Thursday, June 5, 2014

राष्ट्र, राजनीति, समाज और राष्ट्र पत्रिका

पत्रकारिता का अर्थ चारण बनना नहीं, बल्कि व्यवस्था की सही तस्वीर दिखाना है। अखबार अपने समय के सच का दस्तावेज होते हैं। कल भी यही सच था और आज भी... कि कलम की ताकत बंदूकों, तोपों और तलवारों पर भारी पडती है। हमारे आज के समय का सच बडा कडवा है। भयावह भी। इस सच से मुंह नहीं मोडा जा सकता। यह संपादकीय लिखते समय मुझे उदय प्रताप सिंह की गजल की यह पंक्तियां याद आ रही हैं। हालांकि इस गजल को मैंने सन २०१० में किसी पत्रिका में पडा था और यह पंक्तियां सतत मेरे साथ बनी रहीं, क्योंकि देश के हालात लगभग जस के तस हैं। अपराधी कानून से भय नहीं खाते। कहीं-कहीं तो कानून के रखवाले ही दबंगों और धनपशुओं की चौखट पर नतमस्तक नजर आते हैं।
"ये रोज कोई पूछता है मेरे कान में
हिंदोस्ता कहां है अब हिन्दोस्तान में
इन बादलों की आंख में पानी नहीं रहा
तन बेचती है भूख एक मुट्ठी धान में"
भारतवासियों की सहनशीलता का कहीं कोई सानी नहीं। धोखे पर धोखे खाने के बाद भी इस राष्ट्र के लोगों के चेहरों पर शिकन नहीं आती। आशा और उम्मीद का सूरज कभी नहीं डूबता। आने वाले अच्छे कल के इंतजार में पूरी की पूरी उम्र खपा दी जाती है। सपने दिखाने और आश्वासन बांटने वाले हुक्मरानों ने जितना राष्ट्रवासियों को छला है उतना शायद ही किसी और ने। राष्ट्र का प्रदेश उत्तर प्रदेश। इस प्रदेश को शातिर राजनेताओं ने राजनीति की निर्मम प्रयोगशाला बना कर रख दिया है। वैसे ऐसे ही कुछ हाल दूसरे प्रदेशों के भी हैं। मुलायम सिंह यादव जिन्होंने समाजवाद की परिभाषा ही बदल दी है, उन्हीं के लाडले अखिलेश सिंह यादव ने प्रदेशवासियों से फरियाद की थी कि एक बार उन्हें यूपी की सेवा करने का अवसर दिया जाए। वे प्रदेश की तस्वीर ही बदल कर रख देंगे। लोगों ने उन पर भरोसा किया। अभूतपूर्व जनादेश देकर राष्ट्र के विशाल प्रदेश का यह सोचकर मुख्यमंत्री बनाया कि यह मासूम-सा दिखने वाला नौजवान उनके सपनों को साकार करने में अपनी पूरी ताकत लगा देगा। युवा अखिलेश मुख्यमंत्री तो बन गये लेकिन लोगों की उम्मीदों की कसोटी पर खरे नहीं उतर पाये। वे गुंडे-बदमाशों की नकेल कसने की बजाय तमाशबीन की भूमिका में ही नजर आए। समाजवादी बदमाशों ने कानून की धज्जियां उडाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। लूटपाट, उठाईगिरी, मारकाट और प्रदेश में होने वाले बलात्कारों ने पूरे देश को गुस्से और आक्रोश से भर दिया।
बीते वर्ष लखनऊ में एक आइएएस अधिकारी ने चलती गाडी में एक महिला यात्री को अपनी वासना का शिकार बनाकर यूपी के उच्च अधिकारियों की असली मनोवृति, उनकी चरित्रहीनता और व्यवस्था की पूरी तस्वीर उजागर कर दी थी। इसी वर्ष ढोंगी समाजवादी मुलायम सिंह ने भी महिलाओं पर होने वाले बलात्कारों को बडे हलके में लेते हुए जब यह कहा कि लडके जवानी के जोश में बलात्कार जैसी गलतियां कर गुजरते हैं। ऐसे अदने से गुनाह के लिए उन्हें फांसी की सजा देना तो सरासर अन्याय है। नेताजी के इस बयान के बाद बिगडैलों का मनोबल बढना ही था। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है बडे लोग जैसा कहते हैं और जैसा आचरण करते हैं, बाकी लोग वैसा ही अनुसरण करते हैं। मुलायम और अखिलेश के उत्तरप्रदेश में प्रतिदिन औसतन बलात्कार की दस घटनाएं होती हैं। यह वो आंकडा है जो पुलिस थानों तक पहुंच पाता है। बीते सप्ताह बदायूं में दो नाबालिग बहनों का गैंगरेप करने के बाद उनकी हत्या कर शवों को पेड पर लटका दिया गया। इस वारदात की आंच अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि सीतापुर में फिर से एक नाबालिग लडकी दबंगों की गुंडई का शिकार हो गई। उस पर भी बलात्कार कर शव को पेड पर लटका दिया गया। यह तो दरिंदगी और हैवानियत की इंतेहा है। प्रदेश में हो रही गुंडई ने स्पष्ट कर दिया है कि युवा अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाना प्रदेश की जनता को बहुत महंगा पडा है। एक बार फिर से यूपी छल, कपट और धोखे का शिकार हो गया। यूपी की बदहाल कानून व्यवस्था के कारण देश की पूरी दुनिया में बदनामी हो रही है। युवा मुख्यमंत्री खुद के गिरेबान में झांकने की बजाय मीडिया को दोषी ठहरा रहे हैं। यानी वे चाहते हैं कि जिस तरह से उन्होंने निष्क्रियता का चोला ओढ रखा है वैसे ही मीडिया भी आंखें मूंद ले।
