राजनेता कभी बूढे नहीं होते। हो भी जाएं तो भी हमेशा यही दर्शाते रहते हैं कि उनमें भरपूर दम-खम बाकी है। वे कोई भी जंग लड सकते हैं। भारतीय जनता पार्टी के उम्रदराज नेता लालकृष्ण आडवाणी इस तथ्य के जीते जागते प्रमाण हैं। इसी साल के नवंबर महीने में ८६ वर्ष के होने जा रहे आडवाणी इन दिनों अपनी ही पार्टी के नरेंद्र मोदी के निरंतर बढते कद की दहशत की गिरफ्त में हैं। उन्हें इस डर ने जकड लिया है कि यह शख्स उनके सपनों पर पानी फेरने के लिए कुछ भी कर सकता है। यही वजह है कि उन्होंने 'सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठा' की कहावत को अमलीजामा पहनाने की ऐसी राह पकड ली है जो भाजपा की लुटिया भी डूबो सकती है। पर हिंदुस्तान का पीएम बनने की कसम खाये आडवाणी को कोई चिंता-फिक्र नहीं है। वे तो इस सिद्धांत पर चल रहे हैं कि अगर मेरी दाल नहीं गली तो किसी दूसरे की भी नहीं गलने दूंगा। चाहे कुछ भी हो जाए। वे यह भी भूल से गये हैं कि उन्होंने पार्टी को बनाने और खडा करने में अहम भूमिका निभायी है। भाजपा के इस दिग्गज नेता को जब-तब अटल बिहारी वाजपेयी की याद हो आती है। इसकी भी बहुत बडी वजह है। आडवाणी खुद को अटल का उत्तराधिकारी मानते रहे हैं। यह बात दीगर है कि 'इंडिया शाइनिंग' की विज्ञापनबाजी बेअसर रही और आडवाणी के मंसूबे धरे के धरे रह गये। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। वे खुलकर यह तो नहीं कहते कि उन्होंने अटल के तमाम सद्गुणों को आत्मसात कर रखा है, इसलिए आज की तारीख में वही भाजपा के एकमात्र भावी प्रधानमंत्री की पदवी के अधिकारी हैं। खुद भाजपा के नेता और लाखों कार्यकर्ता भी हैरान हैं कि आडवाणी को अचानक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री में अटल जी की छवि क्यों और कैसे दिखायी देने लगी है? आडवाणी ने तो इशारों ही इशारों में यह संदेश भी दे दिया है कि नरेंद्र मोदी कभी भी अटल बिहारी वाजपेयी नहीं हो सकते। मोदी ने तो अटल की राजधर्म निभाने की नसीहत को ही अनसुना कर दिया था। ऐसे कृतघ्न नेता को देश का प्रधानमंत्री बनने का कोई हक नहीं है। आडवाणी का मानना है कि शिवराज, अटल की तरह बडे जिगर वाले नेता हैं। उनमें अहंकार का कोई नामो निशान नहीं है। आडवाणी ने शिवराज की तारीफों के गुब्बारे छोडकर मोदी को चुनौती देने की जबरदस्त कोशिश की है कि अभी भी वक्त है... संभल जाओ। मेरा गुजरात से पत्ता काटना तुम्हें बहुत महंगा पड सकता है। भाजपा में तो वही होगा जो मैं चाहूंगा। तुम कितना भी उछल लो पर आखिरकार चलेगी तो मेरी ही। मैं उन राजनेताओं में शामिल नहीं हूं जो उम्र के ढलने के साथ घुटने टेकने लगते हैं।
मोदी से बेहद खफा आडवाणी ने यह कहकर अपनी भडास निकालने में कोई संकोच नहीं किया कि असली विकास तो मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के मुख्यमंत्रियों ने किया है। इन बीमार प्रदेशों में नई जान फूंकना कोई बच्चों का खेल नहीं था। मोदी ने तो जब गुजरात की कमान संभाली थी तब भी वहां पर विकास की गंगा बह रही थी। विकसित प्रदेश में तो कोई भी भरपूर खुशहाली ला सकता है। मोदी ने कोई बहुत बडा तीर नहीं मारा है।
इसमें दो मत नहीं हैं कि शिवराज सिंह चौहान और डॉ. रमन सिंह ने अपने-अपने प्रदेशों के कायाकल्प के लिए खून-पसीना बहाया और सफलता भी पायी पर आडवाणी का गुजरात के मुख्यमंत्री को हतोत्साहित करना उन्हीं की हताशा और बौनेपन को दर्शाता है। यह तो पार्टी के पैरों पर कुल्हाडी मारने वाली बात है!
