अपनी-अपनी पीडा। अपनी-अपनी चिन्ता। अपना-अपना लालच। अपनी-अपनी दास्तान। अपनी सरकार के कार्यकाल का एक माह पूरा होने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस चुप्पी को तोडा जिस पर उंगलियां उठ रही थीं। यह खामोशी किसी भाषण-वाषण से नहीं, उनके ब्लॉग के जरिए टूटी। यानी आधी-अधूरी। जब तक मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज नहीं हुए थे तब तक तो वे खूब बोला करते थे। हर सवाल का जवाब फौरन हाजिर हो जाया करता था। जबसे प्रधानमंत्री बने हैं तब से हालात उलट-पुलट गये हैं। प्रधानमंत्री कहते हैं कि कुछ लोग उन्हें चैन से काम नहीं करने देना चाहते। सोनिया गांधी की सरपरस्ती में चली डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार को दस साल तक बर्दाश्त कर लिया गया, लेकिन उनकी सरकार के तीस दिन भी पूरे नहीं हुए थे कि आलोचक पानी-पी-पीकर तीखे सवालों की बौछार करने पर आमादा हो गए! यह तो सरासर नाइन्साफी है। जिसे देखो वही हाथ में रजिस्टर थामे अच्छे दिनों का हिसाब मांग रहा है। मेरे हाथ में कोई जादू की छडी तो है नहीं... कि चंद दिनों में देश की बदहाली को खुशहाली में तब्दील कर दूं। मेरी सरकार दिन-रात इस माथा-पच्ची में लगी है कि किस तरह से विशाल देश में जन-जन की समस्याएं हल की जाएं। हमने मौज-मस्ती के लिए नहीं देशवासियों की तकलीफें दूर करने के लिए सत्ता संभाली है। आम जनता को तो अभी भी हम पर भरोसा है। ऐसे उतावले लोगों में मीडिया भी शामिल है। उसकी बेसब्री भी देखते बनती है।
मीडिया से अकेले मोदी ही खफा नहीं हैं। उनकी सरकार के कुछ और मंत्री भी यही चाहते हैं कि देश भर के सारे अखबार और न्यूज चैनल वाले उनकी कमियों और कमजोरियों को नजरअंदाज करते रहें। देश के विद्वान खाद्यमंत्री रामविलास पासवान काफी शोध करने के पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मीडिया में आने वाली खबरों के चलते जहां महंगाई अपना तांडव दिखा रही है वहीं व्यापारी धडाधड जमाखोरी कर रहे हैं। सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर की बोलवाणी तो और भी कमाल की है... जिससे देशवासियों को सतर्क और सावधान हो जाना चाहिए... 'महंगाई कोई इलेक्ट्रिक स्विच नहीं है, जिसे ऑन या ऑफ किया जाए।' नरेंद्र मोदी के अपार शुभचिन्तक भी अपना तर्क रखने से नहीं चूक रहे हैं... 'प्रधानमंत्री जब खुद हनीमून पीरियड की बात कर रहे हैं तो उनके कार्य के आकलन के मामले में सब्र का दामन थामने में ही अक्लमंदी है। जब देशवासी मौनी बाबा (डॉ. मनमोहन सिंह) को इतने साल झेल सकते हैं तो मोदी के साथ नाइन्साफी क्यों? उन्हें भी पूरा वक्त दिया जाना चाहिए। गर्त में समा चुके देश को फिर से खडा करने में वक्त न लगे ऐसा तो हो नहीं सकता।' यानी तमाम बुद्धिमान उस आम आदमी को सब्र का पाठ पडा रहे हैं जो पिछले कई साल से अराजकता, बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा, महंगाई और बेलगाम भ्रष्टाचार की यातना को सहता चला आ रहा है।
