उत्तराखंड में हुई विनाशलीला ने एक बार फिर से यह बता दिया है कि मनुष्य प्रकृति के तांडव और ताकत के समक्ष कितना बौना और असहाय है। अपने फायदे के लिए वर्षों से प्रकृति से छेडछाड करते चले आ रहे इंसान के होश न जाने कब ठिकाने आएंगे? उत्तराखंड में प्रकृति ने जो कहर ढाया और तबाही का मंजर सामने आया उससे भी अगर सरकार नहीं चेतती तो यह मान लिया जाएगा कि उसे देशवासियों से ज्यादा अपने स्वार्थों की पूर्ति की चिंता है।
पर्यावरण विशेषज्ञ वर्षों से सावधान करते चले आ रहे हैं कि पहाडों का अंधाधुंध दोहन कभी भी तबाही का कारण बन सकता है। जब से टिहरी बांध बना है तब से भूस्खलन और बाढों के आने के सिलसिलो ने जोर पकडा है। गंगा और उसकी सहायक नदियों पर अंधाधुंध बांध और पनबिजली परियोजनाएं बनाकर पर्यावरण संतुलन का कबाडा करके रख दिया गया। होटल और भव्य इमारतें खडी करने के लिए बडी निर्ममता के साथ पहाड काटे गये। जंगलों की कटाई की गयी और इस कदर अवैध खनन किया गया कि पहाड खोखले हो गये। इंसानी लालच की यह इंतिहा नहीं तो क्या है कि पुरातन मंदिरों के आसपास बाजार बसा दिये गये और नदियों के किनारे इमारतों की कतारें खडी कर दी गयीं।
इस दुखदायी काल में देश की सेना ने असंख्य लोगों की जानें बचाकर सच्ची देशसेवा और कर्तव्य परायणता की जीवंत मिसाल पेश करने में कोई कसर नहीं छोडी। हेलीकॉप्टर के दुखद हादसे के बाद भी जवानों का मनोबल जस का तस रहा। सेना और अद्र्धसैनिक बलों के जवानों ने खुद को राहत और बचाव कार्य में झोंक डाला। जांबाज जवानों ने न केवल हजारों पीडितों के प्राण बचाये बल्कि भरी बारिश में भी दिन-रात एक करके सैकडों स्थानों पर अस्थायी पुल बनाये और कई सडक मार्ग भी खोले। दरअसल उन्होंने न अपनी नींद की परवाह की और न ही भूख और प्यास की। दूसरी तरफ इसी देश के कई राजनेता सियासी फायदे के लिए एक-दूसरे को नीचा दिखाते रहे। श्रेय की लडाई में सांसदों में धक्का-मुक्की भी हो गयी। आपदा का राजनीतिकरण करने वालो ने आखिरकार अपनी औकात दिखा ही दी। काश! इन नकली परोपकारियों ने सेना से थोडी-सी भी प्रेरणा ली होती तो देशवासी आहत और शर्मिंदा न होते।
इंसानी लाशों की छाती पर सवार होकर कई घटिया चेहरों ने मानवता को शर्मिंदा किया। ऐसे कई भगवाधारी पकड में आये जो दिखने में तो साधु थे पर थे हद दर्जे के शैतान। इन तथाकथित साधुओं ने तो हैवानियत को भी मात दे दी। मृतक स्त्री-पुरुषों के आभूषण उतारे गये। जेबें साफ की गयीं। फिर भी इनका जी नहीं भरा। कई लुटेरे जब शवों की अंगुलियों से अंगुठियां नहीं निकाल पाये तो उन्होंने उनकी अंगुलियां ही काट डालीं। महिलाओं के कानों से बालियां निकालने के लिए कानों को ही चीड-फाड डाला। ऐसे न जाने कितने इंसान के भेष में शैतान थे जिन्होंने मानवता को शर्मिंदा किया। बाढ पीडितो की मदद करने की बजाय उनके साथ लूटपाट की। बेबस महिलाओं का यौन शोषण भी किया गया। बाढ में फंसे असंख्य लोगों को ऐसे-ऐसे कटु अनुभवों से रूबरू होना पडा जिनकी उन्होंने कभी कल्पना ही नहीं की थी। जिन घायल जिस्मों पर मरहम लगाने की जरूरत थी उन्हीं पर अमानवीयता की छुरियां चलायी गयीं। प्राकृतिक आपदा की मार झेलने वाले