Thursday, February 7, 2013

सब कुछ जनता के हाथ में

अच्छे काम की तारीफ तो हर कोई करता है। हर देशवासी की यही तमन्ना है कि सरकार जनहित के कार्य करने में फुर्ती दिखाये। पर ऐसा होता नहीं दिखता। इतिहास गवाह है कि धरने, आंदोलन और शोर-शराबे ही सरकार को यदाकदा जगा पाते हैं। वर्ना सरकार का सारा कारोबार अपने तौर-तरीकों के साथ चलता रहता है। दिल्ली गैंगरेप मामले में कानून बदलने के लिए अध्यादेश जारी करने की सरकार ने जो स्फूर्ति दिखायी उसकी प्रशंसा विदेशी मीडिया भी कर रहा है। अमेरिकी अखबार वाशिं‍गटन पोस्ट ने लिखा है कि कानून बदलने की इतनी तेज कार्रवाई किसी-किसी देश में ही संभव है। भारत ने साबित किया है कि लोगों की मांग पर किसी देश की राजनीतिक व्यवस्था किस तरह काम कर सकती है। सोनिया एंड मनमोहन कंपनी इस प्रशंसा पर फूलकर कुप्पा हो सकती है। काफी अरसे बाद किसी विदेशी मीडिया ने सरकार की पीठ थपथपायी है। वैसे सच यही है कि अगर आम जनता सडकों पर नहीं आती तो सरकार की नींद कतई नहीं खुल पाती। लोगों के बागी तेवरों ने जब नाक में दम करके रख दिया तो सरकार को घडि‍याली आंसू बहाने पडे और वो करके दिखाना पडा जिसकी आज विदेशी मीडिया प्रशंसा कर रहा है।
विदेशी मीडिया इस सच्चाई से यकीनन बेखबर है कि भारतवर्ष में अधिकांश फैसले राजनीति और राजनेताओं के नफे-नुकसान के आधार पर लिये जाते हैं। कई बार तो बडी से बडी भूख हडतालें और विद्रोह की चिं‍गारियां भी शासकों को टस से मस नहीं कर पातीं। इस देश के हुक्मरानों ने हाथी की सी मदमस्त चाल चलने की कसम खायी हुई है। इस वर्ष कई राज्यों में विधान सभा तो अगले वर्ष लोकसभा चुनाव हैं। महंगाई और भ्रष्टाचार का कीर्तिमान रच चुकी मनमोहन सरकार के सिर पर नंगी तलवारें लटक रही हैं। उसे भय सताने लगा है कि अगर उसने ऐसे ही अपना कारोबार जारी रखा तो उसकी गर्दन को कटने से कोई नहीं बचा पायेगा। हर किसी को अपनी जान प्यारी होती है। राजनेताओं के लिए तो सत्ता के बिना सांस ले पाना भी दूभर हो जाता हैं। उनके लिए सत्ता ही उनकी जान है और प्राण है। जिस लोकपाल विधेयक को लगभग ४५ वर्षों तक लटकाया-भटकाया गया उसी के लागू होने के आसार नजर आने लगे हैं।
संसद के आगामी सत्र में लोकपाल विधेयक के पारित होने का ढिं‍ढोरा पीटा जा चुका है। पर अन्ना हजारे नाखुश है। २०११ में अन्ना आंदोलन के दबाव में ही सरकार ने मन मारकर लोकपाल बिल लोकसभा में किसी तरह से पास कराया था। बाद में राज्यसभा में इस बिल को इस तरह से लटकाया गया जैसे कि ये विधेयक देश और राजनेताओं के लिए बहुत बडा खतरा हो। फिर भी इस बीच राज्यसभा की प्रवर समिति के सामने इस बिल को विचारार्थ रखा गया। समिति की १६ सिफारिशों में दो को छोडकर सरकार ने सभी सुझावों को मान लिया हैं। अन्ना हजारे ने प्रस्तावित लोकपाल विधेयक को मज़ाक और बेमतलब करार देने में जरा भी देरी नहीं की। उनका कहना है कि सरकार की यह सरासर धोखाधडी है। उन्होंने केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीवीआई) और केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) को भी निर्वाचन आयोग की तरह स्वतंत्र संस्था बनाने की अपनी पुरानी मांग दोहरा दी है और यह ऐलान भी कर दिया है कि अगर ऐसा नहीं होता है तो वे प्रभावी लोकपाल की मांग को लेकर फिर से रामलीला मैदान का रुख कर सरकार की नींद उडा देंगे। यकीनन अन्ना के हौसले बुलंद हैं पर दूसरी तरफ उन्हीं की सहयोगी किरण बेदी ने संशोधित लोकपाल का समर्थन कर दिया है। उनका कहना है कि कुछ नहीं से कुछ अच्छा। सरकार ने अब जब कुछ कदम आगे बढाये हैं तो हमें उसका स्वागत करना चाहिए। किरण बेदी का यह आशावादी रवैय्या अन्ना को यकीनन रास नहीं आया है। इस लोकपाल को सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार नहीं होने से भी अन्ना खफा हैं। उनका कहना है कि देश में भ्रष्टाचार की गंदगी फैलाने में इन्ही का ही तो असली योगदान है। जब असली लुटेरे ही बचे रहेंगे तो फिर लोकपाल किस काम का?
यह अच्छी बात है कि अन्ना अपनी जिद पर अडे हैं। पर सरकार इतनी जल्दी कहां मानने वाली है। सीबीआई एक ऐसा हथियार है जो सदैव उसकी रक्षा करता है। अपने विरोधियों से निपटने और अपनों को बचाने के लिए सीबीआई का जिस कदर दुरुपयोग होता है उसकी भी हर किसी को खबर है। इस सरकार के रहते तो अन्ना की मंशा पूरी नहीं हो सकती। देश के इस सच्चे और ईमानदार जनसेवक की तमन्ना तभी पूरी हो सकती है जब मौजूदा सरकार को उखाड फेंका जाए। जब उनकी पसंद की सरकार होगी तब यकीनन वैसा लोकपाल आने में देरी नहीं लगेगी जैसा कि अन्ना और तमाम देशप्रेमी जनता चाहती है। ऐसे में सब कुछ इस देश की आम जनता के हाथ में ही है...।

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