियां और तहखाने कम पड गये और देश की धन-दौलत विदेशों के बैकों में पहुंचने लगी। बापू के चंदाखोर चेलों को राष्ट्रद्रोह करने में कतई शर्म नहीं आयी। वे हद दर्जे के निर्लज्ज और बिकाऊ हो गये कि कई जुगाडुओ को अरबपति-खरबपति बनने का अवसर मिल गया। सत्ता के गलियारों की औकात और नब्ज पहचाने वालों की तो जैसे निकल पडी।
आजादी के बाद एकाएक धनकुबेर बनने वाले रिलायंस के संस्थापक स्वर्गीय धीरुभाई अंबानी ने बडे फख्र के साथ अपनी आर्थिक बुलंदी का मूलमंत्र उजागर किया था। वे अपने पैरों में दो तरह के जूते पहना करते थे। एक होता था चांदी का तो दूसरा सोने का। सत्ताधीशों, सत्ता के दलालों और नौकरशाहों की औकात के हिसाब से वे तय कर लिया करते थे किसे चांदी का जूता मारना है और किसे सोने का। अपने इसी दस्तूर की बदौलत उन्होंने देखते ही देखते अपने समकालीन उद्योगपतियों को कोसों मील पीछे छोड दिया। सत्ता के मंदिर के सभी देवी-देवताओं और पुजारियों को चढावा चढाने वाले धीरुभाई की औलादें भी अपने पिता के नक्शे-कदम पर दौड रही हैं। इतिहास बताता है कि अंबानियों को अपना आदर्श मानने वाले किसी बेईमान को कभी भी असफलता का मुंह नहीं देखना पडा। आप चाहें तो अपने आसपास भी यह नजारा देख सकते हैं।
बहरहाल... बात उन दिनों की है जब गांधी यरवदा की जेल में कैद थे। बीमारी और आपरेशन की वजह से वे काफी दुर्बल हो गये थे। हालत यह थी कि चलने-फिरने में भी बेहद कष्ट होता था। उन्हें महंगे जूते या चप्पल की बजाय हलके-फुलके लकडी के खडाऊं पहनने की आदत थी। जिस पुरानी सी खडाऊं को पहन कर वे जेल गये थे वह अचानक टूट गयी। जेल प्रशासन ने चमडे की चप्पल भिजवायी जिसे उन्होंने पहनने से साफ इंकार कर दिया। आखिरकार उन्हें खडाऊं दिये गये जो काफी वजनी थे। उन्हें पहनकर चलने में उन्हें काफी तकलीफ होती थी। अगर आपरेशन न हुआ होता तो खडाऊं से होने वाले कष्ट को वे हंसी-खुशी सह लेते। अपनी तकलीफ के बारे में उन्होंने तो किसी से कुछ नहीं कहा परंतु आश्रम के एक साथी को जब इसका पता चला तो उसकी आंखें नम हो गयीं। उसने बाजार जाकर खडाऊं की हल्की जोडी खरीदी और चुपके से जेल की कोठरी में रख दी। जेल प्रशासन द्वारा दी गयी वजनी खडाऊं वहां से हटा दी। सुबह जब गांधी जी की निगाह नयी खडाऊं पर पडी तो वे फौरन जान गये कि उनके आश्रम के साथी ने ही नयी खडाऊं यहां लाकर रखी है। उन्होंने उस खडाऊं को नहीं पहना। थोडी देर बाद वह शख्स भी बापू से मिलने के लिए आया तो उसने बडे उत्साह के साथ गांधी जी को बताया कि आपको वजनी खडाऊं को पहनने से जो कष्ट हो रहा था वह मुझसे देखा नहीं गया। इसलिए आपके लिए मैं यह सुविधाजनक खडाऊं खरीदकर लाया हूं।
खडाऊं लाने वाला खुश था कि बापू अब आराम से चल-फिर सकेंगे। गांधी जी ने उस महाशय पर फौरन सवाल दागा कि नये खडाऊं लाने के लिए तुम्हारे पास पैसे कहां से आये? उसने बता दिया कि आश्रम में जो चंदा आता है उसी में से कुछ रुपये निकालकर इन्हें लाया गया है। यह सुनते ही गांधी भडक उठे और फिर उस पर बरसने लगे कि क्या तुम्हें जानकारी नहीं है कि कौन लोग आश्रम को सहायता देते हैं! ये वो लोग हैं जिन्हें हम पर यकीन है कि हम उनकी मेहनत की एक-एक पाई की कमायी का सदुपयोग करेंगे। तुमने उन पैसों से मेरे लिए खडाऊं लाकर उनके भरोसे का कत्ल किया है। यह सरासर विश्वासघात है। तुम फौरन इन्हें वापस ले जाओ। मैं इन्हें हर्गिज नहीं पहन सकता।
यह थे गांधी के सिद्धांत जिन्हें उन्होंने जीवनभर धर्म की तरह निभाया। उनकी इसी ईमानदारी ने भारत को स्वतंत्रता दिलवायी। उस सच्चे अहिंसावादी ने अंग्रेजों के ऐसे छक्के छुडाये कि उन्हें आखिरकार हिंदुस्तान को छोडकर भागना पडा। अहिंसा के नायक को भरोसा था कि उसके अनुयायी भी उसी की राह पर चलेंगे। पर देश के आजाद होने के बाद क्या हुआ? उन्हीं के पद चिन्हों पर चलने का दावा करने वालो ने ही देश की आम जनता के साथ छल-कपट करने के न जाने कितने कीर्तिमान रच डाले और देश कराह उठा। जिन नेताओं ने आम जनता से महात्मा गांधी के नाम पर वोट लिये उनमें से कई हद दर्जे के भ्रष्ट और बेईमान निकले। सोने और चांदी के जूते पहनकर और खाकर देश की धन संपदा को लुटवाते चले गये। खुद भी इतने मालामाल हो गये कि तिजोरियां और तहखाने कम पड गये और देश की धन-दौलत विदेशों के बैकों में पहुंचने लगी। बापू के चंदाखोर चेलों को राष्ट्रद्रोह करने में कतई शर्म नहीं आयी। वे हद दर्जे के निर्लज्ज और बिकाऊ हो गये कि कई जुगाडुओ को अरबपति-खरबपति बनने का अवसर मिल गया। सत्ता के गलियारों की औकात और नब्ज पहचाने वालों की तो जैसे निकल पडी।
आजादी के बाद एकाएक धनकुबेर बनने वाले रिलायंस के संस्थापक स्वर्गीय धीरुभाई अंबानी ने बडे फख्र के साथ अपनी आर्थिक बुलंदी का मूलमंत्र उजागर किया था। वे अपने पैरों में दो तरह के जूते पहना करते थे। एक होता था चांदी का तो दूसरा सोने का। सत्ताधीशों, सत्ता के दलालों और नौकरशाहों की औकात के हिसाब से वे तय कर लिया करते थे किसे चांदी का जूता मारना है और किसे सोने का। अपने इसी दस्तूर की बदौलत उन्होंने देखते ही देखते अपने समकालीन उद्योगपतियों को कोसों मील पीछे छोड दिया। सत्ता के मंदिर के सभी देवी-देवताओं और पुजारियों को चढावा चढाने वाले धीरुभाई की औलादें भी अपने पिता के नक्शे-कदम पर दौड रही हैं। इतिहास बताता है कि अंबानियों को अपना आदर्श मानने वाले किसी बेईमान को कभी भी असफलता का मुंह नहीं देखना पडा। आप चाहें तो अपने आसपास भी यह नजारा देख सकते हैं।
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