अखबार मालिकों और पत्रकारों को अपने पाले में लाने और निरंतर बनाये रखने के लिए सरकार को भी कम पापड नहीं बेलने पडते। कुछ सफेदपोश गुरुघंटाल किस्म के अखबारीलालों को दोनों हाथों में लड्डू रखने की लत लग चुकी है। ऐसे घोर लालची कलमवीरों के कारण ही पत्रकारिता आज चौराहे पर है।
उत्तरप्रदेश के कई पत्रकार लालबत्ती के लिए दिन-रात एक किये रहते हैं। सरकार के समक्ष झोली फैलाने में उन्हें कोई शर्मिंदगी महसूस नहीं होती। जब दाल नहीं गलती तो अपनी पर उतर आते हैं। दरअसल ये वो कलमवीर हैं जो हर सरकार के मंत्रियों और संत्रियों के दरबारों की परिक्रमा करने में सिद्धहस्त हैं। सरकार भी अपने कुछ आज्ञाकारी संपादकों और अखबार मालिको को चारा डालने में कोई कंजूसी नहीं करती। ऐसे बहुतेरे जाने-पहचाने पत्रकार हैं जो मायावती के दरबार में भी हाजिरी लगाते थे और अखिलेश और मुलायम सिंह यादव के भी करीबी हैं। ऐसी कला हर किसी के नसीब में नहीं होती। कुछ पत्रकारो का एकमात्र लक्ष्य है चाटुकारिता करो और ईनाम पाओ। लखनऊ के उस पत्रकार को कई नये-पुराने पत्रकार अपना गुरु मानते हैं और चरणवंदना करते हैं जिसने मायावती के गुणों का बखान करने वाली किताब लिखकर बसपा सरकार में अपनी धाक जमायी थी और मीडिया सलाहकार के महान पद को सुशोभित किया था। इस महान हस्ती के रंग-ढंग देखकर यह पता लगाना मुश्किल था कि ये बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ता हैं या पत्रकार हैं। बहन मायावती के आशीर्वाद से इसके घर-आंगन में इतनी धनवर्षा हुई कि उसे संभाल पाना भी दूभर हो गया। अपनी कम पढी-लिखी पत्नी के लिए भी इसने अच्छी-खासी सरकारी नौकरी का जुगाड कर अपना दबदबा दिखाया था।
दरअसल पत्रकारिता को धंधे में तब्दील करने का श्रेय ऐसे ही महापुरुषों को जाता है। उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ में कई ऐसे कल के छुटभइये नेता हैं जो आज पत्रकार कहलाते हैं इनके अपने अखबार हैं और अपनों की ही खबरें छापते हैं। जिनसे दाल नहीं गलती उन्हें धूल चटाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। राजनीति, शासन और प्रशासन के बाजार के कागजी शेर इनसे खौफ खाते हैं तो इनकी छाती और भी चौडी हो जाती है। सरकारें पत्रकारो को कौडी के दाम जमीनें और आवास उपलब्ध करवाती हैं पर अक्सर देखने में यही आता है कि जुगाडु ही बाजी मार ले जाते हैं। निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ पत्रकारीय दायित्व निभाने वाले कलम के पुजारी मिलीभगत का तमाशा देखते रह जाते हैं। लखनऊ में नामी पत्रकारों को सरकार की तरफ से दिये गये घरों में शराब की दुकानें, होटल, ड्राइविंग स्कूल और ब्युटी पार्लरों का चलना यही दर्शाता है कि नैतिकता और सिद्धांत का ढिंढोरा पीटकर प्रतिष्ठा पाने वाले पत्रकार भी कितने खोखले और बाजारू हैं। ऐसे स्वार्थी पत्रकारों का भ्रष्ट नेताओं और बिकाऊ अफसरशाही पर कलम चलाने और भडास निकालने का कोई हक नही बनता। वैसे भी