देश और दुनिया के राजनीतिक विश्लेषण कर्ताओं को गलत साबित कर नरेंद्र मोदी अभूतपूर्व जनाधार प्राप्त कर देश के प्रधानमंत्री बन चुके हैं।  देशवासियों ने तो अपना कर्तव्य निभा दिया। अब अच्छे दिन लाने की जिम्मेदारी उन पर है। लेकिन देश में एक अजीब किस्म का सन्नाटा छाया हुआ है। इस सन्नाटे में कहीं न कहीं यह भय छिपा हुआ है कि कहीं नरेंद्र मोदी भी अखिलेश बनकर न रह जाएं। मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव की नाकामयाबी की सबसे बडी वजह उनके पिता, परिवार और आजम खान जैसे पुराने अक्खड, अदूरदर्शी, मतलबपरस्त और जिद्दी नेताओं की दखलअंदाजी रही है। नरेंद्र मोदी पर भी कुछ ताकतों की जबरदस्त घेराबंदी है जो उनके लिए घातक हो सकती है। उनकी सरकार में कुछ ऐसे चेहरे शामिल हैं जो सौदागर मनोवृति के हैं। उन्होंने पचासों करोड रुपये फूंककर येन-केन-प्रकारेण लोकसभा का चुनाव जीता है। इनका पुराना इतिहास बताता है कि यह जनसेवा के लिए कम और धनसेवा के लिए ज्यादा पसीना बहाते हैं। सच यह भी है कि खुद नरेंद्र मोदी ने भी पीएम की गद्दी को पाने के लिए अंधाधुंध धन फूंका है। यह अपार धन कहीं न कहीं से तो आया ही होगा। पाता ही दाता को जानता है। दाता को खुश करने के चक्कर में कहीं 'सरकार' भटक न जाएं और वो करोडों देशवासी माथा पीटते न रह जाएं जिनसे सुशासन और अच्छे दिन लाने का वायदा किया गया है। नरेंद्र मोदी की नीयत और अपार क्षमता पर शंका करने की हमारी कोई मंशा नहीं है। माया, लालू, मुलायम-चालीसा के दौर में उन्होंने अपनी जीवनी को पाठ्य पुस्तकों में शामिल करने से मना कर यह तो स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें चापलूसी कतई पसंद नहीं।
मोदी को भले ही चापलूसी पसंद न हो, लेकिन उन चाटूकारों का क्या... जिनकी चमचागिरी करने की आदत पड चुकी है। पत्रकारिता में ऐसे अवसरवादी भरे पडे हैं। पूंजीपतियों के अखबारों के अधिकांश संपादक टाइपिस्ट और पीए बनकर रह गये हैं। मालिकों के लिए दलाली करना ही इनकी पत्रकारिता है। दलाल संपादको का अनुसरण करने वाले पत्रकारों की जमात भी अच्छीखासी है जिसने पत्रकारिता को महज धंधा मान लिया है। फिर भी समर्पित पत्रकार जिंदा हैं जिनकी बदौलत अखबार और पत्रकारिता के प्रति रूझान और सम्मान बरकरार है। महाराष्ट्र के नारंगी शहर नागपुर से निष्पक्ष और निर्भीक राष्ट्रीय साप्ताहिक 'विज्ञापन की दुनिया' का सतत प्रकाशन करने के बाद 'राष्ट्र पत्रिका' के प्रकाशन का यही उद्देश्य है कि सत्ता और व्यवस्था के द्वारा हाशिए पर फेंके गए लोगों की आवाज बुलंद की जाए। शासन सत्ता और व्यवस्था में फैली अराजकता की वास्तविक तस्वीर पाठकों के समक्ष रखकर उन्हें उस सच्चाई से अवगत कराया जाए जिसे अक्सर दबा-छिपा दिया जाता है। हम राजनीति के हर पक्ष और समाज के हर चेहरे की हकीकत पेश करना पत्रकारिता का प्रमुख उद्देश्य मानते हैं। पूंजीपतियों, राजनेताओं, तथाकथित समाज सेवकों तथा सत्ता के हितों का पोषण करना हमारी पत्रकारिता में कतई शामिल नहीं है। अराजक तत्वों को सतत बेनकाब करना और अच्छे लोगों के आदर और सम्मान में कलम चलाते रहना 'राष्ट्र पत्रिका' का एकमात्र लक्ष्य भी है और दायित्व भी। जनहित विरोधी कार्यों का खुलासा करने के इस कर्म-धर्म में हम अकेले नहीं हैं। एक लम्बा कारवां है जो पिछले १८ वर्षों से हमारा मनोबल बढाता चला आ रहा है। देश और प्रदेशों में फैले तमाम पाठकों, शुभचिंतकों, लेखकों, संवाददाताओं, सहयोगियों अभिकर्ताओं, एजेंट बंधुओं का अभिनंदन... आभार...धन्यवाद, जिनकी बदौलत राष्ट्रीय साप्ताहिक 'राष्ट्र पत्रिका' को प्रकाशित करने का हम साहस जुटा पाये।

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