Thursday, February 21, 2013

धन, दारू, धमकी-चमकी और गृहमंत्री

खबरों की जबर्दस्त भीड में हो सकता है कि कई पाठक इस खबर को पढने से चूक गये हों। वैसे भी भ्रष्टाचार के इस महादौर में अधिकांश पाठक मित्र नेताओं के अनाचार और भ्रष्टाचार के समाचारों से दूरी बनाने लगे हैं। यह सच्चाई अपनी जगह पर कायम है कि कुछ को छोडकर बाकी लगभग सभी सफेदपोश नेताओं ने शर्म और हया को बेच खाया है।
नागालैंड के गृहमंत्री को शराब की पेटियों, पांच पिस्तोलों, दो रायफलों, अस्सी कारतूसों और एक करोड दस लाख की नगदी के साथ रंगे हाथ गिरफ्तार कर लिया गया। किसी भी प्रदेश में 'गृहमंत्री' की खास अहमियत और रूतबा होता है। गृहमंत्री पर ही अपने प्रदेश की आंतरिक सुरक्षा और कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी होती है। पुलिस की कमान भी उसी के हाथ में होती है। इतने शक्तिशाली शासक का अपराध कर्म आखिर क्या दर्शाता है? ऐसे धूर्त शासक का पुलिस पर क्या असर पडता होगा, इसका जवाब तलाशने के लिए ज्यादा दिमाग खपाने की कतई जरूरत नहीं है। जैसा राजा वैसी पुलिस। नागालैंड के विधानसभा चुनावों में गृहमंत्री ने साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल कर चुनाव जीतने की ठानी थी। नोटों के बंडलों का वोटरों को खरीदने के लिए इस्तेमाल किया जाना था। पिस्तौलें और रायफलें अपने विरोधियों को चमकाने, धमकाने और डराने के लिए, तो शराब से वोटरो को मदहोश करने की पूरी तैयारी थी। तय है कि गृहमंत्री से एक करोड दस लाख की जो नगदी बरामद की गयी है वह उसकी या उसके बाप-दादा के खून पसीने की कमायी नहीं हो सकती। छोटे से प्रदेश नागालैंड में दोनों हाथों से लूटमार मचाकर जो दौलत बटोरी गयी होगी उसी से हथियार भी खरीदे गये होंगे। ऐसे काम तो छंटे हुए बदमाश और हत्यारे ही किया करते हैं। प्रदेश की इतनी बडी सफेदपोश हस्ती की गिरफ्तारी राजनीति के अपराधिकरण की जीती जागती मिसाल है। सत्ता का चोला धारण करने के बाद ऐसे सफेदपोश किस तरह से लोकतंत्र के साथ खिलवाड करते हैं उसका भी सहज अनुमान लगाया जा सकता है। सरकारी सुरक्षा बलों के घेरे में महफूज रहकर राष्ट्रीय खनिज सम्पदा को पचाने वाले ऐसे उद्दंड भ्रष्टाचारियों के लिए एक करोड दस लाख जैसी नगदी कोई मायने नहीं रखती। अपने शासनकाल में उसने पता नहीं कितना-कितना काला धन अपनी तिजोरियों में ठूंसा होगा। इन पंक्तियों को लिखते-लिखते मुझे जेल में कैद झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कौडा की याद आ रही है जिसने अपने छोटे से शासनकाल में हजारों करोड के भ्रष्टाचार को अंजाम देने का कीर्तिमान रचा था। पता नहीं कितने और मधु कौडा लाल बत्ती और वीआईपी की सुरक्षा का उपभोग करते हुए आजाद घूम रहे हैं। यह कितनी अजीब बात है कि इस देश में सफेदपोश अपराधी ही सबसे ज्यादा मजे में रहते हैं और खुद सरकार भी उन पर मेहरबान हो उन्हें भरपूर सुरक्षा मुहैय्या कराती है। अक्सर ऐसा लगता है कि नागालैंड में गिरफ्तार किये गये गृहमंत्री इम्कोंग एल इम्चेन जैसे लोग ही सरकारें चला रहे हैं जिन्हें अपने शुभचिं‍तकों, साथियों और शागिर्दों की सतत चिं‍ता रहती है। शासकों ने अगर इतना ख्याल आम लोगों का रखा होता तो देश इस कदर बदहाल न होने पाता।
देश में जहां-तहां कानून व्यवस्था की जो दुर्गति है वह किसी से छिपी नहीं है। इस मामले में देश की राजधानी तो खासी बदनाम हो गयी है। फिर भी हुक्मरान बेफिक्र निद्राग्रस्त हैं। उनकी चिं‍ता के संकुचित और स्वाथी दायरे में सिर्फ उनके भाई-बेटे-भतीजे, यार-दोस्त और वीआईपी ही हैं। सत्ताधीशों ने यह मान लिया है कि अगर वे और उनके अपने सुरक्षित हैं तो पूरा देश सुरक्षित है। आम आदमी तो सिर्फ मरने के लिए ही पैदा होता है। उसकी हिफाजत का जिम्मा तो उस ऊपर वाले पर है जिसने उसे धरती पर भेजा है। आम आदमियों की भीड में वीआईपी भी खूब पैदा होने लगे हैं। कल का गुंडा, बदमाश और बलात्कारी कब वीआईपी बन जाता है, पता ही नहीं चलता। बेचारी पुलिस करे भी तो क्या करे। उसकी मजबूरी है जिसे कभी हथकडि‍यां पहनायी होती हैं उसी की जी-हजूरी और सुरक्षा की जिम्मेदारी संभालनी पडती है।
२०११ में दिल्ली के जंतर-मंतर में जिस तरह से समाजसेवक अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ चले अनशन-आंदोलन से जागृति सी आयी थी और लगने लगा था कि भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी और तमाम भ्रष्टाचारी होश में आ जाएंगे। पर  कहां रूक पाया भ्रष्टाचार? दरअसल उसे रूकना ही नहीं है। उसे सतत चलते रहना है। चेहरे बदलते रहेंगे पर उसका चेहरा-मोहरा कतई नहीं बदलेगा। जिस देश के प्रदेश का गृहमंत्री ही अपराधियों का प्रतिरूप हों, उसके उज्ज्वल भविष्य की कल्पना ही व्यर्थ लगती है। अनुशासन, नैतिकता, ईमानदारी और जनसेवा सिर्फ और सिर्फ किताबी शब्द बनकर रह गये हैं, जिनका इस्तेमाल अपने-अपने स्वार्थों के हिसाब से किया और करवाया जाता है। आखिर किस-किस को दोष दिया जाए! कोई भी ऐसी राजनीतिक पार्टी नहीं दिखती जिसकी दहलीज पर बेईमानों और रिश्वतखोरों का आना-जाना न लगा रहता हो। धन, दारू, धमकी-चमकी की बदौलत चुनाव जीतने के चलन के रहते देश में कोई सुधार आ पायेगा ऐसे सपना देखना यकीनन बेमानी था, है और रहेगा।

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