Thursday, July 24, 2014

ऐसे कैसे चल पायेगा देश?

बैंकों का कर्जा न चुका पाने के कारण इस देश के किसानों को आत्महत्याएं करनी पडती हैं। यह खबरें कितने देशवासियों को चौंकाती हैं? इसका जवाब यही है कि ज्यादातर लोगों पर इनका कोई असर नहीं पडता। खबर पढी, सुनी और भूल गये। बलात्कार और भ्रष्टाचार की खबरों की तरह ही किसानों की आत्महत्याओं को भी रोजमर्रा का रोग माना जाने लगा है। कहीं कोई गुस्सा नहीं फूटता। संवेदना नहीं जागती। बस यही मान लिया जाता है कि यह एक ऐसी बीमारी है जो लाइलाज है। किसी भी वैद्य के पास इसका इलाज नहीं है। ऐसे में लगातार होने वाली मौतों पर माथापच्ची किस लिए। जिनको बेमौत मरना है, वे तो मरेगे ही। हम क्यों परेशान हों? ...यह काम तो उनके रिश्तेदारों और करीबियों का है। हमारे सामने अपनी तकलीफें कम हैं जो दूसरों के लिए मातम मनाते रहें। यही है लगभग सभी की सोच। जब कभी खुद पर आती है तो दिन में तारे दिखने लगते हैं। नहीं तो एक कान से सुनो-सुनाओ और फिर अपनी मस्ती में डूब जाओ।
ऐसा कभी भी नहीं हुआ कि किसान ने कर्ज लिया हो और फिर उसे यहां-वहां गुलछर्रे उडाकर फूंक दिया हो। वह तो खेती में ही सारे कर्ज के धन को लगाता है, लेकिन कभी बरसात धोखा दे जाती है तो कभी उसे अपनी फसल के उतने दाम नहीं मिल पाते कि जिनसे वह बैंको का कर्जा चुका सके। भारतीय किसान की इस बेबसी, मजबूरी और बदनसीबी पर हुक्मरानों ने कभी गंभीरता से चिंतन-मनन करने की कोशिश ही नहीं की। दुनिया भर में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहां किसान आत्महत्या करने को विवश होते हैं। चालाक व्यापारियों, उद्योगपतियों के प्रति अपार सहृदयता दिखाने वाले बैंक किसानों के मामले में उदारता दिखाने में बडी कंजूसी करते हैं। जबकि किसानों की कभी भी कर्ज को डूबाने और पचाने की मानसिकता नहीं होती। देश के आम आदमी को भी बैंकों से आसानी से लोन नहीं मिलता। यदि कहीं मिल भी जाए तो भुगतान में नाम मात्र की देरी होने पर उस पर वसूली का ऐसा डंडा चलाया जाता है कि जैसे उसके कहीं दूर भाग जाने का खतरा हो। कुछ लाख रुपये का ऋण लेने वालों पर दबंगई और तानाशाही दिखाने वाले बैंकों की एक तस्वीर और भी है। गरीबों के इसी मुल्क में जाने-माने रईसों पर विभिन्न बैंकों का ५४,००० करोड बकाया हैं। वैसे तो देशभर के धनपतियों ने बैंकों का इतना धन दबा रखा है जिससे देश का कायाकल्प हो सकता है। इस कर्जे को वसूलने के लिए बैंकों के पास कोई कारगर योजना नहीं है। धनासेठों से कर्ज की वसूली करने में अधिकारियों के पसीने छूट जाते हैं। फिर भी उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती। कर्जदार साहूकार पर हावी हो जाते हैं। यह कोई छोटे-मोटे कर्जदार नहीं हैं। यह बडे-बडे उद्योगपति हैं। इनके कई कारखाने और कंपनियां चलती हैं। यह सत्ता के गलियारों में अच्छी खासी दखल रखते हैं। यह आसमान पर उडते हैं। बडे-बडे मंत्रियों, राजनेताओं, मीडिया