नेताजी अपनी मस्ती में थे। एक स्थानीय कार्यकर्ता ने उन्हें नमस्कार किया और उनकी तरफ अपना हाथ बढाया। लेकिन नेताजी ने कार्यकर्ता को अनदेखा कर दिया। हैरान कार्यकर्ता ने नेताजी पर सवाल दागा- आपने मुझे पहचाना नहीं? नेताजी ने तपाक से जवाब दिया कि यदि नहीं पहचानेंगे तो क्या कर लोगे? बेचारे कार्यकर्ता ने झेंपकर अपनी नजरें झुका लीं। आजकल ऐसा ही हो रहा है। नेताओं को अपने पुराने कार्यकर्ताओं की अवहेलना करने में कोई संकोच नहीं होता। दरअसल जब भी चुनाव करीब आते हैं तो कार्यकर्ता दिग्गज नेताओं को टिकट के लिए घेरना शुरू कर देते हैं। हर कार्यकर्ता को लगता है कि नेताजी उसे निराश नहीं करेंगे। वर्षों से वह नेताजी के लिए अपना खून-पसीना बहाता चला आ रहा है। मेहनत का फल अब नहीं तो फिर कब मिलेगा? सक्रिय कार्यकर्ताओं को नेताओं का ऐसा व्यवहार शूल की तरह चुभता है। कुछ नेता ऐसे भी हैं जो अपनी मजबूरियां गिनाने लगते हैं। किस-किस की सुनें और कितनों को टिकटें देकर खुश करें। यहां तो हर कोई विधायक और सांसद बनने को बेताब है।
दरअसल यह वो दंभी और घमंडी नेता हैं जिन्हें राजनीति में झंडे गाडने के लिए जरा भी मेहनत नहीं करनी पडी। इनके बाप-दादा भी सत्ता के खिलाडी थे। वे भी जमीनी कार्यकर्ताओं का जी भरकर इस्तेमाल किया करते थे और सत्ता का मज़ा लूटा करते थे। ये भी उसी परंपरा को निभा रहे हैं। जब चुनाव की आहट होती है तो चुन-चुन कर कार्यकर्ताओं को काम पर लगाते हैं और जीतने के बाद उनको भूल जाते हैं। यह भी जगजाहिर हकीकत है कि जब टिकट देने की बात आती है तो जी-जान लगा देने वाले कार्यकर्ताओं का पत्ता बडी बेरहमी से काट दिया जाता है और अपने करीबियों की नैय्या पार लगा दी जाती है। वर्षों तक पार्टी और नेताजी के नाम के नारे लगाने और पोस्टर चिपकाने वाले मुंह ताकते रह जाते हैं। एक समय ऐसा भी आता है जब नेताजी ऐसी बुलंदी हासिल कर लेते हैं कि कार्यकर्ताओं के लिए उन तक पहुंच पाना भी बेहद मुश्किल हो जाता है। जब कभी भूले से आमना-सामना हो भी जाता है तो नेताजी मुंह फेर लेते हैं। कार्यकर्ता बेचारा ठगा का ठगा रह जाता है। हिन्दुस्तान के अधिकांश राजनेताओं और राजनीति का यही असली चेहरा है। कभी जमीनी कार्यकर्ताओं के दम पर चुनाव जीतने वालों के गिरगिट की तरह रंग बदलने का सबसे बडा कारण वो धन है जो चुनाव जीतने और सत्ता पाने के बाद भ्रष्टाचार कर बटोरा जाता है। इसी माया ने चुनाव लडने के अंदाज पूरी तरह से बदल डाले हैं। चुनाव आयोग लाख चीखता-चिल्लाता रहे पर धनबल के दम पर चुनाव लडने के आदी हो चुके नेता कभी भी नहीं बदलने और सुधरने वाले। बिकने और खरीदने में इन्होंने महारत हासिल कर ली है। तभी तो कई विद्वान राजनीति को वेश्या की संज्ञा देने से भी नहीं हिचकिचाते।
