Thursday, June 13, 2013

चिन्तन-मनन का दौर

कैसी होती है सत्ता की भूख! कैसा होता है सत्ता पिपासुओं का असली-नकली चेहरा। क्या होती है उनकी सोच? सत्ता-सुंदरी को पाने के लिए नेता किस तरह से अपना ईमान तक बेच देते हैं? इन सब सवालों का जवाब पाने के लिए आपको ज्यादा दिमाग खपाने की जरूरत नहीं है। भारतीय राजनीति और सत्ता के शातिर खिलाडि‍यों की हरकतें खुद-ब-खुद हर सवाल का जवाब दे देती हैं। वैसे इस देश में ऐसे नेताओं का घोर अकाल है जो सच कहने और अपने किये को स्वीकारने की हिम्मत दिखाते हों। जिसे देखो वही चेहरे पर नकाब लगाये है। शिवसेना के संस्थापक स्वर्गीय बाल ठाकरे इस देश के ऐसे मर्द नेता थे जो पीठ दिखाने में यकीन नहीं रखते थे। वे जो कहते थे, करते भी थे, और डंके की चोट पर स्वीकारते भी थे। भले ही देश में उनके उसूलों का विरोध करने वालों की अच्छी-खासी तादाद रही है फिर भी उन्होंने कभी भी अपने सिद्घांतों से समझौता नहीं किया। जीवनपर्यंत शेर की तरह दहाडते रहे और विरोधियों को ललकारते रहे। उन्हें कभी भी मौके और वक्त के हिसाब से अपनी चाल और भाषा बदलते नहीं देखा गया।
बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम भी गजब के स्पष्टवादी थे। उनकी साफगोई ने ही बसपा के इस लायक बनाया कि वह सत्ता का स्वाद चख पायी। कांशीराम अक्सर कहा करते थे कि मैं घोर अवसरवादी हूं। अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए मैं कोई भी रास्ता अख्तियार कर सकता हूं। जो दिल में आया, वो कह दिया के सिद्धांत पर चलने वाले कांशीराम की जगहंसाई भी खूब हुई पर वे अपने तौर-तरीको के साथ अपना काम करते रहे, स्वार्थ साधते रहे और आखिरकार सुश्री मायावती को यूपी की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान करने के अपने सपने को भी साकार करने में कामयाब हो गये। मायावती भी उसी रास्ते पर चल रही हैं। सत्ता पाने के लिए उन्हें किसी भी पार्टी को गले लगाने से परहेज नहीं है। सिर्फ दिखाने भर के लिए वे भाजपा को कोसती हैं। साम्प्रदायिक करार देती हैं और जब मौका आता है तो उसी के कंधे की सवारी कर उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री भी बन जाती हैं। लाख सत्ता की भूखी होने के बावजूद भी माया तारीफ के काबिल हैं क्योंकि वे अपने आदर्श के पदचिन्हों पर तो चल रही हैं। लेकिन इस गुण को कांग्रेस, भाजपा और समाजवादी पार्टी के नेता और योद्धा आत्मसात नहीं कर पाये। देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के नेता महात्मा गांधी को अपना आदर्श कहते नहीं थकते। कांग्रेस को ही मुल्क पर सबसे ज्यादा राज करने का अवसर मिला। अगर इस पार्टी के नेताओं ने सही मायने में बापू के बताये मार्ग पर कदम बढाये होते तो देश का कायाकल्प हो जाता। पर अफसोस, कांग्रेसियों ने राष्ट्रपिता के नाम पर वोट तो बटोरे पर उनके उसूलों पर चलने की नाम मात्र की भी कोशिश नहीं की। अब तो हालात यह हैं कि दूसरी पार्टियां भी महात्मा पर अपना अधिकार जताने लगी हैं पर उनके सिद्धांतो पर चलने को तैयार नहीं हैं। भारतीय जनता पार्टी के नेता अक्सर दावा करते हैं कि उनकी पार्टी औरों से अलग है। पर इस पार्टी के नेताओं ने भी श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं को बिसरा दिया है जिन्होंने पार्टी की नींव रखी थी और देश के सम्पूर्ण विकास के मूलमंत्र सुझाये थे। कांग्रेस की तरह भाजपा भी सत्ता के महारोग से ग्रस्त है। इसके लगभग सभी दिग्गज नेताओं को तो सपनों में भी सत्ता ही दिखती है। भले ही वे उसके काबिल हों या न हों। हर किसी को देश का प्रधानमंत्री बनने का भूत सवार है। इस चक्कर में पार्टी की साख का दिवाला पिटने की भी उन्हें कोई परवाह नहीं है।
भाजपा के भीष्म पितामह लालकृष्ण अडवाणी की जब पार्टी में उपेक्षा होती है तो उन्हें पार्टी में कई खामियां नजर आने लगती हैं! वे भाजपा के सत्ता में आने पर छह महीने के लिए प्रधानमंत्री बनने की शर्त पर अपना इस्तीफा वापस लेने को तैयार हो जाते हैं। दरअसल देश को तो उम्मीद थी कि उम्रदराज अडवाणी बडप्पन दिखाते हुए मोदी का स्वागत करेंगे। मोदी को चुनाव अभियान समिती का अध्यक्ष बनाये जाने के मात्र २४ घंटे के अंदर इस बुजुर्ग नेता ने भाजपा के तीन प्रमुख पदों से जिस नाटकीयता के साथ इस्तीफा दिया उससे लोगों तक यह संदेश गया है कि वे किसी और को आगे बढता नहीं देखना चाहते। उनके इस रवैय्ये के चलते यह भी कहा जाने लगा है कि अडवाणी पार्टी को दिए गये अपने योगदान की कीमत वसूलना चाहते हैं। वे यह भी भूल गये हैं कि देश की जनता बहुत बडे परिवर्तन की आकांक्षी है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिं‍ह ने कहा है कि लोकप्रियता ही वजनी नेता की असली निशानी होती है। नरेंद्र मोदी आज देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। जब पार्टी अध्यक्ष को लग रहा है कि नरेंद्र मोदी का चयन गलत नहीं है और इसी में पार्टी और देश का हित है तो अडवाणी को इस हकीकत को नजअंदाज नहीं करना चाहिए। उनकी जल्दबाजी ने भाजपा को यकीनन बहुत बडा नुकसान तो पहुंचाया ही है। लोगों ने यह भी कहना शुरू कर दिया है कि चुनावी दंगल में यदि भाजपा बाजी मारती है और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो अडवाणी को राष्ट्रपति बनाने के लिए पार्टी को तैयार रहना होगा। प्रधानमंत्री नहीं तो राष्ट्रपति ही सही... इसी में अडवाणी को आत्मिक शांति मिलेगी। भाजपा को इस शुभ काम पर भी अभी से चिं‍तन-मनन शुरू कर देना चाहिए।

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