हुक्मरानों की मेहरबानी से कैसे-कैसे लोग राज्यसभा में पहुंचा दिये जाते हैं। उनका राज्यसभा का सदस्य बनना और बनाया जाना प्रबुद्धजनों को बेहद चौंकाता है। राष्ट्रीय पुरस्कार देने में कौन सा मापदण्ड अपनाया जाता है, वो भी लोगों को समझ में नहीं आता। सैफ अली खान, जैसे हद दर्जे के लुच्चों को जब 'पद्मश्री' मिल जाती है तब माथा पीटने को जी चाहता है। सैफ अली खान फिल्म अभिनेता हैं। फिल्मी कलाकार के तौर पर उन्होंने ऐसा कोई परचम नहीं लहराया कि उन्हें इतना बडा पुरस्कार दे दिया जाता। इस देश में ऐसा ही चलता है। बडे-बडे शिक्षाविदों, वैज्ञानिकों, समाजसेवियों, साहित्यकारों कलाकारों और विद्वानों की पूछ नहीं होती और जोड-जुगाड में माहिर लोगों को हाथोंहाथ लिया जाता है। देश की आजादी का असली आनंद यही लोग उठा रहे हैं। फिल्म अभिनेत्री रेखा को राज्यसभा की सदस्यता दे दी गयी। क्यों दी गयी, इसका जवाब न दाता के पास है और न ही पाता के पास। रेखा ऐसी अभिनेत्री हैं जिनका विवादों में चोली-दामन का साथ रहा है। ऐसी ढेरो अभिनेत्रियां हुई हैं जिन्होंने रेखा से कई गुना अच्छा अभिनय कर दर्शकों को अपना मुरीद बनाया। लेकिन उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत करने लायक नहीं समझा गया। घोर विवादास्पद रेखा में कांग्रेस के महारथियों ने पता नहीं कौन से ऐसे गुण देखे कि वे उस पर मेहरबान हो गये। रेखा ने कितने घर उजाडे और कितनी शादियां कीं इसकी गिनती उसे भी याद नहीं होगी। भारतीय कानून को अपंग समझने वाली फिल्म अभिनेत्री हेमा मालिनी शादीशुदा फिल्म अभिनेता धर्मेंद्र से शादी कर कितनी नारियों की आदर्श बनी होंगी और उन्होंने भी पता नहीं कितने बसे-बसाये घर उजाडे होंगे। ऐसी नारी को भाजपा ने पहले राज्यसभा की सदस्यता और अब मथुरा से सांसदी दिलवाकर भले ही चुनावी लाभ पाया हो, लेकिन युवा पीढी के लिए अच्छा आदर्श तो नहीं प्रस्तुत किया। घाट-घाट का पानी पी चुकी रेखा को कांग्रेस की मेहरबानी से सांसद बनाये जाने के बाद यह तो स्पष्ट हो गया कि इतनी बडी उपलब्धि के लिए अच्छे चरित्र का होना कतई जरूरी नहीं है। कुख्यात और चरित्रहीन चेहरे भी लोकतंत्र के सभी बडे मंदिर में चहलकदमी करने के हकदार हो सकते हैं।
क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर चरित्र के मामले में यकीनन निष्कलंक हैं फिर भी उन्हे राज्यसभा का सांसद बनाना समझदार देशवासियों को रास नहीं आया। सचिन को 'भारतरत्न' देने पर किसी ने आपत्ति नहीं उठायी थी। वे इसके हकदार थे। लेकिन उनका सांसद बनाया जाना हैरतअंगेज और शर्मनाक खेल था, जो इस देश के साथ खेला गया। यह महान कार्य कांग्रेस ने तब किया जब उसका पतन काल था। कुछ कांग्रेसियों ने अपनी पार्टी की सुप्रीमों सोनिया गांधी को यह पाठ पढाया कि सचिन पर यह मेहरबानी करने के कई फायदे होंगे। युवा वर्ग तो पार्टी से जुडेगा ही, सचिन पार्टी के चुनाव प्रचार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे। सोनिया