Thursday, June 26, 2014

आस्था पर आघात

वैसे तो इंसानों की दुनिया में तरह-तरह के युद्ध होते रहते हैं। ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा का दौर भी चलता रहता है। पर यह लडाई बडी अजूबी है। जिसकी शुरुआत द्वारका और ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने की है। इसे लडाई कहें, जग-जगाई कहें या फिर अपनी सत्ता के डगमगाने का भय कहें? स्वरूपानंद के मन में पता नहीं कैसे एकाएक यह तरंग उठी कि शिर्डी के सार्इं बाबा भगवान नहीं हैं। उनकी पूजा करने में हिन्दु धर्म को बांटने का गहरा षडयंत्र छिपा हुआ है। जो लोग सार्इं बाबा की पूजा अर्चना को सतत बढावा दे रहे हैं वे हिन्दु धर्म को कमजोर कर रहे हैं। सार्इं बाबा के देश-विदेश में फैले करोडों उपासकों को स्वामीजी ने सचेत करने के साथ याद दिलाने की कोशिश की है कि हिन्दु धर्म में २४ अवतार हैं, जिनमें कलयुग में केवल बुद्ध और कल्कि अवतार हैं। शिर्डी के सार्इं बाबा न तो अवतार हैं और नही गुरु... तो फिर ऐसे में उनकी पूजा का क्या औचित्य है? यह सवाल वाकई बडा अजूबा है। आस्था को ही कठघरे में खडा कर दिया गया है। जिस देश में फिल्म अभिनेताओं, खिलाड़ियों और राजनेताओं के भी मंदिर तान दिये जाते हों और उन्हें अपना भगवान मानकर पूजा-अर्चना करने वालों का तांता लग जाता हो, जहां पेड, नदियां, पहाड पूजे जाते हों और लोगों की आस्था पर कोई बंधन न हो, वहां शिर्डी के सार्इं बाबा को लेकर देश के जाने-माने धार्मिक संत के ऐसे चौंकाने और उकसाने वाले बयान के आखिर क्या मायने हैं?
इतिहास के पन्ने बताते हैं कि सार्इंबाबा सच्चे मायने में एक फकीर थे। १८१९ में इस मायावी संसार से विदा लेने वाले सार्इं के जीवन का अधिकांश समय एक पुरानी मस्जिद में बीता। वे हिन्दु थे या मुसलमान इसका किसी को कोई पता नहीं है। दुखियारों और बेसहारा लोगों की सेवा करना ही उनका कर्म-धर्म था। सार्इं के लिए हिन्दु, मुसलमान एक समान थे। उन्होंने शिर्डी में साठ साल तक रहकर लोगों को धर्म की राह पर चलकर इंसानियत का पाठ पढाया। उन्होंने श्रद्धा और सबूरी को अपने जीवन का मूलमंत्र बनाने और 'सबका मालिक एक' का संदेश दिया। देश और दुनिया को सर्वधर्म समभाव की सीख देने वाले सार्इं के भक्तों की संख्या में धीरे-धीरे इतना इजाफा हुआ कि धर्म के ठेकेदारों के होश ही उड गए। यकीनन यह चमत्कार एकाएक नहीं हुआ। एक समय वो भी था जब बाबा के भक्तों की नाम मात्र की संख्या थी। कुछ स्थानीय भक्त ही उनके दरबार में हाजिरी लगाते थे। सादगी और फकीराना अंदाज सार्इं की असली पहचान थी। उनके इसी रूप ने लोगों को सम्मोहित किया। पहले शिर्डी में एक मंदिर बना। अब देशभर में हजारों मंदिर बन चुके हैं। विदेशों में भी उनके भक्तों ने सार्इं मंदिर बनवाये हैं। यह वाकई श्रद्धा और आस्था का कमाल है। सार्इं बाबा के दरबार में हाजिरी लगाने वालों में हर वर्ग के लोग शामिल हैं। वीवीआईपी, वीआईपी से लेकर आमजन तक बाबा के समर्पित भक्त हैं। इन्हें किसी ने जबरन प्रेरित नहीं किया, बल्कि यह खुद-ब-खुद उनके उपासकों में शामिल हुये हैं। ९० साल के उम्रदराज स्वामी स्वरूपानंद ने सार्इं की निरंतर बढती ख्याति को लेकर बहुत कुछ कहा है। लोगों का प्रखर विरोध भी सामने आया हैं। सार्इं का आडंबरों से कोई वास्ता नहीं था। उन्होंने सर्वधर्म समभाव का पाठ पढाया और नकारात्मक वृतियों को त्यागने और सकारात्मक सोच और राह को अपनाने की सीख दी। शिर्डी के सार्इं मंदिर में जब लाखों श्रद्धालु हाजिरी लगाते हैं तो तय है कि चढावा भी अच्छा-खासा आता है। जिस शिर्डी संस्थान की अपने जन्मकाल में वार्षिक आय मात्र दो सौ रुपये थी आज वह ५०० करोड का आंकडा पार कर चुकी है। महाराष्ट्र के श्रद्धालु नियमित सार्इं बाबा के दरबार में आते हैं। वहीं देश के और विदेश के श्रद्धालुओं की संख्या भी करोडों में है। कल का गांवनुमा शिर्डी शहर में तब्दील हो चुका है। आलीशान इमारतें और बडे-बडे होटल अब शिर्डी की पहचान हैं। देशी और विदेशी भक्तों के स्वागत के लिए खुले थ्री स्टार और फाइव स्टार होटल यह ऐलान करते प्रतीत होते हैं कि शिर्डी को महानगर बनने से कोई नहीं रोक सकता। हवाई सुविधा भी उपलब्ध है। प्रतिदिन आने-जाने वाले भक्तों के लिए ढेरों बसें और गाड़ियां तो हैं ही। जमीनों के भाव भी आसमान छूने लगे हैं। लालची बिल्डरों, दलालों और शातिर नेताओं की कारस्तानी के चलते ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जो धार्मिक नगरी की छवि के अनुकूल नहीं है। लेकिन इसे रोक पाना मुश्किल है। देश की हर धार्मिक नगरी के ऐसे ही हालात हैं। जहां तीर्थयात्रियों की संख्या बढती है वहां बाजार भी पनप जाता है। चालीस साल पहले जहां शिर्डी में एक छोटा-सा मंदिर था अब वहां भव्य मंदिर है। बाबा की मूर्ति और छतरी सोने की बन चुकी है। शिर्डी के मंदिर की तिजोरियों में जमा होने वाले धन का सदुपयोग भी हो रहा है। स्कूल, कॉलेज, अस्पताल स्थापित किये जा रहे हैं। यही तो मानवता की सच्ची सेवा है। सार्इं बाबा भी यही तो चाहते थे। स्वरूपानंद क्या चाहते हैं, उसके कोई मायने नहीं हैं।

No comments:

Post a Comment