भारत रत्न लता मंगेशकर। कौन है जो इस नाम से वाकिफ नहीं। अपनी मधुर आवाज़ के जादू से सम्मोहित कर लेने वाली लताजी के प्रशंसको की संख्या का अनुमान लगा पाना बेहद मुश्किल है। वर्षों बीत गये...उनका जादू और सम्मोहन जस का तस है। जिसने भी उनके गाये गीत सुने, वह उनका हमेशा-हमेशा के लिए मुरीद हो गया। स्वर कोकिला लता मंगेशकर राज्यसभा की मनोनीत सदस्य भी रह चुकी हैं। हर दिल अज़ीज़ लता दीदी का कभी भी किन्हीं विवादों से कोई लेना-देना नहीं रहा। अपने संगीत की सृष्टि में मगन रहने वाली इस महानतम हस्ती ने बीते सप्ताह एक कार्यक्रम के दौरान अपनी चाहत उजागर कर दी: 'मेरी ही नहीं पूरे देश की इच्छा है कि नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बनें।' इस देश के संविधान ने हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की है। इसे छीनने और इस पर प्रहार करने का किसी को कोई हक नहीं है। लताजी की इस हार्दिक इच्छा ने कई राजनीतिबाजों के तन-बदन में आग लगा दी। उनकी तल्ख वाणी का एक ही अभिप्राय है कि जानी-मानी हस्तियों को अपनी पसंद जाहिर करने का कोई हक नहीं है। कांग्रेस और उसकी साथी पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस ने तो लताजी को इशारों ही इशारों में यह कह डाला कि आपने नरेंद्र मोदी की तारीफ कर उस पार्टी के साथ अहसान फरामोशी की है जिसने आपको राज्यसभा की मनोनीत सदस्य बना कर सम्मानित किया था।
दरअसल, करोडो-करोडों संगीत प्रेमियों के दिलों पर राज करने वाली लता मंगेशकर तो कला और संगीत की पुजारी हैं। उन्हे अगर राजनीति और राजनेताओं की असली फितरत का पता होता तो वे राज्यसभा की दहलीज पर कदम रखने की सोचती ही नहीं। उन्हें क्या पता था कि उन्हें जीवनभर उन सत्ता के खिलाडियों की शान में कसीदे पढने होंगे जिन्हें वे नापसंद करती हैं। लेकिन सियासत और राजनीति का यही दस्तूर है। जिन्हें राज्यसभा के इनाम से नवाजा जाता है उनसे जीवनभर 'वफादारी' की ही उम्मीद की जाती है। देश की लगभग सभी बडी राजनीतिक पार्टियां उद्योगपतियों, पत्रकारों, लेखकों, अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और स्थापित कलाकारों को राज्यसभा की सदस्यता से नवाजती ही इसलिए हैं कि उनके गुणगान के ढोल बजते रहें। जब से देश आजाद हुआ है तभी से यह परंपरा चली आ रही है। उद्योगपतियों और व्यापारियों के द्वारा राजनीतिक दलों को थैलियां पहुंचाने और फायदा उठाने का चलन तो आम है। पत्रकारों, सम्पादकों आदि...आदि को राज्यसभा की माला पहनाने के पीछे राजनीतिक पार्टियों का बहुत बडा स्वार्थ छिपा होता है। अच्छे खासे विद्धानों और कलमकारों को तोता बनाकर राजनीति की ओछी शाब्दिक जंग में झोंक दिया जाता है। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को तोते पालने का कुछ ज्यादा ही शौक है। मजबूरी भी है। वर्तमान में जहां कांग्रेस के पास विजय दर्डा और राजीव शुक्ला जैसे 'ढोलकीनुमा' राज्यसभा सांसद हैं तो भाजपा के पास बलबीर पुंज, तरुण विजय और चंदन मित्रा जैसों की भरमार रही है, जो अपनी पार्टी की जय-जयकार करते नहीं थकते। लोकमत ग्रुप के कर्ताधर्ता, राज्यसभा सांसद विजय दर्डा ने बीते वर्ष नरेंद्र मोदी की शान में कुछ मधुर तराने गाये थे, जो कांग्रेस को कतई रास नहीं आये थे। खूब हो-हल्ला मचा था। जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करने के आरोप भी इस हवा-हवाई अखबार मालिक पर लगे थे। दर्डा पत्रकार होने के साथ-साथ व्यापारी भी हैं। सौदेबाजी में माहिर हैं। इसलिए बात आयी-गयी हो गयी। यहां अपने पाठक मित्रों को यह याद दिलाना भी जरूरी है कि विश्व विख्यात अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन ने जब मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी के अयोग्य बताया था तो भाजपा के अहसानों तले दबे नामी पत्रकार चंदन मित्रा ने उनसे भारतरत्न वापस लेने की मांग कर दी थी। वैसे यह अच्छी बात है कि कांग्रेस के किसी बडबोले सेवक ने लता मंगेशकर को भारत रत्न लौटाने का फतवा जारी नहीं किया।