के दिग्गजों और शासकों  के बीच इनका उठना-बैठना है। अरबो-खरबों का कर्जा होने के बावजूद भी इन्हें हर जगह सम्मान मिलता है। पूछ-परख होती है। यह हकीकत भी बेहद चौंकाने वाली है कि १० करोड या इससे अधिक का कर्ज जानबूझकर नहीं चुकाने वाली कंपनियों की संख्या हजार से ज्यादा है। जिनमें किंगफिशर, लैंको मदाकिनी, हैड्रो एनर्जी, सुजान ग्रुप, प्रोग्रेसिव कंस्ट्रक्शन, वायसराय होटल्स, रिजेंसी सिरामिक्स, नवभारत इंटरनेशनल, एस. कुमार्स नेशनवाइड लिमिटेड और डेक्कन क्रोनिकल जैसे बडे नाम शामिल हैं। इन कंपनियों के मालिक अगर चाहें तो चुटकियों में कर्ज की अदायगी कर सकते हैं। पर इनकी नीयत को लकवा मार चुका है। इनका एकमात्र इरादा ही बैंको की रकम को पचा जाने का है। इन सबकी फितरत एक जैसी है। किंग फिशर के मालिक विजय माल्या के नाम से कौन वाकिफ नहीं है। शराब के सबसे बडे कारोबारी हैं। खुद के उडने के लिए हवाई जहाज भी हैं। यानी उनके पास धन-दौलत की कोई कमी नहीं है। बस नीयत में ही खोट है। यह महाशय हसीनाओं के नाच गाने पर करोडों फूंक देते हैं। इनकी रंगीन महफिलों में क्या कुछ नहीं होता। लाखों अय्याशों की अय्याशी इनके सामने फीकी पड जाती है। इनकी अय्याशियों का खामियाजा देश के करोडों लोगों को भुगतना पड रहा है। धन के अभाव में सरकार कई जनहितकारी योजनाएं लागू ही नहीं कर पाती और यह लोग धन से खेल रहे हैं। देश के जाने-माने समाजवादी, प्रखर चिंतक रघु ठाकुर गलत नहीं कहते कि इस देश में इतना धन है कि विदेशों का मुंह ताकने की कोई जरूरत ही नहीं है। गौरतलब है कि मोदी सरकार ने २० लाख करोड की विदेशी पूंजी निवेश का लक्ष्य रखा है। विदेशी निवेश के मायने हैं अपनी गोपनीयता दांव पर लगाना और विदेशों की जी हजूरी। विदेशियों के सामने भीख का कटोरा थामे सिर झुकाकर नतमस्तक हो जाना। दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश की यह कैसी मजबूरी! कहां गया हमारा स्वाभिमान! जब चीन अपने देश का विकास अपनी खुद की पूंजी से कर सकता है तो हम क्यों नहीं? इसलिए कि हमें गुलामी में मज़ा आता है, भ्रष्टाचारियों पर नकेल कसने का सरकार में दम नहीं और इस देश के नेता और अफसर बेईमानी में किसी से कम नहीं? इस रकम को देश से जुटाया जा सकता है। देश के उद्योगपतियों पर जो १९ लाख करोड का कर्ज बकाया है उसी की कडाई से वसूली की जाए, तो तय है कि विदेशी निवेश की कोई जरूरत नहीं पडेगी। अभी तक का यही रिकॉर्ड रहा है कि सरकारें अमीरों के सामने झुकती रही हैं। इस देश के अमीर शासकों से अंधाधुंध लाभ तो पाते हैं, लेकिन अपनी कमायी विदेशी बैंकों में जमा कर खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं। चुनावी राजनीति के जानकार तो मोदी सरकार पर उद्योगपतियों की थैलियों की बदौलत चुनाव जीतने और सत्ता पाने का आरोप लगाते नहीं थकते। ऐसे में उनसे कैसे बदलाव की उम्मीद की जाए?

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