दरअसल, यह तो वही बात हुई... खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे...।
किसी ने गलत तो नहीं कहा कि राजनीति के रहस्यों की सुरंगों की लंबाई और गहराई को समझ पाना कतई आसान नहीं। २००२ में गुजरात के दंगों के बाद गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी ने गुजरात दंगों के दागी होने की वजह से मोदी की मुख्यमंत्री की कुर्सी छीनने का निर्णय ले लिया था। तब आडवाणी ने ही मोदी को पाक-साफ होने का प्रमाणपत्र देकर बचाने का सुरक्षित रास्ता निकाला था। आज हालात बदल चुके हैं। यह सब एकाएक नहीं हुआ। बीते ११ सालों में मोदी ने अपनी सोची-समझी रणनीति के तहत अजब-गजब चालें चलीं कि उनके राजनीतिक शत्रुओं को मुंह की खानी पडी। आडवाणी जब तक मोदी के सच्चे हितैषी बने रहे तब तक मोदी उनका साथ निभाते रहे। इसी कला को ही तो 'राजनीति' कहा जाता है।
यह भी कम हैरत भरी सच्चाई नहीं है कि दंगों ने मोदी को नायक बनाया। भले ही कई राजनेता और राजनीतिक पार्टियां उन्हें कातिल करार देते नहीं थकतीं, पर गुजरात के वोटरों की नजर में तो मोदी जननायक हैं। इसी गुजरात के दम पर ही वे सवा सौ करोड की आबादी वाले देश का प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं। मोदी जानते हैं कि हिंदुत्व की भावना से ओत-प्रोत सारी की सारी कट्टर ताकतें उनके साथ हैं। अधिकांश औद्योगिक घरानों की पहली पसंद भी नरेंद्र मोदी ही हैं। करोडों युवा भी उन्हें ही प्रधानमंत्री पद के लायक मानते हैं। सोशल नेटवर्क पर भी मोदी के ही गुणगान गाये जा रहे हैं। गुजरात में संपन्न हुए उपचुनाव में दो लोकसभा और चार विधानसभा सीटों पर भारतीय जनता पार्टी की जीत को भी नरेंद्र मोदी की जीत माना जा रहा है। यकीनन इस जीत ने मोदी का कद और रुतबा और बढाया है। उनके तमाम विरोधी हक्का-बक्का होकर रह गये हैं...।
मोदी से बेहद खफा आडवाणी ने यह कहकर अपनी भडास निकालने में कोई संकोच नहीं किया कि असली विकास तो मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के मुख्यमंत्रियों ने किया है। इन बीमार प्रदेशों में नई जान फूंकना कोई बच्चों का खेल नहीं था। मोदी ने तो जब गुजरात की कमान संभाली थी तब भी वहां पर विकास की गंगा बह रही थी। विकसित प्रदेश में तो कोई भी भरपूर खुशहाली ला सकता है। मोदी ने कोई बहुत बडा तीर नहीं मारा है।
इसमें दो मत नहीं हैं कि शिवराज सिंह चौहान और डॉ. रमन सिंह ने अपने-अपने प्रदेशों के कायाकल्प के लिए खून-पसीना बहाया और सफलता भी पायी पर आडवाणी का गुजरात के मुख्यमंत्री को हतोत्साहित करना उन्हीं की हताशा और बौनेपन को दर्शाता है। यह तो पार्टी के पैरों पर कुल्हाडी मारने वाली बात है!
दरअसल, यह तो वही बात हुई... खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे...।
किसी ने गलत तो नहीं कहा कि राजनीति के रहस्यों की सुरंगों की लंबाई और गहराई को समझ पाना कतई आसान नहीं। २००२ में गुजरात के दंगों के बाद गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी ने गुजरात दंगों के दागी होने की वजह से मोदी की मुख्यमंत्री की कुर्सी छीनने का निर्णय ले लिया था। तब आडवाणी ने ही मोदी को पाक-साफ होने का प्रमाणपत्र देकर बचाने का सुरक्षित रास्ता निकाला था। आज हालात बदल चुके हैं। यह सब एकाएक नहीं हुआ। बीते ११ सालों में मोदी ने अपनी सोची-समझी रणनीति के तहत अजब-गजब चालें चलीं कि उनके राजनीतिक शत्रुओं को मुंह की खानी पडी। आडवाणी जब तक मोदी के सच्चे हितैषी बने रहे तब तक मोदी उनका साथ निभाते रहे। इसी कला को ही तो 'राजनीति' कहा जाता है।
यह भी कम हैरत भरी सच्चाई नहीं है कि दंगों ने मोदी को नायक बनाया। भले ही कई राजनेता और राजनीतिक पार्टियां उन्हें कातिल करार देते नहीं थकतीं, पर गुजरात के वोटरों की नजर में तो मोदी जननायक हैं। इसी गुजरात के दम पर ही वे सवा सौ करोड की आबादी वाले देश का प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं। मोदी जानते हैं कि हिंदुत्व की भावना से ओत-प्रोत सारी की सारी कट्टर ताकतें उनके साथ हैं। अधिकांश औद्योगिक घरानों की पहली पसंद भी नरेंद्र मोदी ही हैं। करोडों युवा भी उन्हें ही प्रधानमंत्री पद के लायक मानते हैं। सोशल नेटवर्क पर भी मोदी के ही गुणगान गाये जा रहे हैं। गुजरात में संपन्न हुए उपचुनाव में दो लोकसभा और चार विधानसभा सीटों पर भारतीय जनता पार्टी की जीत को भी नरेंद्र मोदी की जीत माना जा रहा है। यकीनन इस जीत ने मोदी का कद और रुतबा और बढाया है। उनके तमाम विरोधी हक्का-बक्का होकर रह गये हैं...।
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