अपने देश में आम आदमी को रोजी-रोटी के जुगाड में अपनी सारी उम्र खपा देनी पडती है। जहां दो वक्त की रोटी दुश्वार हो वहां बीमार होने पर अस्पतालों के खर्चे उठा पाना आसमान के तारे तोडने वाली बात है। सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। प्रायवेट अस्पतालों ने तो भव्य होटलों को भी पीछे छोड दिया है। यहां के हाई-फाई डाक्टरों की फीस को चुकाने में मध्यम वर्ग के भी पसीने छूट जाते हैं। ऐसे में गरीब तो वहां पांव धरने की भी नहीं सोच सकते। किसी भी सरकार ने कभी गरीबों की चिंता नहीं की। उनकी बीमारियों और मौतों को सदैव अनदेखी की गयी। गरीब तो गरीब हैं। तरह-तरह की बीमारियां और दुर्घटनाएं उन्हें जब-तब दबोच लेती हैं। ऊंची कीमतों के कारण दवाइयां उनकी पहुंच से दूर रहती हैं। दवा विक्रेताओं की अपनी कमायी से मतलब है। मनमाने दाम वसूलने में उन्हें कोई शर्म नहीं आती। ऐसे में बेचारे गरीब जाएं तो जाएं कहां? न बीमारियां उन पर रहम करती हैं और न सरकारें और राजनेता। हां, फिर भी नेताओं को बीमारों की कभी-कभार याद आ जाती है।
स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और अपने जन्मदिन पर कई नेता बडे ताम-झाम के साथ अस्पतालों में अपने चेले-चपाटों के साथ मरीजों से मिलने के लिए पहुंच जाते हैं। अपने इस अभियान में वे पत्रकारों को भी अपने साथ ले जाना नहीं भूलते। उनके हाथ में पांच-सात सौ के फल और मिठाइयां होती हैं जिन्हें वे मुस्कराते हुए मरणासन्न मरीजों को वितरित करते हैं। उनकी इस सहृदयता और दानवीरता की तस्वीरें न्यूज चैनलों और अखबारों की शोभा बढाती हैं। नेताजी चंद रुपये खर्च कर लाखों की प्रसिद्धि बटोर लेते हैं। ऐसे खोखले और मायावी दौर में यदि किसी शख्स ने जरूरतमंदों को मुफ्त में दवाइयां और अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने का अभियान चला रखा हो तो उसे आप क्या कहेंगे?
बीते सप्ताह इस कलमकार की एक ऐसे इंसान से मुलाकात हुई जो मानवता और इंसानियत की जीती-जागती मिसाल है। उसमें नेताओं और तथाकथित समाज सेवकों वाला कोई भी अवगुण नहीं है। दीन-दुखियों के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर कर देने वाले इस मानव को नाम कमाने की बीमारी भी नहीं है। लोग उन्हें 'मेडिसन बाबा' के नाम से जानते हैं। नारंगी रंग का कुर्ता-पायजामा उनकी खास पहचान में शामिल है। खुद का परिचय देते समय अक्सर वे यह कहने और बताने में भी संकोच नहीं करते कि वे तो सडक छाप भिखारी हैं। यह भिखारी रुपया-पैसा नहीं मांगता। दूसरों के जख्मों पर मरहम लगाने और बीमारों को चंगा करने के लिए घर-घर जाकर दवाइयां मांगने वाले इस इंसान को जरूरतमंदों की मदद करने में जो सुकून मिलता है उसे किसी परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता। नारंगी कुर्ते पर सफेद लिखावट चमकती रहती है। 'चलता-फिरता मेडिसिन बैंक... मुफ्त दवाइयों के लिए सम्पर्क करें...