ऐसे पत्रकार आरती गाने या फिर तटस्थ रहने को मजबूर होते हैं। इनमें और देश को बेच खाने को उतारू नेताओं, अधिकारियों में ज्यादा अंतर नहीं है। दोनों ही धोखा और छल-कपट के ऐसे भयावह प्रतिरूप बनकर उभरे हैं, जिनसे देशवासियों का मोहभंग होता चला जा रहा है। ऐसे शर्मनाक दौर में प्रेस की आजादी पर हमला और पत्रकारों, संपादकों, अखबार मालिकों के साथ अन्याय की खबरें भी सुर्खियां पाते नहीं थकतीं। पत्रकार बिरादरी के कुछ लोग बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार से खासे नाराज हैं। मुख्यमंत्री दावा तो सुशासन का करते है पर उनके ढोल में बडी पोल है। इसी पोल को खोलने का खामियाजा कुछ अखबार वालों को भुगतना पड रहा है।
दूसरी तरफ नितीश के तथाकथित सुशासन और सफलता के गीत गाने वाले समाचार पत्रों की भरे चौराहे पर होली भी जलायी जा रही हैं। होली जलाने वालों में जागरूक नागरिक, स्वयंसेवी संस्थाएं और वे बुद्धिजीवी शामिल हैं जिन्हें विहार की बदहाली स्पष्ट दिखायी देती है। प्रदेश में भ्रष्टाचार, अपराध पर अपराध और बदमाशों की रंगदारी परवान पर है पर मुख्यमंत्री कहते हैं कि प्रदेश में अमन और शांति है। ऐसे अखबारियों की कमी नहीं है जो मुख्यमंत्री की ताल पर नाचते हैं और उन्हें वही दिखता है जो नितीश कहते और बताते हैं। सरकारी विज्ञापनों के लालच में बिहार के कई अखबार मालिकों ने अपने संपादकों और पत्रकारों को सरकार के भाई-भतीजावाद, तमाम कमजोरियों, घोटालों और रिश्वतखोरी के समाचारों की पूरी तरह से अनदेखी करने का कडा आदेश दे रखा है। यही वजह है कि मंत्रियों के साथ-साथ प्रशासनिक अधिकारी भी अपनी मनमानी का तांडव मचाये हैं। उनका आतंक इतना जबर्दस्त है कि जनहित के लिए कलम चलाने वालों का टोटा पड गया है। बुद्धिजीवी कहलाने वाले संपादकों ने अपनी कलम और बुद्धि सत्ता के हाथों गिरवी रख दी है और मालिकों के दलाल बनकर रह गये हैं। जिन समाचार पत्रों में नितीश सरकार की आरती गायी जाती है उन्हीं पर सरकारी विज्ञापनो की बरसात की जा रही है। कई अखबार ऐसे हैं जिनका जनहित की खबरों से दूर-दूर तक नाता नहीं है। जो अखबार निष्पक्षता और निर्भीकता के मार्ग पर चलते हुए पत्रकारिता कर रहे हैं उन्हें आपातकाल के नज़ारों से रूबरू होना पड रहा है। कोई भी सजग पत्रकार अगर सरकार की गडबडियों पर लिखता है तो उसे प्रताडित करने का सिलसिला शुरू हो जाता है। पहले तो अखबार मालिकों पर दबाव डाला जाता है कि ऐसे पत्रकार की फौरन हकालपट्टी कर दें। नहीं मानने पर उन्हें सरकारी विज्ञापन देने बंद कर दिये जाते हैं। ऐसे बिरले ही मालिक हैं जो सरकार के हुकुम की अनदेखी कर सकें। अधिकांश का मकसद तो करोडों के सरकारी विज्ञापनों को बंटोरना ही है। उनके लिए समर्पित पत्रकार कोई अहमियत नहीं रखते। किसी भी एक पत्रकार के नौकरी से हकाले जाते ही नये चाटुकारों की लाइन लग जाती है। मुख्यमंत्री नितीश कुमार का बस चले तो वे सरकार और उनके खिलाफ लिखने वालों को ही प्रदेश से बाहर उठवा कर फेंक दें।
