क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि नारी पर कोई भी कुछ भी बोलने और बेहूदा शब्दबाण चलाने को स्वतंत्र है। समाज के कई ठेकेदारों ने स्त्रियों को सीख देने और उनके चरित्र का पोस्टमार्टम करने का जबरन ठेका ले रखा है? वैसे तो पिछले पच्चीस-तीस वर्षों से नारी की स्वतंत्रता का जबरदस्त ढोल पीटा जा रहा है पर फिर भी अधिकांश भारतीय नारियों को घर-परिवार में बांधकर रखने में ही अपनी भलाई समझने वालों का अच्छा-खासा आंकडा है। दुनिया बदल गयी है, पर वे बदलने को तैयार नहीं हैं। खुद भले ही दुष्कर्मी हों पर उन्हें पत्नी वही भाती है जो सति-सावित्री से कम न हो। उनके यहां की बच्चियां जैसे-जैसे उम्र की सीढियां चढने लगती हैं, उनकी आत्मा बेचैन होने लगती है। उनकी सदियों पुरानी सोच बलवति हो उठती है: नारी की लज्जा ही उसका असली गहना है। खिलखिलाकर हंसना-बोलना और सवालों के जवाब देना लडकियों को शोभा नहीं देता। लडकियां पराया धन होती हैं। उन्हें सहनशील होना ही चाहिए। दरअसल भारतीय समाज है ही कुछ ऐसा जहां स्त्री को सदैव पराधीन और दबा कर रखने की कोशिश की जाती रही है। हर स्त्री पर किसी न किसी पुरुष का अधिकार और अंकुश बना रहता है। इस पुरुष का चेहरा समय के साथ-साथ बदलता चला जाता है। शादी के पूर्व नारी पिता या भाई के दबाव तले तो शादी के बाद पति या पुत्र के अधिकार क्षेत्र में रहती है। हर पुरुष की सदैव यही मनोकामना होती है कि उसे ऐसी जीवन संगिनी मिले जो तथाकथित भारतीय संस्कारों में रची-बसी हो। पुरुष को बंदिशें रास नहीं आतीं। पर नारी को बांध कर रखना या फिर अपने स्वार्थ के लिए थोडी बहुत आजादी दे देना उसकी फितरत है। इस यथार्थ को युवा कवि आशीशकुमार अंशु की एक कविता की इन पंक्तियों में बखूबी दर्शाया गया है:
''स्त्री जो घर में छुपाई गई
बाजार में उघाडी गई,
ना छुपना स्त्री की नीयत थी,
ना उघाडना उसकी मर्जी,
उसका छुपना पुरुष की इच्छा थी,
और उघाडना पुरुष की कुंठा।''
इज्जत, मान, मर्यादा, प्रतिष्ठा और पवित्रता आदि-आदि के नाम पर निरंतर छली गयी नारी आज जाग गयी है। उसे अपने भले-बुरे की पहचान हो गयी है फिर भी उपदेश और सीख का जाल फेंकने वालों की चालबाजी थमने का नाम लेने को तैयार नहीं है। उनकी आदिम इच्छा और कुंठा किसी न किसी रूप में सिर उठाकर खडी हो ही जाती है। अब इन आसाराम बापू के बारे में क्या कहें, जो संत कहलाते हैं, जिन्हें देश के लाखों लोग भरपूर आदर और सम्मान देते हैं। पर पता नहीं ये कैसे महात्मा हैं कि जिनकी जबान बार-बार सजग देशवासियों को आहत कर जाती है। दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की शिकार बनायी गयी युवती के प्रति सहानुभूति दर्शाने और बलात्कारियों को फांसी पर लटकाने की मांग करने की बजाय आसाराम ने युवती को ही कटघरे में खडा कर देश को हैरत और गुस्से के हवाले कर दिया है। उनके चेले-चपाटे भी उसी रंग में रंगे नजर आये। किसी ने भी अपने 'गुरु' के बोलवचनों के खिलाफ एक शब्द भी नहीं उगला। इसे ही तो अंधभक्ति कहते हैं। जिसके दम पर ही आसाराम यह कह गये कि अगर वह लडकी बलात्कारियों के आगे नतमस्तक होकर गिडगिडाती और उन्हें अपना भाई बना लेती तो उनका नशा फौरन काफूर हो जाता। अगर युवती ने 'गुरु दीक्षा' ली होती तो भी उसके साथ यह अनर्थ कतई नहीं होता। आसाराम ने अपने ज्ञान का एक और पिटारा खोलते हुए यह भी कहने में देरी नहीं लगायी कि ताली कभी भी एक हाथ से नहीं बजती। यानी जितना दोष बलात्कारियों का है उतना ही बलात्कृत युवती का भी। इस तरह की अनर्गल बयानबाजी करने का श्रेय अकेले आसाराम ने ही नहीं लूटा। इस मामले में भी कई प्रतिस्पर्धियों ने अपनी-अपनी हांक कर सिर्फ और सिर्फ नारी जाति को गाली देने और उसे नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोडी। किसी ने शहरी लडकियों के पथभ्रष्ट होकर ब्वायफ्रेंड तलाशते देखा तो किसी को शादी पति और पत्नी के बीच एक सौदा नजर आया। नारियों को ही कोसने और उन्हें गालियों से नवाजने में कई सफेदपोश अपनी मर्दानगी के करतब दिखाते नजर आये। ऐसे में युवा कवि अंशु की कविता की यह पंक्तियां बरबस दिलो-दिमाग में हलचल मचाने लगीं:
''गालियों का अपना संस्कार है
अपना मनोविज्ञान है
उनमें आता है हमेशा
मां का नाम और बहन का नाम
कैसे बच जाते हैं हर बार
आते-आते भाई और बाप लोग
