Thursday, July 17, 2014

उम्रदराज पत्रकार की होशियारी!

दूसरों पर निशाना साधने वाले जब खुद निशाने पर आते हैं तो उनकी हालत देखते बनती है। देश के मीडिया के कुछ ऐसे ही हाल हैं। नेताओं की तरह पत्रकारों को भी खुलेआम गालियां दी जाने लगी हैं। कटघरे में खडा किया जाने लगा है। वो दिन अब शायद ही वापस आएं जब सभी पत्रकारों का मान-सम्मान होता था। अदब से सर झुक जाया करते थे। कुछ पत्रकारों की गलतियों, खामियों, कमियों और कमजोरियों का खामियाजा पूरी की पूरी पत्रकार बिरादरी को भुगतना पड रहा है। दरअसल, खरी और सही खबरें पहुंचाने का दावा करने वाले कई पत्रकारों की पोल खुल चुकी है। उनकी निष्पक्षता और निर्भीकता के दावों के परखच्चे उड चुके हैं। वे पत्रकार हैं या दलाल, फर्क कर पाना मुश्किल हो गया है। इस किस्म के पत्रकार मौकापरस्त नेताओं और भ्रष्ट पुलिस वालों के रंग में रंग चुके हैं। सत्ताधीशों के साथ अपनी नजदिकियों का ढिंढोरा पीटने में उन्हें फख्र महसूस होता है। उनकी शामें सत्ता के दलालों और ऊंचे दर्जे के अपराधियों के साथ बीतती हैं। उनका संदिग्ध चाल-चलन उन्हें चर्चा में लाता रहता है। इससे उन्हें सुखद अनुभूति होती है। हमने कई नामी-गिरामी पत्रकारों के मुखौटे तार-तार होते देखे हैं। इस तथ्य को भी पुख्ता होते देखा है कि पत्रकारिता को कलंकित करने वालों का एक तयशुदा मकसद था जिसे मौका पाते ही उन्होंने पूरा कर लिया।
देश और प्रदेशों के अधिकांश बडे पत्रकारों का किसी न किसी राजनीतिक दल और राजनेता से जुडाव स्पष्ट दिखायी देता है। पूंजीपति अखबार मालिक भी राजनेताओं की चौखट पर नाक रगडने में अपनी शान समझते हैं। पत्रकारों को अगर इस विषय में कटघरे में खडा किया जाता है तो उनका सपाट जवाब होता है कि हम जिन मालिकों का नमक खाते हैं उनकी नहीं सुनेंगे तो किसकी सुनेंगे। स्वतंत्र पत्रकारों में भी चंद ऐसे चेहरे हैं जो वाकई स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं। उनका किसी से लगाव और जुडाव नहीं होता। वे सत्ता के गलियारों में भीख के कटोरे लिए भटकते नजर नहीं आते। ऐसे कुछ गिने-चुने पत्रकार ही लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को धराशायी होने से बचाए हुए हैं। सजग पाठक उनकी निष्पक्षता और निर्भीकता की मिसालें देते नहीं थकते। पर उन महान अखबारीलालों को किस श्रेणी में रखा जाए जो स्वतंत्र पत्रकार कहलाते हैं, लेकिन इस-उस राजनीतिक पार्टी और तथाकथित महान आत्माओं की चरणवंदना करते नजर आते हैं। डॉ. वेद प्रकाश वैदिक देश के एक उम्रदराज पत्रकार हैं। पिछले दिनों उन्होंने पाकिस्तान की यात्रा के दौरान मोस्ट वांटेड कट्टरपंथी नेता हाफिज सईद से मुलाकात की तो देश की राजनीति और पत्रकारिता के क्षेत्र हंगामा-सा बरपा हो गया। किसी पत्रकार की किसी उग्रवादी से मिलने की यह कोई पहली और अजूबी बात नहीं है। पत्रकार किसी से भी मिलने के लिए स्वतंत्र होता है। पत्रकारिता के इतिहास के पन्ने पलटने पर पता चलता है कि जब भी सजग पत्रकार नक्सलियों, विद्रोहियों, आतंकियों