देशवासी अपने ही लोगों की कमीनगी का जिस तरह से शिकार हुए उसका वर्णन कर पाना आसान नहीं है। हजारों आपदा पीडितों ने शौचालय का पानी पीकर और पेड-पौधों के पत्ते खाकर अपनी जान बचायी। इन असहायों ने निर्मम व्यापारियों का जो चेहरा देखा उससे तो उन्हें यही लगा कि यह लोग किसी और ही भयावह दुनिया के बाशिंदे हैं। यह देश भी उनका अपना प्यारा भारतवर्ष नहीं है, जहां मानवता, सहृदयता और सद्भावना के गीत गाये जाते हैं। एक रोटी के लिए ढाई से पांच सौ रुपये, चावल की छोटी सी कटोरी के लिए डेढ सौ रुपये और चिप्स के छोटे से पैकेट के लिए सत्तर-अस्सी चुकाने वालों की पीडा को भुक्तभोगी ही समझ सकते हैं। जिनकी जेबें खाली थीं उन्हें तो पीने के लिए पानी भी नसीब नहीं हुआ। उन्होंने कीचड भरा बरसाती पानी पीकर मौत से आखिर तक जंग लडी। सरकार ने आधे-अधूरे राहत कार्य चलाये। हेलीकॉप्टर से रोटियां और अन्य खाद्य सामग्रियां भी गिराई गयीं। पर कई जगह बच्चे और बूढे भूखे ही रह गये। जो बलवान थे उन्होंने अपनी ताकत कर पूरा फायदा उठाया। कई दुखियारों को कचरे से सडी-गली रोटियां और अन्य खाद्य सामग्रियां उठाकर मजबूरन निगलनी पडीं। भूखे-प्यासे अबोध बच्चों और महिलाओं की अनदेखी करने वाले क्रुर व्यापारियों के लिए ऐसे बरबादी के मंजर हमेशा फायदे का सौदा होते हैं। उन्हें ऐसे ही हादसों का बेसब्री से इंतजार रहता है। लोगों पर विपत्ति की मार पडती है और उनकी सम्पति में बढोत्तरी हो जाती है। उत्तराखंड की आपदा की घडी में जहां अपने-अपने तरीके से लूटमार करने वाले बहुरुपिये दिखे वहीं ऐसे सच्चे परोपकारी भी देखे गये जिन्होंने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। यकीनन ऐसे ही लोग इंसान कहलाने के अधिकारी हैं। इन्हीं की वजह से आज भी इंसानियत जिन्दा है।
पर्यावरण विशेषज्ञ वर्षों से सावधान करते चले आ रहे हैं कि पहाडों का अंधाधुंध दोहन कभी भी तबाही का कारण बन सकता है। जब से टिहरी बांध बना है तब से भूस्खलन और बाढों के आने के सिलसिलो ने जोर पकडा है। गंगा और उसकी सहायक नदियों पर अंधाधुंध बांध और पनबिजली परियोजनाएं बनाकर पर्यावरण संतुलन का कबाडा करके रख दिया गया। होटल और भव्य इमारतें खडी करने के लिए बडी निर्ममता के साथ पहाड काटे गये। जंगलों की कटाई की गयी और इस कदर अवैध खनन किया गया कि पहाड खोखले हो गये। इंसानी लालच की यह इंतिहा नहीं तो क्या है कि पुरातन मंदिरों के आसपास बाजार बसा दिये गये और नदियों के किनारे इमारतों की कतारें खडी कर दी गयीं।
इस दुखदायी काल में देश की सेना ने असंख्य लोगों की जानें बचाकर सच्ची देशसेवा और कर्तव्य परायणता की जीवंत मिसाल पेश करने में कोई कसर नहीं छोडी। हेलीकॉप्टर के दुखद हादसे के बाद भी जवानों का मनोबल जस का तस रहा। सेना और अद्र्धसैनिक बलों के जवानों ने खुद को राहत और बचाव कार्य में झोंक डाला। जांबाज जवानों ने न केवल हजारों पीडितों के प्राण बचाये बल्कि भरी बारिश में भी दिन-रात एक करके सैकडों स्थानों पर अस्थायी पुल बनाये और कई सडक मार्ग भी खोले। दरअसल उन्होंने न अपनी नींद की परवाह की और न ही भूख और प्यास की। दूसरी तरफ इसी देश के कई राजनेता सियासी फायदे के लिए एक-दूसरे को नीचा दिखाते रहे। श्रेय की लडाई में सांसदों में धक्का-मुक्की भी हो गयी। आपदा का राजनीतिकरण करने वालो ने आखिरकार अपनी औकात दिखा ही दी। काश! इन नकली परोपकारियों ने सेना से थोडी-सी भी प्रेरणा ली होती तो देशवासी आहत और शर्मिंदा न होते।