यह हिन्दुस्तान ही है जहां कोई राजनेता गरीबों को मुफ्त में टीवी देने की घोषणा करता है तो किसी को ऐन चुनाव के मौके पर छात्रों को लैपटॉप देने की सूझती है। मुफ्त में अनाज की खैरात बांटने वाले यह भूल जाते हैं कि वे गरीब देश के साथ कितनी बडी धोखाधडी कर रहे हैं। अच्छे खासे नागरिकों को मुफ्तखोर बनाकर उन मेहनतकशों का घोर अपमान कर रहे हैं जिन्हें अपने खून-पसीने की कमायी की रोटी खाने की चाहत है। अपनी जडें खो चुके राजनेताओं ने यह मान लिया है कि इस देश की जनता को लालच के जाल में फंसाना बेहद आसान है। इसलिए लगभग हर पार्टी अपने चुनावी घोषणा पत्र में देश के सर्वांगीण विकास का मुद्दा तो भूल जाती है और मुफ्त में उपहार बांटने को प्राथमिकता देती है। इस सचाई से भला कोई कैसे इनकार कर सकता है कि मतदाताओं को उपहार देने का लालच देना भी एक तरह से रिश्वत देना ही है। अधिकांश रिश्वतखोर नेता इसी परिपाटी को निभाते हुए चुनाव जीत भी जाते हैं। इस उपलब्धि को पाने के लिए उन्हें वही धन लुटाना पडता है जो उन्होंने भ्रष्टाचार की बदौलत कमाया होता है। चुनाव में धन के पराक्रम के बलवति होते चले जाने के कारण ही समर्पित कार्यकर्ताओं का महत्व घटता चला जा रहा है। देश के संविधान निर्माताओं ने शायद ही कभी कल्पना की होगी कि देश के नेता इतने पतित हो जाएंगे कि वोटरों की ही खरीददारी करने लगेंगे। अब तो सरकारें भी अपना ईमान बेचने लगी हैं। लोकसभा चुनावों के निकट आते ही वर्षों से सोयी मनमोहन सरकार जाग गयी। वोटरों को लुभाने के लिए आनन-फानन में खाद्य सुरक्षा बिल पास कर डाला। यह तय है कि कांग्रेस को गरीबों की चिंता नहीं है। उसकी नजर तो वोट बैंक पर है। देश की गरीब जनता उसके लिए महज वोटर है। भारतीय जनता पार्टी भी कम नहीं है। उसे जब यह लगा कि कांग्रेस मतदाताओं को चारा डालने के मामले में भारी पड रही है तो उसे भी श्रीराम की याद हो आयी। गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के भावी पी.एम. नरेंद्र मोदी गुजरात में सरदार पटेल की विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति स्थापित करने के एक सूत्रीय अभियान में लग गये। यह देश और देशवासियों के छल-कपट और धोखाधडी नहीं तो और क्या है? अब तो जनता का यही फर्ज है कि वह फरेबी नेताओं को बता दे कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढा करती।
दरअसल यह वो दंभी और घमंडी नेता हैं जिन्हें राजनीति में झंडे गाडने के लिए जरा भी मेहनत नहीं करनी पडी। इनके बाप-दादा भी सत्ता के खिलाडी थे। वे भी जमीनी कार्यकर्ताओं का जी भरकर इस्तेमाल किया करते थे और सत्ता का मज़ा लूटा करते थे। ये भी उसी परंपरा को निभा रहे हैं। जब चुनाव की आहट होती है तो चुन-चुन कर कार्यकर्ताओं को काम पर लगाते हैं और जीतने के बाद उनको भूल जाते हैं। यह भी जगजाहिर हकीकत है कि जब टिकट देने की बात आती है तो जी-जान लगा देने वाले कार्यकर्ताओं का पत्ता बडी बेरहमी से काट दिया जाता है और अपने करीबियों की नैय्या पार लगा दी जाती है। वर्षों तक पार्टी और नेताजी के नाम के नारे लगाने और पोस्टर चिपकाने वाले मुंह ताकते रह जाते हैं। एक समय ऐसा भी आता है जब नेताजी ऐसी बुलंदी हासिल कर लेते हैं कि कार्यकर्ताओं के लिए उन तक पहुंच पाना भी बेहद मुश्किल हो जाता है। जब कभी भूले से आमना-सामना हो भी जाता है तो नेताजी मुंह फेर लेते हैं। कार्यकर्ता बेचारा ठगा का ठगा रह