Friday, April 4, 2014

मतदाता... चूक मत जाना

मीडिया हो या भीड। बस एक ही चर्चा है। किसकी सरकार बनेगी? कुछ लोग राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने का सपना पाले हैं तो कइयों को अब तो नरेंद्र मोदी ही पीएम की कुर्सी के असली हकदार नजर आते हैं। इन दो नामों के शोर से परेशान जिन लोगों ने अपना माथा पकड लिया है उन्हें नजरअंदाज किया जा रहा है। देश का टूटा-फूटा कमजोर आदमी इस तमाशे को देखकर स्तब्ध है। ऐसे-ऐसे नेता उसके जर्जर-बिखरे घर के चक्कर काट रहे हैं जिन्हे वह जानता तक नहीं। दरअसल यह तमाशा तो हर चुनावी मौसम में होता है। हिन्दु, मुसलमान, दलित-शोषित, पिछडों गरीबों को खुशहाल बनाने के तराने गाये जाते हैं। आम आदमी ऐसे नारों और तमाशों का अभ्यस्त हो गया है। बेरोजगारी, बेबसी और भुखमरी से ग्रस्त इस आदमी की आज भी अपनी एक अलग अंधेरी दुनिया है, जिसे अगर सच्चे नेता देख लें तो शर्म के मारे आत्महत्या करने को विवश हो जाएं। इस दमघोटू दुनिया में तभी झांका जाता है जब चुनाव आते हैं। झांकने और देखने में बहुत फर्क होता है जैसे अमीरी और गरीबी में। खुशहाली और बरबादी में। अंधेरे और उजाले में। अपनी पूरी जिन्दगी रोजी-रोटी के चक्कर में गंवा देने वाले आम आदमी को पता है कि अगर वह खून पसीना नहीं बहायेगा तो उसे और उसके परिवार को भूखे पेट ही रहना पडेगा। ऐसे बदकिस्मतों की संख्या इस देश में करोडों में है। जिनके पास न घर है और न ही स्थायी रोजी-रोटी के अवसर। फिर भी चुनाव इन्ही के नाम पर लडे जाते हैं। अधिकांश सरकारी योजनाएं भी इन्हीं के लिए बनायी जाती हैं। फिर भी इनके हालात नहीं बदल पाते। साफ-साफ नजर आता है। एक देश गरीबों का है तो दूसरा अमीरों का। अमीर भी ऐसे-ऐसे कि जो चाहें वो कर डालें। उन्हें कोई रोकने-टोकने वाला नहीं। इन्ही के इशारों पर सरकारें बनती, टूटती और बिखरती हैं। न जाने कितने नेता इनकी चौखट पर अपना माथा रगडते हैं और क्या से क्या हो जाते हैं। दरअसल यह रीत बडी पुरानी है। विरले ही इस लीक से हटने की कोशिश करते हैं। इस बार का चुनावी महासमर भी पुराने और नयों योद्धाओं से भरा पडा है। अधिकांश नयों ने भी पुरानों से दीक्षा-शिक्षा ली हुई है। देश के चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव की खर्च सीमा ७५ लाख रुपये तय की है। इस लेखक का दावा है कि कई प्रत्याशी ऐसे हैं जिनके लिए पचास करोड भी कम पडने वाले हैं। सौ करोड से ऊपर उडाने वालों की भी अच्छी खासी तादाद है।  चुनाव प्रचार का श्रीगणेश करते ही इन्होंने अपने काले-सफेद धन की बरसात करने में देरी नहीं लगायी। इन्हें पता है कि इनके 'आदर्श' कैसे चुनाव जीतते आये हैं। इन्हें यह भी यकीन है कि उनका अनुसरण अंतत: फायदे का सौदा साबित होगा।
यह लोग वोटरों का शिकार करने से बाज नहीं आने वाले। मतदान से पूर्व की रात इनके समर्थक और चेले चपाटे गली-गली और घर-घर जाने को कटिबद्ध हैं। उनके पास कंबलों, साडि‍यों, नोटों के बंडलों और दारू की बोतलों के साथ वो सब सामान होगा जिनसे गरीब मतदाताओं को लुभाया और फंसाया जा सके। यानी हर बार की तरह इस बार भी जाल फेंका जाएगा। अब बिकना या न बिकना मतदाताओं के हाथ में है। देश में १० अप्रैल से लोकसभा चुनाव के मतदान की शुरूआत होने जा रही है। राजनीति के चोले में सजे धनपशुओं को अपने धनबल पर यकीन है। उनके इस भ्रम को तोडने का वक्त आ गया है। मतदाता ही परिवर्तन की मशाल जला सकते हैं। किसी भी मतदाता को यह नहीं भूलना चाहिए कि बाहुबल और धनबल ने लोकतंत्र को बीमार करके रख दिया है। लोकसभा में कई अपराधियों की तूती बोलती है। जिन्हें जेल में होना चाहिए वही सांसद बनते चले आ रहे हैं। इसलिए इस बार जैसा मौका फिर हाथ नहीं आने वाला। इस बार भी अगर दागी जीत गये तो यकीनन देश हार जाएगा। लोकतंत्र का कहीं अता-पता ही नहीं चलेगा। जातपात, धर्म संप्रदाय और क्षेत्रवाद की सोच से बहुत ऊपर उठकर किया जाने वाला मतदान ही बरबादी के कगार पर खडे हिं‍दुस्तान को बचा सकता है। इस बार की चूक के बाद मतदाता शिकवे और शिकायतें करने लायक भी नहीं बचेंगे। ऐसा कई बार हो चुका है कि मायावी भुलावे में आकर मतदाता जिन्हें लोकसभा में भेजते हैं वे कसौटी पर कतई खरे नहीं उतरते। उनके भारी-भरकम भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और रिश्वतों के किस्से मीडिया की सुर्खियां बनते रहते हैं। बेचारे मतदाता खुद को कोसने के सिवाय और कुछ नहीं कर पाते। इस बार यह नौबत न आए... इसलिए उन्हें वोट देने की कतई भूल न करें जिनके इर्द-गिर्द भूमाफिया, खनिज माफिया, दारू माफिया, कुख्यात बिल्डर, सरकारी ठेकेदार, चाटूकार अखबारीलाल और चालबाज छुटभइये नेताओं का जमावडा लगा रहता हो। ऐसे प्रत्याशी आमजन के हित की कभी सोच ही नहीं सकते। चुनाव जीतने के बाद इन्हें मतदाताओं की कभी कोई सुध ही नहीं आने वाली। दरअसल इन्हें अपनी चांडाल चौकडी से ही फुर्सत ही नहीं मिल पायेगी। इसलिए अपना सांसद, अपना रहनुमा उसे चुने जिसके पास मतदाताओं के लिए समय ही समय हो। अभद्र व्यवहार करने और व्यापारिक सोच रखने वाले को अपना वोट देने की भूल और नादानी देश को ले डूबेगी।

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