अब गालियों को बदलो
क्योंकि बदल रहा है वक्त।''
हां वक्त बदल गया है, वक्त तेजी से बदल रहा है। कोई और वक्त होता तो आसाराम बापू की इन शर्मनाक नसीहतों को भी हाथों-हाथ ले लिया जाता। इस बदले वक्त में उन सभी भाषणबाजों के प्रति चारों तरफ गुस्सा ही गुस्सा है जो औरतों को लक्ष्मण रेखा के अंदर सिमटे रहने के उपदेश देते नहीं थकते और अपने रावणी चेहरे को छुपाये और बचाये रखना चाहते हैं। अफसोस तो इस बात का भी है कि बलात्कारियों को असली मर्द और बलात्कृता को कुलटा मानने वाले चमकते-दमकते चेहरे सत्ता के शिखर पर भी काबिज हैं। आज इन सबके विरोध में देश की सडकों, चौराहों और सत्ता के गलियारों तक जो तीखे नारे गूंज रहे हैं उन सबका एक ही सार है कि होश में आओ सामंती साधु-संतो, समाज सुधारको और शातिर भाषणबाजो... और इनके तमाम अंध भक्तो...।
''स्त्री जो घर में छुपाई गई
बाजार में उघाडी गई,
ना छुपना स्त्री की नीयत थी,
ना उघाडना उसकी मर्जी,
उसका छुपना पुरुष की इच्छा थी,
और उघाडना पुरुष की कुंठा।''
इज्जत, मान, मर्यादा, प्रतिष्ठा और पवित्रता आदि-आदि के नाम पर निरंतर छली गयी नारी आज जाग गयी है। उसे अपने भले-बुरे की पहचान हो गयी है फिर भी उपदेश और सीख का जाल फेंकने वालों की चालबाजी थमने का नाम लेने को तैयार नहीं है। उनकी आदिम इच्छा और कुंठा किसी न किसी रूप में सिर उठाकर खडी हो ही जाती है। अब इन आसाराम बापू के बारे में क्या कहें, जो संत कहलाते हैं, जिन्हें देश के लाखों लोग भरपूर आदर और सम्मान देते हैं। पर पता नहीं ये कैसे महात्मा हैं कि जिनकी जबान बार-बार सजग देशवासियों को आहत कर जाती है। दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की शिकार बनायी गयी युवती के प्रति सहानुभूति दर्शाने और बलात्कारियों को फांसी पर लटकाने की मांग करने की बजाय आसाराम ने युवती को ही कटघरे में खडा कर देश को हैरत और गुस्से के हवाले कर दिया है। उनके चेले-चपाटे भी उसी रंग में रंगे नजर आये। किसी ने भी अपने 'गुरु' के बोलवचनों के खिलाफ एक शब्द भी नहीं उगला। इसे ही तो अंधभक्ति कहते हैं। जिसके दम पर ही आसाराम यह कह गये कि अगर वह लडकी बलात्कारियों के आगे नतमस्तक होकर गिडगिडाती और उन्हें अपना भाई बना लेती तो उनका नशा फौरन काफूर हो जाता। अगर युवती ने 'गुरु दीक्षा' ली होती तो भी उसके साथ यह अनर्थ कतई नहीं होता। आसाराम ने अपने ज्ञान का एक और पिटारा खोलते हुए यह भी कहने में देरी नहीं लगायी कि ताली कभी भी एक हाथ से नहीं बजती। यानी जितना दोष बलात्कारियों का है उतना ही बलात्कृत युवती का भी। इस तरह की अनर्गल बयानबाजी करने का श्रेय अकेले आसाराम ने ही नहीं लूटा। इस मामले में भी कई प्रतिस्पर्धियों ने अपनी-अपनी हांक कर सिर्फ और सिर्फ नारी जाति को गाली देने और उसे नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोडी। किसी ने शहरी लडकियों के पथभ्रष्ट होकर ब्वायफ्रेंड तलाशते देखा तो किसी को शादी पति और पत्नी के बीच एक सौदा नजर आया। नारियों को ही कोसने और उन्हें गालियों से नवाजने में कई सफेदपोश अपनी मर्दानगी के करतब दिखाते नजर आये। ऐसे में युवा कवि अंशु की कविता की यह पंक्तियां बरबस दिलो-दिमाग में हलचल मचाने लगीं:
''गालियों का अपना संस्कार है
अपना मनोविज्ञान है
उनमें आता है हमेशा
मां का नाम और बहन का नाम
कैसे बच जाते हैं हर बार
आते-आते भाई और बाप लोग
अब गालियों को बदलो
क्योंकि बदल रहा है वक्त।''
हां वक्त बदल गया है, वक्त तेजी से बदल रहा है। कोई और वक्त होता तो आसाराम बापू की इन शर्मनाक नसीहतों को भी हाथों-हाथ ले लिया जाता। इस बदले वक्त में उन सभी भाषणबाजों के प्रति चारों तरफ गुस्सा ही गुस्सा है जो औरतों को लक्ष्मण रेखा के अंदर सिमटे रहने के उपदेश देते नहीं थकते और अपने रावणी चेहरे को छुपाये और बचाये रखना चाहते हैं। अफसोस तो इस बात का भी है कि बलात्कारियों को असली मर्द और बलात्कृता को कुलटा मानने वाले चमकते-दमकते चेहरे सत्ता के शिखर पर भी काबिज हैं। आज इन सबके विरोध में देश की सडकों, चौराहों और सत्ता के गलियारों तक जो तीखे नारे गूंज रहे हैं उन सबका एक ही सार है कि होश में आओ सामंती साधु-संतो, समाज सुधारको और शातिर भाषणबाजो... और इनके तमाम अंध भक्तो...।
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