इंसानी लाशों की छाती पर सवार होकर कई घटिया चेहरों ने मानवता को शर्मिंदा किया। ऐसे कई भगवाधारी पकड में आये जो दिखने में तो साधु थे पर थे हद दर्जे के शैतान। इन तथाकथित साधुओं ने तो हैवानियत को भी मात दे दी। मृतक स्त्री-पुरुषों के आभूषण उतारे गये। जेबें साफ की गयीं। फिर भी इनका जी नहीं भरा। कई लुटेरे जब शवों की अंगुलियों से अंगुठियां नहीं निकाल पाये तो उन्होंने उनकी अंगुलियां ही काट डालीं। महिलाओं के कानों से बालियां निकालने के लिए कानों को ही चीड-फाड डाला। ऐसे न जाने कितने इंसान के भेष में शैतान थे जिन्होंने मानवता को शर्मिंदा किया। बाढ पीडितो की मदद करने की बजाय उनके साथ लूटपाट की। बेबस महिलाओं का यौन शोषण भी किया गया। बाढ में फंसे असंख्य लोगों को ऐसे-ऐसे कटु अनुभवों से रूबरू होना पडा जिनकी उन्होंने कभी कल्पना ही नहीं की थी। जिन घायल जिस्मों पर मरहम लगाने की जरूरत थी उन्हीं पर अमानवीयता की छुरियां चलायी गयीं। प्राकृतिक आपदा की मार झेलने वाले देशवासी अपने ही लोगों की कमीनगी का जिस तरह से शिकार हुए उसका वर्णन कर पाना आसान नहीं है। हजारों आपदा पीडितों ने शौचालय का पानी पीकर और पेड-पौधों के पत्ते खाकर अपनी जान बचायी। इन असहायों ने निर्मम व्यापारियों का जो चेहरा देखा उससे तो उन्हें यही लगा कि यह लोग किसी और ही भयावह दुनिया के बाशिंदे हैं। यह देश भी उनका अपना प्यारा भारतवर्ष नहीं है, जहां मानवता, सहृदयता और सद्भावना के गीत गाये जाते हैं। एक रोटी के लिए ढाई से पांच सौ रुपये, चावल की छोटी सी कटोरी के लिए डेढ सौ रुपये और चिप्स के छोटे से पैकेट के लिए सत्तर-अस्सी चुकाने वालों की पीडा को भुक्तभोगी ही समझ सकते हैं। जिनकी जेबें खाली थीं उन्हें तो पीने के लिए पानी भी नसीब नहीं हुआ। उन्होंने कीचड भरा बरसाती पानी पीकर मौत से आखिर तक जंग लडी। सरकार ने आधे-अधूरे राहत कार्य चलाये। हेलीकॉप्टर से रोटियां और अन्य खाद्य सामग्रियां भी गिराई गयीं। पर कई जगह बच्चे और बूढे भूखे ही रह गये। जो बलवान थे उन्होंने अपनी ताकत कर पूरा फायदा उठाया। कई दुखियारों को कचरे से सडी-गली रोटियां और अन्य खाद्य सामग्रियां उठाकर मजबूरन निगलनी पडीं। भूखे-प्यासे अबोध बच्चों और महिलाओं की अनदेखी करने वाले क्रुर व्यापारियों के लिए ऐसे बरबादी के मंजर हमेशा फायदे का सौदा होते हैं। उन्हें ऐसे ही हादसों का बेसब्री से इंतजार रहता है। लोगों पर विपत्ति की मार पडती है और उनकी सम्पति में बढोत्तरी हो जाती है। उत्तराखंड की आपदा की घडी में जहां अपने-अपने तरीके से लूटमार करने वाले बहुरुपिये दिखे वहीं ऐसे सच्चे परोपकारी भी देखे गये जिन्होंने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। यकीनन ऐसे ही लोग इंसान कहलाने के अधिकारी हैं। इन्हीं की वजह से आज भी इंसानियत जिन्दा है।
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