दरअसल देश के लगभग सभी प्रदेशों में ऐसे ही हालात हैं। किसी भी मुख्यमंत्री को निष्पक्ष पत्रकारिता रास नहीं आती। कोई भी अखबार उनकी कमजोरियां उजागर करता है तो वे उसे अपना शत्रु मानने लगते हैं। बिकाऊ अखबार मालिकों, पत्रकारों, संपादकों को तो किसी भी शासक के समक्ष दंडवत होने में कोई तकलीफ नहीं होती। असली कष्ट तो उन्हें होता है जो बिकना और झुकना नहीं जानते। निश्चय ही चरणवंदना और पूरी तरह से बिछकर चाटुकारिता करने वालों ने निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता के समक्ष कई संकट खडे कर दिये हैं। आम आदमी भी इस सच्चाई को समझने लगा है कि उसे किस तरह की खबरें किस-किस के इशारो पर कैसे परोसी जा रही हैं।
जिन कलंकित चेहरों ने पत्रकारिता को शर्मनाक पेशा बना कर रख दिया है उन्हें सुधारना आसान नहीं है। फिर भी जो पत्रकार, संपादक बिकने से परहेज करते हैं वे बिकाऊओं का डटकर विरोध करें। उनकी जमात से ही किनारा कर लें। आखिर अखबार सिर्फ और सिर्फ जनता के लिए प्रकाशित किये जाते हैं। जनता भी इतनी नासमझ नहीं है कि ईमानदारों का साथ न दे। जो सिर्फ सरकारी विज्ञापनों की बैसाखी के सहारे सच्ची पत्रकारिता करना चाहते हैं उन्हें भी चतन-मनन करना होगा। आम जनता के दम पर भी दमदार अखबार निकाले जा सकते हैं। सरकार के भरोसे तो कतई नहीं। सरकारें तो इस हाथ दे और उस हाथ ले के उसूल पर चलती हैं। देश में ऐसे व्यापारी, उद्योगपति भरे पडे हैं जो साहसी पत्रकारिता के पक्षधर हैं और उसके लिए वे हर तरह का सहयोग और साथ देने को तत्पर रहते हैं।
उत्तरप्रदेश के कई पत्रकार लालबत्ती के लिए दिन-रात एक किये रहते हैं। सरकार के समक्ष झोली फैलाने में उन्हें कोई शर्मिंदगी महसूस नहीं होती। जब दाल नहीं गलती तो अपनी पर उतर आते हैं। दरअसल ये वो कलमवीर हैं जो हर सरकार के मंत्रियों और संत्रियों के दरबारों की परिक्रमा करने में सिद्धहस्त हैं। सरकार भी अपने कुछ आज्ञाकारी संपादकों और अखबार मालिको को चारा डालने में कोई कंजूसी नहीं करती। ऐसे बहुतेरे जाने-पहचाने पत्रकार हैं जो मायावती के दरबार में भी हाजिरी लगाते थे और अखिलेश और मुलायम सिंह यादव के भी करीबी हैं। ऐसी कला हर किसी के नसीब में नहीं होती। कुछ पत्रकारो का एकमात्र लक्ष्य है चाटुकारिता करो और ईनाम पाओ। लखनऊ के उस पत्रकार को कई नये-पुराने पत्रकार अपना गुरु मानते हैं और चरणवंदना करते हैं जिसने मायावती के गुणों का बखान करने वाली किताब लिखकर बसपा सरकार में अपनी धाक जमायी थी और मीडिया सलाहकार के महान पद को सुशोभित किया था। इस महान हस्ती के रंग-ढंग देखकर यह पता लगाना मुश्किल था कि ये बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ता हैं या पत्रकार हैं। बहन मायावती के आशीर्वाद से इसके घर-आंगन में इतनी धनवर्षा हुई कि उसे संभाल पाना भी दूभर हो गया। अपनी कम पढी-लिखी पत्नी के लिए भी इसने अच्छी-खासी सरकारी नौकरी का जुगाड कर अपना दबदबा दिखाया था।