०९२५०२४०९०८।' दिल्ली जैसे महानगर में जहां करीबी रिश्तों का कोई अता-पता नहीं है, वहां ऐसे परोपकारी का मिलना विस्मित कर गया। दोनों पैरों से अपंग इस शख्स को अक्सर इस चिंता से रूबरू होना पडता था कि कई गरीब और बेसहारा लोगों को दवाइयों के अभाव में बेमौत मर जाना पडता है। धन के अभाव में कई बार अपने भी साथ छोड देते हैं। जब उन्हें दो वक्त की रोटी ही नसीब नहीं हो पाती तो महंगी दवाइयां खरीदना तो उनके लिए संभव ही नहीं हो सकता। उन्हें इस हकीकत का भी पता था कि कई लोगों के घरों में दवाइयों का अंबार लगा रहता है। जब उन्हें यह बेकाम की लगती हैं तो वे उन्हें कूडे-कचरे के हवाले कर देते हैं। उन्हें यह पता ही नहीं होता कि यही दवाइयां कई असहाय जरूरतमंदों के लिए संजीवनी साबित हो सकती हैं।
मेडिसन बाबा रोज सुबह अपने घर से निकलते हैं। घर-घर जाकर दवाइयां मांगते हैं। यह सिलसिला वर्षों से चल रहा है। शुरु-शुरु में लोग उनका मजाक उडाते थे। अब उनका साथ देने लगे हैं। कई सच्चे समाजसेवक और मानवता प्रेमी लोग भी उनके इस अभियान में शामिल हो गये हैं। वे उनकी सहायता करते हैं और दवाओं के साथ-साथ इलाज में काम आने वाले विभिन्न साधन-सामान उपलब्ध कराते हैं। इस फरिश्ते के घर के कमरों में दान की दवाएं, हास्पिटल बेड, सिलेंडर, वाकिंग स्टिक, व्हील चेअर, रजाई, कम्बल जैसी तमाम चीजें भरी पडी हैं। जिन्हें भी सहायता की जरूरत होती है वे बेझिझक उन तक पहुंच जाते हैं। यदि कोई उनसे फोन पर सम्पर्क करता है तो उसकी समस्या का भी फौरन समाधान कर दिया जाता है। मेडिसन बाबा कहते हैं कि मेरा एक ही सपना है कि इस देश में दवाओं के अभाव में किसी गरीब को मौत के मुंह में न समाना पडे। मैं गरीबों और असहायों के लिए एक मेडिसन बैंक की स्थापना करना चाहता हूं जहां से जरूरतमंदों को मुफ्त में इलाज की तमाम सुविधाएं उपलब्ध हो सकें। राजधानी के लोग मेडिसन बाबा को पहचानने लगे हैं। मेडिसन बाबा खुद अस्पतालों में जाते हैं और जरूरतमंदों का पता लगाकर उनकी सहायता करते हैं। इस काम में वे डाक्टरों की भी सहायता लेते हैं, ताकि किसी मरीज को गलत दवाई का शिकार न होना पडे। मदर टेरेसा को अपना आदर्श मानने वाले मेडिसन बाबा की कीर्ति विदेशों तक जा पहुंची है। दीन-दुखियों से सहानुभूति रखने वाले कई विदेशी भी उनसे खासे प्रभावित हैं। वे भी उन्हें निरंतर दवाएं भेजते रहते हैं। उनका हालचाल भी पूछते रहते हैं। दिल्ली के कई पढे-लिखे युवक-युवतियों को भी उनकी सहायता कर आत्मिक संतुष्टि मिलती है। यकीनन, कारवां ऐसे ही बनता है। पहल करने वाला चाहिए।
स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और अपने जन्मदिन पर कई नेता बडे ताम-झाम के साथ अस्पतालों में अपने चेले-चपाटों के साथ मरीजों से मिलने के लिए पहुंच जाते हैं। अपने इस अभियान में वे पत्रकारों को भी अपने साथ ले जाना नहीं भूलते। उनके हाथ में पांच-सात सौ के फल और मिठाइयां होती हैं जिन्हें वे मुस्कराते हुए मरणासन्न मरीजों को वितरित करते हैं। उनकी इस सहृदयता और दानवीरता की तस्वीरें न्यूज चैनलों और अखबारों की शोभा बढाती हैं। नेताजी चंद रुपये खर्च कर लाखों की प्रसिद्धि बटोर लेते हैं। ऐसे खोखले और मायावी दौर में यदि किसी शख्स ने जरूरतमंदों को मुफ्त में दवाइयां और अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने का अभियान चला रखा हो तो उसे आप क्या कहेंगे?