हमारे यहां की जनता भी बहुत जल्दी झांसे में आ जाती है। क्या उसे यह पता नहीं होता कि चुनाव अभियान के दौरान किये गये वायदे और उछाले गये आश्वासन तो वोटरों को लुभाने के लिए होते हैं? मीडिया को महंगाई का दोषी ठहराने वाले इस देश के खाद्यमंत्री ने शातिर नेताओं वाली बयानबाजी कर दर्शा दिया है कि उनकी नज़र में मीडिया की कितनी अहमियत है। उनकी यही मंशा दिखती है कि मीडिया लोगों को सच से रू-ब-रू कराना छोड दे। वह भी उन्हें ऐसे सपने दिखाए जिनके पूरे होने के आधे-अधूरे आसार हों। या फिर हों ही नहीं। पासवान साहब को जब यकीन है कि जमाखोर हरामखोरी पर उतर आएं हैं तो वे उनके गोदामों पर छापे क्यों नहीं डलवाते? कहीं 'अपने वालों' का तादाद ज्यादा होने की वजह से खुलकर पकडा-धकडी करने की हिम्मत ने जवाब तो नहीं दे दिया? जनता को आप लोगों की दिखावटी मजबूरियों से क्या लेना-देना! वह तो महंगाई के दानव से मुक्ति चाहती थी। आपकी सरकार ने आते ही रेल की यात्रा महंगी कर दी। आलू, प्याज, गैस, डीजल आदि के भाव ऐसे बढा दिए जैसे हिन्दुस्तान पूरा का पूरा अमीरों का देश है।
भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी को केन्द्र की सत्ता दिलवाने में भले ही अमीरों की थैलियों का योगदान रहा हो, लेकिन हकीकत यही है कि इनके सपनों को इस देश की उस गरीब जनता ने ही साकार किया है जिसकी झोली कल भी खाली थी और आज भी खाली है। जिनकी रोज की आमदनी पच्चीस-पचास रुपये से ज्यादा नहीं है उनपर मोदी सरकार की महंगाई की मार बहुत दुखदायी है। इस देश की आधी से अधिक आबादी के लिए दो वक्त का भोजन एक सपना है। वर्षों से इस सपने के साथ खिलवाड होता चला आ रहा है। मोदी ने जब यह कहकर 'स्वप्नजीवियों' की उम्मीदें जगायीं कि 'बस अब तो अच्छे दिन आने वाले हैं' तो उन्होंने अतीत में हुए धोखों को विस्मृत कर यकीन करने में देरी नहीं लगायी। तो फिर उनके सपनों को साकार करने में देरी क्यों लगायी जा रही है? वे तो दूध के जले हैं, छाछ भी फूंक-फूंक कर पीना चाहते हैं। आप हैं कि उन्हें तेजाब पीने को विवश कर रहे हैं। आपकी कोई भी सफाई उनके गले नहीं उतरने वाली। उन्हें यह मत बताइए कि सरकार को देश चलाने के लिए कुछ कडवे फैसले लेने ही पडते हैं। अरे भाई, आप सरकार हैं, आपको किसने रोका है? लेकिन यह भी तो देखिए, सोचिए कि आप कडवे निर्णय लेकर किन्हें कडवी दवा पीने को विवश कर रहे हैं? उन्हें जो पहले से ही बेदम हैं, लाचार हैं, मृत्यु शैय्या पर हैं! हर बार अगर इन्हीं पर ही कहर ढाया जायेगा तो कराहने, चीखने और चिल्लाने की आवाज़ें तो आयेंगी ही। किसी भी शासक की सेहत के लिए ऐसे हालात अच्छे नहीं होते। भले ही उसकी छाती छप्पन इंच की क्यों न हो।
मीडिया से अकेले मोदी ही खफा नहीं हैं। उनकी सरकार के कुछ और मंत्री भी यही चाहते हैं कि देश भर के सारे अखबार और न्यूज चैनल वाले उनकी कमियों और कमजोरियों को नजरअंदाज करते रहें। देश के विद्वान खाद्यमंत्री रामविलास पासवान काफी शोध करने के पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मीडिया में आने वाली खबरों के चलते जहां महंगाई अपना तांडव दिखा रही है वहीं व्यापारी धडाधड जमाखोरी कर रहे हैं। सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर की बोलवाणी तो और भी कमाल की है... जिससे देशवासियों को सतर्क और सावधान हो जाना चाहिए... 'महंगाई कोई इलेक्ट्रिक स्विच नहीं है, जिसे ऑन या ऑफ किया जाए।' नरेंद्र मोदी के अपार शुभचिन्तक भी अपना तर्क रखने से नहीं चूक रहे हैं... 