दरअसल पत्रकारिता को धंधे में तब्दील करने का श्रेय ऐसे ही महापुरुषों को जाता है। उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ में कई ऐसे कल के छुटभइये नेता हैं जो आज पत्रकार कहलाते हैं इनके अपने अखबार हैं और अपनों की ही खबरें छापते हैं। जिनसे दाल नहीं गलती उन्हें धूल चटाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। राजनीति, शासन और प्रशासन के बाजार के कागजी शेर इनसे खौफ खाते हैं तो इनकी छाती और भी चौडी हो जाती है। सरकारें पत्रकारो को कौडी के दाम जमीनें और आवास उपलब्ध करवाती हैं पर अक्सर देखने में यही आता है कि जुगाडु ही बाजी मार ले जाते हैं। निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ पत्रकारीय दायित्व निभाने वाले कलम के पुजारी मिलीभगत का तमाशा देखते रह जाते हैं। लखनऊ में नामी पत्रकारों को सरकार की तरफ से दिये गये घरों में शराब की दुकानें, होटल, ड्राइविंग स्कूल और ब्युटी पार्लरों का चलना यही दर्शाता है कि नैतिकता और सिद्धांत का ढिंढोरा पीटकर प्रतिष्ठा पाने वाले पत्रकार भी कितने खोखले और बाजारू हैं। ऐसे स्वार्थी पत्रकारों का भ्रष्ट नेताओं और बिकाऊ अफसरशाही पर कलम चलाने और भडास निकालने का कोई हक नही बनता। वैसे भी ऐसे पत्रकार आरती गाने या फिर तटस्थ रहने को मजबूर होते हैं। इनमें और देश को बेच खाने को उतारू नेताओं, अधिकारियों में ज्यादा अंतर नहीं है। दोनों ही धोखा और छल-कपट के ऐसे भयावह प्रतिरूप बनकर उभरे हैं, जिनसे देशवासियों का मोहभंग होता चला जा रहा है। ऐसे शर्मनाक दौर में प्रेस की आजादी पर हमला और पत्रकारों, संपादकों, अखबार मालिकों के साथ अन्याय की खबरें भी सुर्खियां पाते नहीं थकतीं। पत्रकार बिरादरी के कुछ लोग बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार से खासे नाराज हैं। मुख्यमंत्री दावा तो सुशासन का करते है पर उनके ढोल में बडी पोल है। इसी पोल को खोलने का खामियाजा कुछ अखबार वालों को भुगतना पड रहा है।
दूसरी तरफ नितीश के तथाकथित सुशासन और सफलता के गीत गाने वाले समाचार पत्रों की भरे चौराहे पर होली भी जलायी जा रही हैं। होली जलाने वालों में जागरूक नागरिक, स्वयंसेवी संस्थाएं और वे बुद्धिजीवी शामिल हैं जिन्हें विहार की बदहाली स्पष्ट दिखायी देती है। प्रदेश में भ्रष्टाचार, अपराध पर अपराध और बदमाशों की रंगदारी परवान पर है पर मुख्यमंत्री कहते हैं कि प्रदेश में अमन और शांति है। ऐसे अखबारियों की कमी नहीं है जो मुख्यमंत्री की ताल पर नाचते हैं और उन्हें वही दिखता है जो नितीश कहते और बताते हैं। सरकारी विज्ञापनों के लालच में बिहार के कई अखबार मालिकों ने अपने संपादकों और पत्रकारों को सरकार के भाई-भतीजावाद, तमाम कमजोरियों, घोटालों और रिश्वतखोरी के समाचारों की पूरी तरह से अनदेखी करने का कडा आदेश दे रखा है। यही वजह है कि मंत्रियों के साथ-साथ प्रशासनिक अधिकारी भी अपनी मनमानी का तांडव मचाये