Thursday, June 12, 2014

नाम की कमायी

धार्मिक नगरी मथुरा की सांसद बन गयी हैं फिल्म अभिनेत्री हेमा मालिनी। लम्बे इंतजार के बाद स्वप्न सुंदरी ने यह तोहफा पाया है। वर्षों से विभिन्न चुनावी मंचों पर फिल्मी डायलागबाजी कर भाजपा की सेवा करती चली आ रही हैं। आम जनता से उनका कभी कोई वास्ता नहीं रहा। भीड में दम घुटने लगता है। मथुरा में खुद के चुनाव प्रचार के दौरान कई बार भारी भीड को देखकर असहज हो जाती थीं। किसी की हलकी-सी छुअन से उनके तन-बदन में अंगारे लग जाते थे। पार्टी कार्यकर्ताओं से भी दूरी बनाये रखती थीं। चंद लोग ही उनसे मिल पाते थे। यह तो अभिनेत्री की किस्मत अच्छी थी कि मोदी लहर के बहाव में उनकी नैय्या भी पार हो गयी। सांसद बनने से पहले तक तो दूर से झलक दिखाने और कातिलाना अंदाज से मुस्कराने और हाथ हिलाने से काम चल जाता था। अब हालात बदल गये हैं। ऊंट पहाड के नीचे आ चुका है। जमीनी हकीकत से टकराने की तकलीफ और विवशता उनके चेहरे के हावभाव से बयां हो जाती है। पर सवाल यह है कि उन लोगों का क्या कसूर है जिन्होंने हमेशा हवा में उडने वाली फिल्मी नारी को लोकसभा पहुंचाया है? हुआ यूं कि सांसद बनने के बाद पहली बार जब अभिनेत्री अपने निर्वाचन क्षेत्र मथुरा पहुंची तो उन्हें अपनी समस्याओं से रूबरू करवाने वालों की भीड लग गयी। शहर के एक होटल में जनता दरबार लगाया गया था। हर मिलनेवाले की अपनी समस्या थी। यानी समस्याओं का अंबार था। सभी उनसे सीधे संवाद करना चाहते थे। भीषण गर्मी के बावजूद लोग यमुना प्रदूषण, पेयजल, गंदगी, शिक्षा, बेरोजगारी, सडक आदि की तमाम समस्याओं को लेकर हेमा मालिनी के समक्ष डट गये। वातानुकूलित कमरों में रहने वाली नायिका के तो जैसे होश ही उड गये। माथा चकरा गया। आखिर कैसे निपटा पाएंगी इतनी ढेर सारी समस्याओं को? उन्होंने तो कभी इस पर चिंतन-मनन ही नहीं किया था। देश में इतनी बदहाली है इसकी तो उन्हें कल्पना ही नहीं थीं। उनका तो सारा जीवन तमाम सुख-सुविधाओं के बीच बीता है। दुनिया की कोई खुशी ऐसी नहीं जो उनके हिस्से में न आयी हो। फिल्मों में सज-धज कर रटे-रटाये संवादों के साथ अभिनय कर छुट्टी पा लेने वाली अभिनेत्री को यकीनन यथार्थ ने उस जमीन पर ला पटका है जिससे उन्होंने लम्बी दूरी बना रखी थी। हेमा के पति परमेश्वर को भी ऐसे ही सांसद बनने का सौभाग्य हासिल हुआ था। देश का विख्यात फिल्मी चेहरा होने के कारण भाजपा ने उन्हें लोकसभा की टिकट उपहार में दी थी और खुशकिस्मती से धर्मेंद्र भी चुनाव जीत गये थे। पंजाब के जिस शहर के वे सांसद बने थे वहां के लोगों को उनसे ढेरों उम्मीदें थीं। अक्सर यह देखा गया है कि लोकप्रियता के चलते फिल्मी लोग चुनाव तो जीत जाते हैं पर जब पसीना बहाने की बारी आती है तो उन्हें नानी याद आ जाती है। धर्मेंद्र को उनके प्रशंसकों ने सांसद तो बना डाला, लेकिन वे पूरे पांच साल तक वोटरों से दूरी बनाये रहे। यदा-कदा अपने चुनाव क्षेत्र में जाते पर भीषण गर्मी, सर्दी और बरसात के थपेडों को न सह पाने के कारण अपने वातानुकूलित होटल के कमरे से बाहर निकलने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते थे। अब उनकी धर्मपत्नी मैदान में उतरी हैं और उनके शुरूआती रंग-ढंग तो यही बता रहे हैं कि वे मन ही मन उस घडी को कोस रही होंगी जब उन्होंने लोकसभा चुनाव लडने का फैसला किया था। इससे तो राज्यसभा ही अच्छी थी। बिना मेहनत के मजे ही मजे।