'प्रधानमंत्री जब खुद हनीमून पीरियड की बात कर रहे हैं तो उनके कार्य के आकलन के मामले में सब्र का दामन थामने में ही अक्लमंदी है। जब देशवासी मौनी बाबा (डॉ. मनमोहन सिंह) को इतने साल झेल सकते हैं तो मोदी के साथ नाइन्साफी क्यों? उन्हें भी पूरा वक्त दिया जाना चाहिए। गर्त में समा चुके देश को फिर से खडा करने में वक्त न लगे ऐसा तो हो नहीं सकता।' यानी तमाम बुद्धिमान उस आम आदमी को सब्र का पाठ पडा रहे हैं जो पिछले कई साल से अराजकता, बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा, महंगाई और बेलगाम भ्रष्टाचार की यातना को सहता चला आ रहा है।
हमारे यहां की जनता भी बहुत जल्दी झांसे में आ जाती है। क्या उसे यह पता नहीं होता कि चुनाव अभियान के दौरान किये गये वायदे और उछाले गये आश्वासन तो वोटरों को लुभाने के लिए होते हैं? मीडिया को महंगाई का दोषी ठहराने वाले इस देश के खाद्यमंत्री ने शातिर नेताओं वाली बयानबाजी कर दर्शा दिया है कि उनकी नज़र में मीडिया की कितनी अहमियत है। उनकी यही मंशा दिखती है कि मीडिया लोगों को सच से रू-ब-रू कराना छोड दे। वह भी उन्हें ऐसे सपने दिखाए जिनके पूरे होने के आधे-अधूरे आसार हों। या फिर हों ही नहीं। पासवान साहब को जब यकीन है कि जमाखोर हरामखोरी पर उतर आएं हैं तो वे उनके गोदामों पर छापे क्यों नहीं डलवाते? कहीं 'अपने वालों' का तादाद ज्यादा होने की वजह से खुलकर पकडा-धकडी करने की हिम्मत ने जवाब तो नहीं दे दिया? जनता को आप लोगों की दिखावटी मजबूरियों से क्या लेना-देना! वह तो महंगाई के दानव से मुक्ति चाहती थी। आपकी सरकार ने आते ही रेल की यात्रा महंगी कर दी। आलू, प्याज, गैस, डीजल आदि के भाव ऐसे बढा दिए जैसे हिन्दुस्तान पूरा का पूरा अमीरों का देश है।
भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी को केन्द्र की सत्ता दिलवाने में भले ही अमीरों की थैलियों का योगदान रहा हो, लेकिन हकीकत यही है कि इनके सपनों को इस देश की उस गरीब जनता ने ही साकार किया है जिसकी झोली कल भी खाली थी और आज भी खाली है। जिनकी रोज की आमदनी पच्चीस-पचास रुपये से ज्यादा नहीं है उनपर मोदी सरकार की महंगाई की मार बहुत दुखदायी है। इस देश की आधी से अधिक आबादी के लिए दो वक्त का भोजन एक सपना है। वर्षों से इस सपने के साथ खिलवाड होता चला आ रहा है। मोदी ने जब यह कहकर 'स्वप्नजीवियों' की उम्मीदें जगायीं कि 'बस अब तो अच्छे दिन आने वाले हैं' तो उन्होंने अतीत में हुए धोखों को विस्मृत कर यकीन करने में देरी नहीं लगायी। तो फिर उनके सपनों को साकार करने में देरी क्यों लगायी जा रही है? वे तो दूध के जले हैं, छाछ भी फूंक-फूंक कर पीना चाहते हैं। आप हैं कि उन्हें तेजाब पीने को विवश कर रहे हैं। आपकी कोई भी सफाई उनके गले नहीं उतरने वाली। उन्हें यह मत बताइए कि सरकार को देश चलाने के लिए कुछ कडवे फैसले लेने ही पडते हैं। अरे भाई, आप सरकार हैं, आपको किसने रोका है? लेकिन यह भी तो देखिए, सोचिए कि आप कडवे निर्णय लेकर किन्हें कडवी दवा पीने को विवश कर रहे हैं? उन्हें जो पहले से ही बेदम हैं, लाचार हैं, मृत्यु शैय्या पर हैं! हर बार अगर इन्हीं पर ही कहर ढाया जायेगा तो कराहने, चीखने और चिल्लाने की आवाज़ें तो आयेंगी ही। किसी भी शासक की सेहत के लिए ऐसे हालात अच्छे नहीं होते। भले ही उसकी छाती छप्पन इंच की क्यों न हो।
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