हैं। उनका आतंक इतना जबर्दस्त है कि जनहित के लिए कलम चलाने वालों का टोटा पड गया है। बुद्धिजीवी कहलाने वाले संपादकों ने अपनी कलम और बुद्धि सत्ता के हाथों गिरवी रख दी है और मालिकों के दलाल बनकर रह गये हैं। जिन समाचार पत्रों में नितीश सरकार की आरती गायी जाती है उन्हीं पर सरकारी विज्ञापनो की बरसात की जा रही है। कई अखबार ऐसे हैं जिनका जनहित की खबरों से दूर-दूर तक नाता नहीं है। जो अखबार निष्पक्षता और निर्भीकता के मार्ग पर चलते हुए पत्रकारिता कर रहे हैं उन्हें आपातकाल के नज़ारों से रूबरू होना पड रहा है। कोई भी सजग पत्रकार अगर सरकार की गडबडियों पर लिखता है तो उसे प्रताडित करने का सिलसिला शुरू हो जाता है। पहले तो अखबार मालिकों पर दबाव डाला जाता है कि ऐसे पत्रकार की फौरन हकालपट्टी कर दें। नहीं मानने पर उन्हें सरकारी विज्ञापन देने बंद कर दिये जाते हैं। ऐसे बिरले ही मालिक हैं जो सरकार के हुकुम की अनदेखी कर सकें। अधिकांश का मकसद तो करोडों के सरकारी विज्ञापनों को बंटोरना ही है। उनके लिए समर्पित पत्रकार कोई अहमियत नहीं रखते। किसी भी एक पत्रकार के नौकरी से हकाले जाते ही नये चाटुकारों की लाइन लग जाती है। मुख्यमंत्री नितीश कुमार का बस चले तो वे सरकार और उनके खिलाफ लिखने वालों को ही प्रदेश से बाहर उठवा कर फेंक दें।
दरअसल देश के लगभग सभी प्रदेशों में ऐसे ही हालात हैं। किसी भी मुख्यमंत्री को निष्पक्ष पत्रकारिता रास नहीं आती। कोई भी अखबार उनकी कमजोरियां उजागर करता है तो वे उसे अपना शत्रु मानने लगते हैं। बिकाऊ अखबार मालिकों, पत्रकारों, संपादकों को तो किसी भी शासक के समक्ष दंडवत होने में कोई तकलीफ नहीं होती। असली कष्ट तो उन्हें होता है जो बिकना और झुकना नहीं जानते। निश्चय ही चरणवंदना और पूरी तरह से बिछकर चाटुकारिता करने वालों ने निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता के समक्ष कई संकट खडे कर दिये हैं। आम आदमी भी इस सच्चाई को समझने लगा है कि उसे किस तरह की खबरें किस-किस के इशारो पर कैसे परोसी जा रही हैं।
जिन कलंकित चेहरों ने पत्रकारिता को शर्मनाक पेशा बना कर रख दिया है उन्हें सुधारना आसान नहीं है। फिर भी जो पत्रकार, संपादक बिकने से परहेज करते हैं वे बिकाऊओं का डटकर विरोध करें। उनकी जमात से ही किनारा कर लें। आखिर अखबार सिर्फ और सिर्फ जनता के लिए प्रकाशित किये जाते हैं। जनता भी इतनी नासमझ नहीं है कि ईमानदारों का साथ न दे। जो सिर्फ सरकारी विज्ञापनों की बैसाखी के सहारे सच्ची पत्रकारिता करना चाहते हैं उन्हें भी चतन-मनन करना होगा। आम जनता के दम पर भी दमदार अखबार निकाले जा सकते हैं। सरकार के भरोसे तो कतई नहीं। सरकारें तो इस हाथ दे और उस हाथ ले के उसूल पर चलती हैं। देश में ऐसे व्यापारी, उद्योगपति भरे पडे हैं जो साहसी पत्रकारिता के पक्षधर हैं और उसके लिए वे हर तरह का सहयोग और साथ देने को तत्पर रहते हैं।
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