जाता है। हिन्दुस्तान के अधिकांश राजनेताओं और राजनीति का यही असली चेहरा है। कभी जमीनी कार्यकर्ताओं के दम पर चुनाव जीतने वालों के गिरगिट की तरह रंग बदलने का सबसे बडा कारण वो धन है जो चुनाव जीतने और सत्ता पाने के बाद भ्रष्टाचार कर बटोरा जाता है। इसी माया ने चुनाव लडने के अंदाज पूरी तरह से बदल डाले हैं। चुनाव आयोग लाख चीखता-चिल्लाता रहे पर धनबल के दम पर चुनाव लडने के आदी हो चुके नेता कभी भी नहीं बदलने और सुधरने वाले। बिकने और खरीदने में इन्होंने महारत हासिल कर ली है। तभी तो कई विद्वान राजनीति को वेश्या की संज्ञा देने से भी नहीं हिचकिचाते।
यह हिन्दुस्तान ही है जहां कोई राजनेता गरीबों को मुफ्त में टीवी देने की घोषणा करता है तो किसी को ऐन चुनाव के मौके पर छात्रों को लैपटॉप देने की सूझती है। मुफ्त में अनाज की खैरात बांटने वाले यह भूल जाते हैं कि वे गरीब देश के साथ कितनी बडी धोखाधडी कर रहे हैं। अच्छे खासे नागरिकों को मुफ्तखोर बनाकर उन मेहनतकशों का घोर अपमान कर रहे हैं जिन्हें अपने खून-पसीने की कमायी की रोटी खाने की चाहत है। अपनी जडें खो चुके राजनेताओं ने यह मान लिया है कि इस देश की जनता को लालच के जाल में फंसाना बेहद आसान है। इसलिए लगभग हर पार्टी अपने चुनावी घोषणा पत्र में देश के सर्वांगीण विकास का मुद्दा तो भूल जाती है और मुफ्त में उपहार बांटने को प्राथमिकता देती है। इस सचाई से भला कोई कैसे इनकार कर सकता है कि मतदाताओं को उपहार देने का लालच देना भी एक तरह से रिश्वत देना ही है। अधिकांश रिश्वतखोर नेता इसी परिपाटी को निभाते हुए चुनाव जीत भी जाते हैं। इस उपलब्धि को पाने के लिए उन्हें वही धन लुटाना पडता है जो उन्होंने भ्रष्टाचार की बदौलत कमाया होता है। चुनाव में धन के पराक्रम के बलवति होते चले जाने के कारण ही समर्पित कार्यकर्ताओं का महत्व घटता चला जा रहा है। देश के संविधान निर्माताओं ने शायद ही कभी कल्पना की होगी कि देश के नेता इतने पतित हो जाएंगे कि वोटरों की ही खरीददारी करने लगेंगे। अब तो सरकारें भी अपना ईमान बेचने लगी हैं। लोकसभा चुनावों के निकट आते ही वर्षों से सोयी मनमोहन सरकार जाग गयी। वोटरों को लुभाने के लिए आनन-फानन में खाद्य सुरक्षा बिल पास कर डाला। यह तय है कि कांग्रेस को गरीबों की चिंता नहीं है। उसकी नजर तो वोट बैंक पर है। देश की गरीब जनता उसके लिए महज वोटर है। भारतीय जनता पार्टी भी कम नहीं है। उसे जब यह लगा कि कांग्रेस मतदाताओं को चारा डालने के मामले में भारी पड रही है तो उसे भी श्रीराम की याद हो आयी। गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के भावी पी.एम. नरेंद्र मोदी गुजरात में सरदार पटेल की विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति स्थापित करने के एक सूत्रीय अभियान में लग गये। यह देश और देशवासियों के छल-कपट और धोखाधडी नहीं तो और क्या है? अब तो जनता का यही फर्ज है कि वह फरेबी नेताओं को बता दे कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढा करती।
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