बीते सप्ताह इस कलमकार की एक ऐसे इंसान से मुलाकात हुई जो मानवता और इंसानियत की जीती-जागती मिसाल है। उसमें नेताओं और तथाकथित समाज सेवकों वाला कोई भी अवगुण नहीं है। दीन-दुखियों के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर कर देने वाले इस मानव को नाम कमाने की बीमारी भी नहीं है। लोग उन्हें 'मेडिसन बाबा' के नाम से जानते हैं। नारंगी रंग का कुर्ता-पायजामा उनकी खास पहचान में शामिल है। खुद का परिचय देते समय अक्सर वे यह कहने और बताने में भी संकोच नहीं करते कि वे तो सडक छाप भिखारी हैं। यह भिखारी रुपया-पैसा नहीं मांगता। दूसरों के जख्मों पर मरहम लगाने और बीमारों को चंगा करने के लिए घर-घर जाकर दवाइयां मांगने वाले इस इंसान को जरूरतमंदों की मदद करने में जो सुकून मिलता है उसे किसी परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता। नारंगी कुर्ते पर सफेद लिखावट चमकती रहती है। 'चलता-फिरता मेडिसिन बैंक... मुफ्त दवाइयों के लिए सम्पर्क करें...०९२५०२४०९०८।' दिल्ली जैसे महानगर में जहां करीबी रिश्तों का कोई अता-पता नहीं है, वहां ऐसे परोपकारी का मिलना विस्मित कर गया। दोनों पैरों से अपंग इस शख्स को अक्सर इस चिंता से रूबरू होना पडता था कि कई गरीब और बेसहारा लोगों को दवाइयों के अभाव में बेमौत मर जाना पडता है। धन के अभाव में कई बार अपने भी साथ छोड देते हैं। जब उन्हें दो वक्त की रोटी ही नसीब नहीं हो पाती तो महंगी दवाइयां खरीदना तो उनके लिए संभव ही नहीं हो सकता। उन्हें इस हकीकत का भी पता था कि कई लोगों के घरों में दवाइयों का अंबार लगा रहता है। जब उन्हें यह बेकाम की लगती हैं तो वे उन्हें कूडे-कचरे के हवाले कर देते हैं। उन्हें यह पता ही नहीं होता कि यही दवाइयां कई असहाय जरूरतमंदों के लिए संजीवनी साबित हो सकती हैं।
मेडिसन बाबा रोज सुबह अपने घर से निकलते हैं। घर-घर जाकर दवाइयां मांगते हैं। यह सिलसिला वर्षों से चल रहा है। शुरु-शुरु में लोग उनका मजाक उडाते थे। अब उनका साथ देने लगे हैं। कई सच्चे समाजसेवक और मानवता प्रेमी लोग भी उनके इस अभियान में शामिल हो गये हैं। वे उनकी सहायता करते हैं और दवाओं के साथ-साथ इलाज में काम आने वाले विभिन्न साधन-सामान उपलब्ध कराते हैं। इस फरिश्ते के घर के कमरों में दान की दवाएं, हास्पिटल बेड, सिलेंडर, वाकिंग स्टिक, व्हील चेअर, रजाई, कम्बल जैसी तमाम चीजें भरी पडी हैं। जिन्हें भी सहायता की जरूरत होती है वे बेझिझक उन तक पहुंच जाते हैं। यदि कोई उनसे फोन पर सम्पर्क करता है तो उसकी समस्या का भी फौरन समाधान कर दिया जाता है। मेडिसन बाबा कहते हैं कि मेरा एक ही सपना है कि इस देश में दवाओं के अभाव में किसी गरीब को मौत के मुंह में न समाना पडे। मैं गरीबों और असहायों के लिए एक मेडिसन बैंक की स्थापना करना चाहता हूं जहां से जरूरतमंदों को मुफ्त में इलाज की तमाम सुविधाएं उपलब्ध हो सकें। राजधानी के लोग मेडिसन बाबा को पहचानने लगे हैं। मेडिसन बाबा खुद अस्पतालों में जाते हैं और जरूरतमंदों का पता लगाकर उनकी सहायता करते हैं। इस काम में वे डाक्टरों की भी सहायता लेते हैं, ताकि किसी मरीज को गलत दवाई का शिकार न होना पडे। मदर टेरेसा को अपना आदर्श मानने वाले मेडिसन बाबा की कीर्ति विदेशों तक जा पहुंची है। दीन-दुखियों से सहानुभूति रखने वाले कई विदेशी भी उनसे खासे प्रभावित हैं। वे भी उन्हें निरंतर दवाएं भेजते रहते हैं। उनका हालचाल भी पूछते रहते हैं। दिल्ली के कई पढे-लिखे युवक-युवतियों को भी उनकी सहायता कर आत्मिक संतुष्टि मिलती है। यकीनन, कारवां ऐसे ही बनता है। पहल करने वाला चाहिए।
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