Thursday, November 28, 2013

भेडीये होंगे बेनकाब

विचारों की आंधी कहीं थमने का नाम नहीं लेती। सोचो तो सोचते ही रह जाओ। आखिर यह क्या हो रहा है? कैसे-कैसे मंजर सामने आ रहे हैं! यह तो सरासर रिश्तो का कत्ल है। हत्यारे कोई और नहीं, अपने ही हैं। अपनी इकलौती बेटी आरुषि की निर्मम हत्या के आरोप में पिता डॉ. राजेश तलवार और मां डॉ. नूपुर को उम्रकैद की सजा सुनाये जाने की खबर सुनते ही देश के लाखों लोग हतप्रभ रह गये। एक पत्नी ने अपने पति का साथ देकर पतिव्रता का तो धर्म निभाया, लेकिन मातृत्व के धर्म को भूल गयी! इस डरावने सच ने न जाने कितने संवेदनशील भारतवासियों को आहत कर डाला। मां-बाप और बच्चों के बीच के रिश्ते में तो अपार मिठास होती है। हर बेटी अपने पिता के बेहद करीब होती है। जन्मदाता का दुलार, प्यार और वात्सल्य उसकी जडों को सींचता, संवारता और संस्कारित करता है। लगता है आरुषि इस मामले में बदकिस्मत थी। उसे भटके और बहके हुए मां-बाप मिले। जिनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था मौजमस्ती... भोग विलास। अपनी बेटी की अच्छी परवरिश के लिए उनके पास वक्त ही नहीं था। उसे सहेलियों, नौकरों और इंटरनेट की अश्लील दुनिया के हवाले कर दिया गया। नौकर ने माता-पिता की कमजोरी भांप ली। नादान १४ वर्षीय आरुषि उसके जाल में फंस गयी। मदहोश मां-बाप को भनक भी नहीं लगी। १५-१६ मई २००८ के रात बारह से एक बजे के बीच जब डॉ. राजेश तलवार ने अचानक अपनी मासूम बेटी को उम्रदराज नौकर हेमराज के साथ हमबिस्तर देखा तो उनका खून खौल उठा। गुस्से से भरे पिता ने पहले तो बेटी और नौकर के सिर पर गोल्फ स्टिक मारी, फिर बाद में सर्जिकल ब्लेड से दोनों का गला काट दिया। यह पूरी मार-काट मां की आंखों के सामने हुई। दोनों ने मिलकर आरुषि के कपडे ठीक किए और सारे सबूत मिटाये। कानून ने पुख्ता सबूतों के आधार पर अपना काम कर दिया है। कई लोग ऐसे हैं जिन्हें यह सज़ा रास नहीं आयी। वे तो यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि कोई मां-बाप अपनी ही बेटी को मौत के घाट उतार सकते हैं। कत्ल तो नौकर का भी हुआ पर उसकी मौत का किसी को कोई मलाल नहीं।
दरअसल यह ऑनर किलिं‍ग है। इज्जत के नाम पर हरियाणा और उत्तरप्रदेश में प्रेमी-प्रेमिकाओं की हत्याओं का बेखौफ होकर इतिहास रचने वालों की राह पर चलते हुए ही आरुषि और हेमराज की हत्या को अंजाम दिया गया। बेटे-बेटियों को जिन्दा जमीन में गाढने और फंदे पर लटकाने के फरमान सुनाने वाली खाफ पंचायतों को एक पढे-लिखे मां-बाप ने भी अपना आदर्श मानने में संकोच नहीं दिखाया। यह सच्चाई हिलाने और रुलाने वाली तो ही है, कई सवाल भी खडे करती है। यह किसी प्रेमी-प्रेमिका का मामला नहीं है। यह तो एक मौकापरस्त नौकर की दगाबाजी की जीती-जागती तस्वीर है। यहां तो बेटी के भटकाव की असली वजह खुद मां-बाप ही हैं जिन्होंने बेटी को जन्म तो दिया, पर उसकी देखभाल नहीं कर पाये। अपनी बेटी को विश्वासघाती नौकर