Thursday, January 17, 2013

इस हकीकत को भी तो समझो...

सत्ता के शातिर खिलाडी अभी भी अपनी मस्ती में हैं। वे तो ये मानने को तैयार ही नहीं हैं कि देश की अधिकांश जनता जाग चुकी है। वह अब हर हालत में बदलाव चाहती है। इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने की उसने ठान ली है। लोकतंत्र और गणतंत्र के मायूस चेहरों पर टंगी तख्तियों पर लिखे सुलगते नारे चीख-चीख कर कह रहे हैं कि अब सत्ताधीशों की खुदगर्जी और संवेदनहीनता को बर्दाश्त कर पाना मुमकिन नहीं है। इस देश के लगभग सभी राजनेता कटघरे में हैं। लोकसभा, राज्यसभा तथा विधानसभाओं में आम आदमी के मुद्दे उठने बंद हो गये हैं और तमाशेबाजी हावी हो चुकी है। वो दिन भी हवा हो गये हैं जब स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर गौरव और खुशी की लहर दौड जाया करती थी। अब तो सरासर शर्मिंदगी और लुट जाने की पीडा सताने लगती है। दगाबाजी और भ्रष्टाचार के कीर्तिमान रचने वाले नेताओं को अगर आम जनता की चिं‍ता होती तो वे अभी तक अपनी चाल और ढाल को बदल चुके होते। उनपर किसी आंदोलन का असर नहीं होता। अन्ना हजारे, अरविं‍द केजरीवाल जैसे तमाम समाजसेवकों की सही और जन हितकारी मांगों की बडी निर्दयता के साथ अनदेखी कर दी जाती है। राजनेताओं को इस बात की भी कतई चिं‍ता नहीं कि आज देश का आमजन उनकी सुनने को तैयार नहीं है। सत्ता के मद में चूर अधिकांश सत्ताधीश इस भ्रम का शिकार हैं कि देश की जनता कितनी भी एकजुटता दिखाए, नारे लगाये पर कुछ होने-जाने वाला नहीं है। जब चुनाव होंगे तब बाजी उन्हीं के हाथ में ही होगी। मतदाताओं को अपने बस में करने और चुनाव जीतने की कला में उन्हें जो महारत हासिल है उसका तोड तलाश पाना अन्ना और केजरीवाल जैसे फकीरों के बस की बात नहीं है। चुनाव तो सिर्फ और सिर्फ थैलियों की बदौलत ही लडे और जीते जाते हैं। वर्षों से विधानसभाओं और लोकसभा पर कब्जा जमाते चले आ रहे नेताओं ने यह धारणा भी पाल रखी है कि अन्ना और केजरीवाल की सभाओं में जुटने वाली अपार भीड कोई मायने नहीं रखती। भीड का क्या? वह तो कहीं भी किसी डमरू बजाने वाले बहुरूपिये को देखने और सुनने के लिए भी जमा हो जाती है।
यह कितनी हैरतअंगेज बात है कि जिस आम जनता का तंत्र से मोहभंग हो चुका है, वह अगर खुद-ब-खुद सडकों पर उतरती है तो भी भ्रष्ट व्यवस्था उसका मजाक उडाने से बाज नहीं आती। दरअसल नेताओं को अपनी सभाओं में जुटने वाली भीड तो सार्थक लगती है, लेकिन सच्चे समाज सेवकों को सुनने और उनका दूर तक साथ देने को आतुर जनता महज तमाशबीन लगती है। यह तो उस आक्रोश का ही घोर अपमान है जो देशभर में सुलग रहा है। यह आक्रोश एकाएक नहीं उपजा। सरकार की जबरदस्त अक्षमता और नजरअंदाजी की देन है ये उबलता गुस्सा, जिसने पिछले दो-ढाई वर्षों में आकार और विस्तार पाया और आज अपने उफान पर है। आखिर बर्दाश्त करने की भी कोई हद होती है। यहां तो हदों का ही अता-पता नहीं है। न जाने कितने भ्रष्टाचारी सत्ता पर काबिज हैं। राष्ट्रीय संपदा के लुटेरे भी लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा में पहुंच गये हैं। विपक्ष सोया था, सोया है। इसीलिए समाजसेवक अन्ना हजारे और उनके साथियों को देश में व्याप्त असीम भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाना पडा। उनका साथ देने के लिए सडकों पर जो भीड उमडी उसने सरकार की नींद उडा दी। दिल्ली गैंग रेप के विरोध में युवतियों, महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों और युवाओं ने विरोध और आक्रोश की जो मशाल जलायी उससे भी शासन और प्रशासन की नींद हराम हो गयी है। युवतियों और महिलाओं की इज्जत पर डाका डालने वालों को पुलिस और कानून का कोई खौफ नहीं है। देश की राजधानी दिल्ली पूरे देश को डराने लगी है। महिलाओं को रात में घर से निकलने में कंपकंपी छूटने लगती है। अगर मजबूरन निकलती हैं तो हवस के भूखे भेडि‍यों की शिकार हो जाती हैं। इन हुक्मरानों की विभिन्न कमजोरियों का ही नतीजा है कि दो कौडी के पाकिस्तान के फौजी हमारी सेना पर हमला कर देते हैं और हमारे जवानों की बर्बरतापूर्वक हत्या कर उनका सिर काट डालते हैं।
दरअसल दुश्मन भी ज़ान गये हैं कि हिं‍दुस्तान के अधिकांश नेता हद दर्जे के भ्रष्टाचारी हैं। उन्हें सिर्फ सत्ता चाहिए। जो भी पार्टी सत्ता में आती है वही अपने असली रंग दिखाने लगती है। सत्ता और विपक्ष दोनों चोर-चोर मौसेरे भाई की कहावत को चरितार्थ करते हुए आम जनता की आंखों में धूल झोंकते चले आ रहे हैं। ऐसे सत्ता के खिलाडि‍यों और घोर खुदगर्जों के कारण ही जब-तब घर में छिपे गद्दार भी बम-बारूद बिछाने और निर्दोषों का खून बहाने में कामयाब हो जाते हैं। फिर पाकिस्तान तो एक ऐसा जहरीला मुल्क है जिसे भारत के अमन-चैन और खुशहाली से जन्मजात वैर है। किसी हिं‍दी फिल्म का बडा ही चर्चित डायलाग है : ''वो दो कौडी का पडोसी मुल्क जो आने वाले समय में शायद दुनिया के नक्शे से मिट जायेगा, जिसका आटा भी विदेशी चक्की से पिसकर आता है, एक सुई बनाने की भी औकात नहीं है, पर हमारे देश को तोडने के सपने देखता है। वह जानता है कि यह मुर्दों का देश है। वतन के लिए किसी को हमदर्दी नहीं...।'' इस डायलाग को 'फिल्मी' कहकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हां यह भी सच है कि यह देश मुर्दों का नहीं बल्कि जीते-जागते देश प्रेमियों का देश है और इसी की मिट्टी में पलने और बढने वाले कई ऐसे अहसान फरामोश भी हैं जिन्हें वतन से कोई लगाव नहीं है।

No comments:

Post a Comment