झारखंड के लोहरदगा से लोकसभा चुनाव जीतने वाले सुदर्शन भगत के बारे में भी जानना जरूरी है। आदिवासी समुदाय के जमीनी नेता सुदर्शन भगत को तो भाजपा के प्रदेश के नेता टिकट देने के ही पक्ष में नहीं थे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दबाव के चलते उन्हें टिकट दी गयी।  आम जनता की हर तकलीफ से वाकिफ सादगी पसंद सुदर्शन भगत को विजयश्री हासिल करने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पडी। चुनाव जीतने के बाद जब दुसरे सांसद दिल्ली में मेल-मुलाकात कर मंत्री पद की जुगाड में लगे थे तब सुदर्शन अपने दुर्गम निर्वाचनक्षेत्र की जनता की समस्याओं को सुन रहे थे। दिल्ली में उन्हें मंत्री बनाने की घोषणा कर दी गयी थी, लेकिन वे इस बात से पूरी तरह से अंजान थे कि उन्हें नरेंद्र मोदी की सरकार में मंत्री पद से सुशोभित किया जाने वाला है। मंत्री पद की शपथ लेने का समाचार देने के लिए उनसे संपर्क करने की कोशिशें की गयी। लेकिन उनसे संपर्क ही नहीं हो पा रहा था। किसी तरह से उन तक संदेश पहुंचाया गया। जब वे दिल्ली पहुंचे तो उनके पास शपथ लेने लायक कपडे ही नहीं थे। नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद उन्हें खादी ग्रामोद्योग की दुकान ले जाया गया। उनके लिए कपडे खरीदे गये जिन्हें पहनकर उन्होंने शपथ ली। एक तरफ सुदर्शन भगत हैं तो दूसरी तरफ हैं नामी-गिरामी अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा। शत्रुघ्न सिन्हा बिहार की पटना साहिब से लोकसभा का चुनाव लडकर दूसरी बार सांसद बने हैं। वे भी किस्मत के धनी हैं। फिल्मो के जरिए पायी लोकप्रियता और नाम को उन्होंने खूब भुनाया है। उनका भी जन समस्याओं से कभी कोई करीबी नाता नहीं रहा। भाषणबाजी में खासे माहिर हैं। वे तो नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने के लायक ही नहीं समझते थे। जब-तब उन्हें लालकृष्ण आडवाणी के नाम की माला जपते देखा गया। लोकसभा चुनाव जीतने के बाद शत्रुघ्न सिन्हा को खुद के मंत्री बनने का इतना यकीन था कि उन्होंने तो शपथ ग्रहण के लिए शानदार महंगी शेरवानी भी सिलवा ली थी। लेकिन बिहारी बाबू का मंत्री बनने का सपना ही धरा का धरा रह गया। दरअसल, अधिकांश फिल्मी चेहरों को जब फिल्मों में काम मिलना बंद या कम हो जाता है तो वे अपनी लोकप्रियता को भुनाने के लिए राजनीति में आ जाते हैं। राजनीतिक पार्टियां भी उनका भरपूर स्वागत करती हैं। उन्हें पता होता है कि जनता इन्हें हाथों-हाथ लेगी। प्रसिद्धि चाहे अच्छे कर्मों की बदौलत हो या फिर बुरे कामों के चलते... काम आ ही जाती है। नाम कमाने के भी कई तरीके हैं। हमारे इस अजब-गजब देश में नाम का दाम मिल ही जाता है। तभी तो बाहुबली हत्यारे शहाबुद्दीन और दस्यु सुंदरी फूलन देवी जैसे कुख्यातों को भी लोकसभा में अपना रूतबा दिखाने के लिए चुनावी जीत नसीब हो जाती है।

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