के साथ आपत्तिजनक हालत में देखकर उन्होंने आपा खो दिया। यकीनन नशे में रहे होंगे। होश में होते तो बेटी को समझाते। नौकर को सजा देने के लिए कानून का सहारा लेते। एकाएक आवेश में आकर ऐसे दोहरे हत्याकांड को अंजाम न देते जो आत्मीय रिश्तों को शर्मसार कर उनके परखचे ही उडा देता। हेमराज तो एक अनपढ, अहसानफरामोश नौकर था जिसने अपने मालिक से दगाबाजी की। तहलका के सम्पादक तरुण तेजपाल ने एक नामी शख्सियत होते हुए भी जो कुकर्म किया है क्या वह किसी भी तरह के बचाव और माफी के लायक है? इसमें कोई शक नहीं कि तरुण तेजपाल खोजी पत्रकारिता के नायक रहे हैं। उन्होंने अपने खुफिया कैमरो से कई नेताओं, खिलाडि‍यों और सत्ता के दलालों को बेनकाब किया। उनकी उपलब्धियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इन उपलब्धियों के ऐवज में उन्हें दुराचार करने की खुली छूट तो नहीं दी जा सकती। शराबी पत्रकार-सम्पादक ने अपनी सहयोगी पत्रकार की आबरू लूटने का जो घोर दुष्कर्म किया है उससे उनकी सारी की सारी महानता गर्त में समा गयी है। वे किसी को मुंह दिखाने लायक भी नहीं बचे हैं। सौदेबाज सम्पादक तेजपाल ने जिस युवती का यौन उत्पीडन किया वह उनके मित्र की बेटी है और उनकी बेटी की परम सहेली है। यानी यहां भी रिश्ते का कत्ल और घोर विश्वासघात! जिसकी सुरक्षा की जानी चाहिए थी, तेजपाल उसी की अस्मत लूटने पर उतारू हो गये। एक काबिल सम्पादक का यह कैसा व्याभिचारी रूप है? कहीं ऐसा तो नहीं कि इधर-उधर मुंह मारना इस लम्पट की फितरत है। पत्रकारिता का तो महज उसने नकाब ओढ रखा था, जिसकी बदौलत उसने उत्तरप्रदेश के कुख्यात कारोबारी पोंटी चड्डा जैसों के साथ विभिन्न धंधो में साझेदारी की और अरबों की माया जमायी। उसकी बेटी ने भी स्वीकार किया है उसने अपने पिता को तब किसी नवयौवना के साथ रंगरेलियां मनाते देखा था जब वह मात्र तेरह साल की थी। अपनी ही बेटी के सामने बेनकाब हो चुके तेजपाल प्रगतिशील पत्रकार कहलाते हैं। उनकी लीक और सीख पर चलने वालों की भी खासी तादाद है। अपनी बेटी की उम्र की लडकी को अपनी अंधी वासना का शिकार बनाने वाले खोजी सम्पादक की हर तरफ थू...थू हो रही है। ऐसे में कवि मुकेश कुमार मिश्र की कविता काबिलेगौर है:
कि इस शहर का
एक भेडि‍या प्रायश्चित कर रहा है...
कुछ लोग उसके साहस की
प्रशंसा कर रहे हैं...
कुछ लोग इन्टर्नल
बताकर मामले को दबा रहे हैं
कुछ लोग सेकुलर ढंग से
इस मुद्दे को सुलझा रहे हैं...
क्यों????
क्योंकि भेडि‍या 'लाल' है
क्यों????
क्योंकि भेडि‍या भेदिये का काम कर
'किसी को' तख्त दिलायेगा...
लेकिन भेडि‍या
लाल भेडि‍या
खूनी दरिंदा भेडि‍या
नहीं जानता कि
अब भेडि‍ये भीड में भी पहचाने जाएंगे
अपनी मांद से बाहर निकाले जायेंगे
कि भेडि‍या नहीं जानता कि
अपनी खाल बचाने के लिए जिस 'खोल'
को उसने ओढ रखा है...
अब जनता चुन-चुन कर
उन एक-एक धागों को तार-तार करेगी
अब इन लाल भेडि‍यों को बेनकाब करेगी...।

No comments:

Post a Comment