Thursday, November 21, 2013

भाई-भतीजावाद की राजनीति

यह अपना देश हिन्दुस्तान ही है, जहां असंतुष्ट और बेचैन आत्माओं की लम्बी कतारें लगी हैं। शोर मचता है, काम होता नहीं। दरअसल देश कई संकटों से जूझ रहा है। चरित्र के चित्र धुंधला गये हैं। आदर्शों का बडा टोटा है। महात्मा गांधी की इस धरा पर ईमानदार और चरित्रवान नेताओं की कमी के चर्चे सरहदें पार कर चुके हैं। युवाओं को दूर-दूर तक ऐसा कोई नेता नजर नहीं आता जिसके पदचिन्हों पर गर्व के साथ चला जा सके। वाकई युवा पीढी असमंजस में है। उसे कुछ सुझता ही नहीं। ऐसे में उन्हें फिल्मी सितारे और क्रिकेटर ही अपने असली नायक प्रतीत होते हैं।
राजनेताओं को यह बात बडी खलती है। उन्हें पहले सी इज्जत मिलनी बंद हो गयी है। जिसे देखो वही दुत्कारने वाली निगाह से देखने लगा है। मीडिया और दूसरे क्षेत्रों के दिग्गजों के भी कुछ ऐसे ही हाल हैं। तहलका के सम्पादक तरुण तेजपाल एक युवती के यौन शोषण के चलते कटघरे में हैं। ऊंची-ऊंची झाडने और इस-उस का स्टिंग आप्रेशन कर खुद को पत्रकारिता का एकमात्र चरित्रवान महारथी बताने वाले तरुण के चेहरे का सारे का सारा चरित्र और 'तेज' गायब हो गया है। यह कोई इकलौता मामला नहीं है। राजनेताओं के साथ गठबंधन कर माल बनाने वाले पत्रकारिता के कई दलाल बेनकाब हो चुके हैं। सबकी कलई खुल चुकी है। फिर भी जहां देखो वहां पुरस्कार पाने, दिलाने और हथियाने की होड मची है। देश और दुनिया के जाने-माने क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर और प्रोफेसर सी.एन.राव को भारतरत्न घोषित करने के बाद देश के इस सर्वोच्च सम्मान पर सियासत करने वालो के झुंड भी नजर आने लगे हैं। किसी ने कहा कि इसके असली हकदार तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी हैं, तो किसी-किसी ने हाकी के जादूगर ध्यानचंद, तो कुछ ने और भी अपने मनचाहे नामों की वकालत कर डाली। जदयू नेता शिवानंद को सचिन को भारतरत्न देने के फैसले ने जैसे आग-बबूला कर दिया। उन्होंने फरमाया कि मेरी समझ में नहीं आ रहा कि ध्यानचंद को नजरअंदाज कर सचिन को भारतरत्न क्यों दिया गया। ध्यानचंद ने जब देश का मान बढाया तब उन्हें खास सुविधाएं नहीं मिलती थीं। सचिन मुफ्त में तो नहीं खेलते। उन्हें खेलने के ऐवज में करोडों रुपये मिलते हैं। नेताजी से कोई यह तो पूछे कि क्या आप लोग फोकट में राजनीति करते हो। क्या आपकी बिरादरी थैलियां नहीं समेटती? इसमें दो मत नहीं हो सकते कि अटल बिहारी वाजपेयी भारतरत्न के बेहद काबिल अधिकारी हैं। उनकी आदर्श छवि ने करोडों देशवासियों का दिल जीता है। वे बेहतरीन प्रधानमंत्री थे। इसके साथ ही वे ऐसे निर्विवाद आदर्श चरित्रधारी हैं जिनसे युवा वर्ग प्रेरणा लेता आया है और लेता रहेगा। इस महापुरुष को तो भारतरत्न के सम्मान से नवाजने में किसी किस्म की राजनीति नही की जानी चाहिए थी। पर अपने देश में तो हर मामले में राजनीति होती है। चरित्रवान और ईमानदार चेहरों की जानबूझकर अनदेखी की जाती है।
दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश में यह जरूरी भी नहीं कि हर राजनेता हर किसी की पहली पसंद हो। फिर भी अटल बिहारी वाजपेयी पर उंगली उठाने वाले कम ही मिलेंगे। जिस उदार मन से उन्होंने राजनीति का सफर तय किया उसका कोई सानी नहीं है। सभी पुरस्कारों पर एक ही परिवार का तो एकाधिकार क्यों है, इस सवाल का जवाब भी देशवासी चाहते हैं।
अटल जी की तरह सचिन ने करोडों लोगों के दिलों में अमिट छाप छोडी है। २४ साल के अपने क्रिकेट करियर में सचिन ने ऐसे-ऐसे कीर्तिमान रचे कि युवा तो युवा देश का हर वर्ग उनका दिवाना हो गया। सचिन की ऐतिहासिक सफलता की कहानी से हर कोई सबक ले सकता है। सफलता के शिखर पर पहुंचने के बाद भी अहंकार उन्हें छू भी नहीं पाया। सचिन ने तारीफों के साथ-साथ आलोचनाओं की बौछारे भी झेलीं। तब भी वे कभी विचलित नहीं हुए। उनका उत्साह और आत्मविश्वास सतत बना रहा। सचिन ने इस तथ्य को और भी पुख्ता कर दिया है कि कडी मेहनत और अटूट लगन की बदौलत कुछ भी हासिल किया जा सकता है। सिर्फ सपने देखने से कुछ हासिल नहीं होता। जो परिश्रम करता है वह अपनी मनचाही मंजिल तक पहुंचता ही है। सचिन तेंदुलकर को उनकी कर्तव्यनिष्ठा, विनम्रता और सौम्यता का जो पुरस्कार मिला है, उससे सबक लेने की जरूरत है न कि आलोचना करने की। जो लोग यह सोचते हैं कि सचिन देश के इस सर्वोच्च सम्मान के काबिल नहीं हैं, उनके बारे में कुछ भी कहना और लिखना व्यर्थ है। सभी को अपनी बात कहने की आजादी है। इस आजादी का मनचाहा दुरुपयोग करने वाले भी ढेरों हैं। इस देश के लोकतंत्र की कमान राजनेताओं के हाथ में है। वही पूरी व्यवस्था चलाते हैं। देश को चलाने वालो की नीयत में अगर खोट नहीं होता तो राम मनोहर लोहिया और अटल बिहारी वाजपेयी को तो कब का भारतरत्न के सम्मान से नवाजा जा चुका होता। दरअसल, राम मनोहर लोहिया को तो खुद समाजवादियों ने ही भूला दिया। उन्होंने लोहिया के सच्चे अनुयायी होने को नगाडा बजाकर सत्ता का तो भरपूर सुख भोगा पर अपने आदर्श (?) को भारतरत्न देने की पुरजोर मांग कभी भी नहीं उठायी। चाहे मुलायम हों, लालू हों या फिर नीतीश, सबके सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। जिस तरह से कांग्रेसियों ने महात्मा गांधी के नाम का सिक्का भुनाया उसी तरह का रास्ता तथाकथित लोहियावादियों ने अपनाया। रहा सवाल हॉकी के जादूगर ध्यानचंद को भारतरत्न देने का तो हमारे यहां क्रिकेटरों को जो सम्मान और नाम मिलता है, हाकी के खिलाडि‍यो को नहीं मिल पाता। क्रिकेटरों को तो भगवान बना दिया गया है और बाकी किसी भी खेल के धुरंधर की कभी कोई परवाह ही नहीं की जाती। यह परिपाटी तभी टूटेगी जब इस देश की आम जनता जागेगी।

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