और बागियों से मिले हैं तो कोई न कोई बडा खुलासा भी हुआ है। लोगों को उस दबे-छिपे सच से रूबरू कराया गया है... जो शायद ही कभी सामने आ पाता। असंख्य निर्दोषों का खून बहाने वाले लिट्टे चीफ प्रभाकरण से देश की महिला पत्रकार अनीता प्रताप ने उसके गढ जाफना में जाकर मुलाकात की थी। तब सारी दुनिया में उनकी पत्रकारिता की तारीफ की गयी थी। क्रुर हत्यारे वीरप्पन से भी शिवगोपाल नामक पत्रकार दुर्गम जंगलों को पार कर जब-तब मिल लिया करता था। चम्बल के कई दुर्दांत डकैतों से भी सजग पत्रकारों का मिलना और उनके साक्षात्कार लेने का लंबा सिलसिला रहा है। घने जंगलों में लुक-छिपकर रहने वाले खूंखार नक्सलियों तथा सात समंदर पार डेरा जमाये खूनी हत्यारे माफियाओं से भी कुछ पत्रकारों का मिलना-जुलना रहा है। हैरानी की बात तो यह भी है कि जिन मोस्ट वांटेड अपराधियों तक पुलिस नहीं पहुंच पाती, पत्रकार आसानी से पहुंच जाते हैं, सरकारें भी सिर्फ अनुमान लगाती रह जाती हैं। यह भी सच है कि अपराधियों और आतंकियों से मिलकर उनका पक्ष जानने वाले अधिकांश पत्रकारों ने कभी भी सच को छुपाने और दबाने की कोशिश नहीं की। हां इतिहास में जे.डे कुछ पत्रकारों का नाम भी दर्ज है जिन्होंने सनसनी खबरों के चक्कर में विदेशों में रह रहे दाऊद इब्राहिम, छोटा राजन जैसे कुख्यातों से करीबियां बनायीं और अंतत: उन्हीं के किसी साथी की गोलियों का शिकार बने। यह भी हैरत की बात है कि भारी तकलीफें और जोखिम उठाकर मानवता के शत्रुओं की खबरें लाने वाले पत्रकारों को भी कई बार शासन-प्रशासन द्वारा शंका की निगाह से देखा जाता है। आतंकवादियों, नक्सलियों और माओवादियों के प्रति सहानुभूति दर्शाने और उनका महिमा मंडन करने वाले पत्रकार यकीनन सज़ा और दुत्कार के हकदार हैं, लेकिन वो नहीं जो ईमानदारी से पत्रकारिता करते हैं। पत्रकार वेद प्रकाश वैदिक ने अपनी पाकिस्तान की यात्रा के दौरान आतंकवादी हाफिज सईद का लम्बा साक्षात्कार लेने के बाद उसे प्रकाशित करवाने में जो लेट-लतीफी दिखायी उसी ने उनकी छवि को मटियामेट करके रख दिया। योगगुरू बाबा रामदेव को राजनीति का पाठ पढाने वाले वैदिक जब लोगों के निशाने पर आये तो तरह-तरह की बातें करते दिखे। विपक्षी दलों के नेताओं के द्वारा उन पर प्रधानमंत्री का दूत बनकर जाने के आरोपों की झडी लग गयी। हालांकि उन्होंने इससे इंकार किया। लेकिन कई सवाल अभी जवाब के इंतजार में हैं। हाफिज सईद उस मुंबई ब्लास्ट का मुख्य आरोपी है जिसके कारण सैकडों लोगों की जानें गयी थीं और हजारों घायल हुए थे। भारत का यह मोस्ट वांटेड अपराधी संसद पर हमले के लिए भी जिम्मेदार है। यह दरिंदा हिन्दुस्तान में सतत आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देता रहता है। ऐसे देश के दुश्मन से वैदिक के मिलने और साक्षात्कार लेने के क्या मायने हैं? सवाल तो होंगे ही। वैदिक लाख बडे पत्रकार हों, लेकिन राष्ट्र से बढकर तो कोई भी नहीं हो सकता।

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