पत्रकारिता के कई धुरंधर बडी दूर की सोचकर राजनीति में आते हैं। इन्हें अपने कर्तव्यों और दायित्वों का अच्छा-खासा ज्ञान होता है। यह लोग अपने अखबारों और न्यूज चैनलों में अपनी पार्टी की यशगाथा को ही प्राथमिकता देते हैं। अपने पालनहारों के दाग-धब्बों को धोने की भी इनकी जिम्मेदारी होती है। इसके ऐवज में इन्हें कोयला, पत्थर, रेत, लोहा और तरह-तरह के खनिज पदार्थ खाने-पचाने को मिलते रहते हैं। शादीशुदा अभिनेता धर्मेंद्र से ब्याह रचाने वाली हेमा मालिनी और रेखा जैसी बदनाम नायिकाएं भी राज्यसभा में पहुंचने में कामयाब हो जाती हैं। इनकी एकमात्र योग्यता होती है आकर्षण और भीड जुटाने की क्षमता। इस देश की राजनीतिक पार्टियां विख्यातों के साथ-साथ कुख्यातों को भी भरपूर दाना डालती हैं। दस्यू सुंदरी फूलन देवी और हत्यारे शहाबुदीन जैसों को लोकसभा की चुनावी टिकट देकर अपनी अक्ल के दिवालियापन का सबूत पेश करने वाले दलों के मुखियाओ से जब इस बाबत सवाल किया जाता है तो वे बडी बेशर्मी के साथ कहते हैं कि जिनमें चुनाव जीतने की क्षमता होती है उन्हीं को मैदान में उतारा जाता है।
राजनीति पार्टियों की इसी सोच की वजह से ही खूंखार हत्यारे, डकैत, माफिया और राष्ट्रद्रोही चेहरे भी संसद की गरिमा पर बट्टा लगाते चले आ रहे हैं। देश के किसी भी दल को अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं होती। मीडिया भी जब उन्हें आईना दिखाने की कोशिश करता है तो वे भडक उठते हैं। उस पर प्रतिबंध लगाने की मांग की जाने लगती है। कांग्रेस इन दिनों न्यूज चैनलो से खफा है। अधिकांश न्यूज चैनलों के चुनावी सर्वेक्षण उसकी लुटिया डूबने का दावा कर रहे हैं। इसलिए देश की सबसे पुरानी पार्टी ने ओपिनियन पोल पर पाबंदी लगाने की मांग कर डाली है। भाजपा गदगद है। चुनावी सर्वेक्षण उसके पक्ष में जो हैं। उसने कांग्रेस पर निशाना साधा है कि कांग्रेस मीडिया के काम में दखलअंदाजी कर रही है। एक लोकतांत्रिक देश में ओपिनियन पोल पर पाबंदी लगाना पूरी तरह से नाजायज़ है। वैसे यह भी सच है कि यदि न्यूज चैनल वाले भाजपा को पिटता हुआ बता रहे होते तो उसके भी तेवर बिलकुल वैसे ही होते हैं जैसे कांग्रेस के हैं...। इस देश की हर पार्टी कपटी और ढोंगियों से भरी पडी है जिन्हें आलोचना, विरोध और सच तो किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं होता। इन्हें वो चेहरे तो अपने जन्मजात दुश्मन लगते हैं जो इनके कट्टर और दमदार विरोधियों की तारीफ करने का साहस दिखाते हैं।
दरअसल, करोडो-करोडों संगीत प्रेमियों के दिलों पर राज करने वाली लता मंगेशकर तो कला और संगीत की पुजारी हैं। उन्हे अगर राजनीति और राजनेताओं की असली फितरत का पता होता तो वे राज्यसभा की दहलीज पर कदम रखने की सोचती ही नहीं। उन्हें क्या पता था कि उन्हें जीवनभर उन सत्ता के खिलाडियों की शान में कसीदे पढने होंगे जिन्हें वे नापसंद करती हैं। लेकिन सियासत और राजनीति का यही दस्तूर है। जिन्हें राज्यसभा के इनाम से नवाजा जाता है उनसे जीवनभर 'वफादारी' की ही उम्मीद की जाती है। देश की लगभग सभी बडी राजनीतिक पार्टियां उद्योगपतियों, पत्रकारों, लेखकों, अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और स्थापित कलाकारों को राज्यसभा की सदस्यता से नवाजती ही इसलिए हैं कि उनके गुणगान के ढोल बजते रहें। जब से देश आजाद हुआ है तभी से यह परंपरा चली आ रही है। उद्योगपतियों और व्यापारियों के द्वारा राजनीतिक दलों को थैलियां पहुंचाने और फायदा उठाने का चलन तो आम है। पत्रकारों, सम्पादकों आदि...आदि को राज्यसभा की माला पहनाने के पीछे राजनीतिक पार्टियों का बहुत बडा स्वार्थ छिपा होता है। अच्छे खासे विद्धानों और कलमकारों को तोता बनाकर राजनीति की ओछी शाब्दिक जंग में झोंक दिया जाता है। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को तोते पालने का कुछ ज्यादा ही शौक है। मजबूरी भी है। वर्तमान में जहां कांग्रेस के पास विजय दर्डा और राजीव शुक्ला जैसे 'ढोलकीनुमा' राज्यसभा सांसद हैं तो भाजपा के पास बलबीर पुंज, तरुण विजय और चंदन मित्रा जैसों की भरमार रही है, जो अपनी पार्टी की जय-जयकार करते नहीं थकते। लोकमत ग्रुप के कर्ताधर्ता, राज्यसभा सांसद विजय दर्डा ने बीते वर्ष नरेंद्र मोदी की शान में कुछ मधुर तराने गाये थे, जो कांग्रेस को कतई रास नहीं आये थे। खूब हो-हल्ला मचा था। जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करने के आरोप भी इस हवा-हवाई अखबार मालिक पर लगे थे। दर्डा पत्रकार होने के साथ-साथ व्यापारी भी हैं। सौदेबाजी में माहिर हैं। इसलिए बात आयी-गयी हो गयी। यहां अपने पाठक मित्रों को यह याद दिलाना भी जरूरी है कि विश्व विख्यात अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन ने जब मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी के अयोग्य बताया था तो भाजपा के अहसानों तले दबे नामी पत्रकार चंदन मित्रा ने उनसे भारतरत्न वापस लेने की मांग कर दी थी। वैसे यह अच्छी बात है कि कांग्रेस के किसी बडबोले सेवक ने लता मंगेशकर को भारत रत्न लौटाने का फतवा जारी नहीं किया।
पत्रकारिता के कई धुरंधर बडी दूर की सोचकर राजनीति में आते हैं। इन्हें अपने कर्तव्यों और दायित्वों का अच्छा-खासा ज्ञान होता है। यह लोग अपने अखबारों और न्यूज चैनलों में अपनी पार्टी की यशगाथा को ही प्राथमिकता देते हैं। अपने पालनहारों के दाग-धब्बों को धोने की भी इनकी जिम्मेदारी होती है। इसके ऐवज में इन्हें कोयला, पत्थर, रेत, लोहा और तरह-तरह के खनिज पदार्थ खाने-पचाने को मिलते रहते हैं। शादीशुदा अभिनेता धर्मेंद्र से ब्याह रचाने वाली हेमा मालिनी और रेखा जैसी बदनाम नायिकाएं भी राज्यसभा में पहुंचने में कामयाब हो जाती हैं। इनकी एकमात्र योग्यता होती है आकर्षण और भीड जुटाने की क्षमता। इस देश की राजनीतिक पार्टियां विख्यातों के साथ-साथ कुख्यातों को भी भरपूर दाना डालती हैं। दस्यू सुंदरी फूलन देवी और हत्यारे शहाबुदीन जैसों को लोकसभा की चुनावी टिकट देकर अपनी अक्ल के दिवालियापन का सबूत पेश करने वाले दलों के मुखियाओ से जब इस बाबत सवाल किया जाता है तो वे बडी बेशर्मी के साथ कहते हैं कि जिनमें चुनाव जीतने की क्षमता होती है उन्हीं को मैदान में उतारा जाता है।
राजनीति पार्टियों की इसी सोच की वजह से ही खूंखार हत्यारे, डकैत, माफिया और राष्ट्रद्रोही चेहरे भी संसद की गरिमा पर बट्टा लगाते चले आ रहे हैं। देश के किसी भी दल को अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं होती। मीडिया भी जब उन्हें आईना दिखाने की कोशिश करता है तो वे भडक उठते हैं। उस पर प्रतिबंध लगाने की मांग की जाने लगती है। कांग्रेस इन दिनों न्यूज चैनलो से खफा है। अधिकांश न्यूज चैनलों के चुनावी सर्वेक्षण उसकी लुटिया डूबने का दावा कर रहे हैं। इसलिए देश की सबसे पुरानी पार्टी ने ओपिनियन पोल पर पाबंदी लगाने की मांग कर डाली है। भाजपा गदगद है। चुनावी सर्वेक्षण उसके पक्ष में जो हैं। उसने कांग्रेस पर निशाना साधा है कि कांग्रेस मीडिया के काम में दखलअंदाजी कर रही है। एक लोकतांत्रिक देश में ओपिनियन पोल पर पाबंदी लगाना पूरी तरह से नाजायज़ है। वैसे यह भी सच है कि यदि न्यूज चैनल वाले भाजपा को पिटता हुआ बता रहे होते तो उसके भी तेवर बिलकुल वैसे ही होते हैं जैसे कांग्रेस के हैं...। इस देश की हर पार्टी कपटी और ढोंगियों से भरी पडी है जिन्हें आलोचना, विरोध और सच तो किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं होता। इन्हें वो चेहरे तो अपने जन्मजात दुश्मन लगते हैं जो इनके कट्टर और दमदार विरोधियों की तारीफ करने का साहस दिखाते हैं।
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