गांधी ने हामी भरने में जरा भी देरी नहीं लगायी और रेखा के साथ-साथ सचिन का नाम भी राष्ट्रपति के पास राज्यसभा की सदस्यता हेतु नामांकन के लिए भिजवा दिया। दोनों महारथी राज्यसभा में पहुंच गए। कांग्रेस को उम्मीद थी यह दोनों सांसद लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के धुआंधार प्रचार अभियान में अपना करिश्मा दिखाएंगे। यानी उसके बडे काम आएंगे। पर इनके पास न तब समय था और न ही अब कोई समय है। यह तो शौकिया सांसद बने हैं। इन अहंकारियों को राज्यसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में अपनी कमतरी का अहसास होता है। यह तो खुद को सांसद से कहीं बहुत ऊंचा और महान समझते हैं। गौरतलब है कि संविधान निर्माताओं ने अलग-अलग क्षेत्रों की १२ श्रेष्ठतम हस्तियों को राज्यसभा की सदस्यता के लिए मनोनीत करने की व्यवस्था की थी। लेकिन इस व्यवस्था में भी राजनीति हावी होती चली गयी। विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपनी-अपनी चलायी जिसके चलते अपने-अपने क्षेत्र में पूरी तरह से काबिल और प्रतिष्ठित लोगों को राज्यसभा में पहुंचने का उतना अवसर मिल ही नहीं पाया, जितने के वे हकदार थे। रेखा और सचिन तेंदुलकर की राज्यसभा में लंबे समय से अनुपस्थिति के बाद हंगामा मचा और यह मांग भी की गयी कि इन दोनों को राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर देश पर उपकार करना चाहिए। साथ ही सरकार चलाने वालों तक यह आवाज पहुंचाने की कोशिश की गयी कि इस देश में ऐसी प्रेरक हस्तियों की कमी नहीं है जो वाकई बेहतरीन राज्यसभा सांसद साबित हो सकते हैं। गूंगों और बहरों को राज्यसभा में भेजने से अंतत: देश का ही नुकसान होगा।
स्वामी विवेकानंद कहते थे कि एक समय में एक काम करो, और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमें डाल दो और बाकी सबकुछ भूल जाओ। सोचिए जब राज्यसभा की सदस्यता के लिए ऐसे महारथियों को मनोनीत किया जाएगा जिनके कई और भी कामधंधे है तो वे राज्यसभा के प्रति कैसे समर्पित रह पाएंगे। उनका ध्यान तो अपने मूल कार्य पर केंद्रित रहेगा। सचिन ने भले ही क्रिकेट से संन्यास ले लिया हो, लेकिन उनके दीगर काम-धंधे बंद नहीं हुए हैं। उनका अधिकांश वक्त कमायी के चक्कर में बीत जाता है। रेखा की भी यही सच्चाई है। वे भी यदि कभी-कभार राज्यसभा में अपनी उपस्थिति दर्शाती हैं तो गूंगी गुडिया की तरह बैठी नजर आती हैं। दूसरे सांसद उनसे मिलने और बातचीत करने को लालायित रहते हैं। राज्यसभा में भेजे जाने वाले अभिनेता हों या खिलाड़ी उन्हें देखने को सभी आतुर रहते हैं। वे भी अपनी झलक ऐसे दिखाते हैं जैसे इस धरती के भगवान हों।
राजनीतिक पार्टियों को भी राज्यसभा में उन्हीं लोगों को राज्यसभा में भेजना चाहिए जो देश के प्रति समर्पित हों। ज्ञानवान हों। प्रतिभाशाली हों। अपने क्षेत्र की विशेषताओं और समस्याओं पर बातचीत कर सकें। उनमें मौलिक चिंतन-मनन की क्षमता हो। राज्यसभा के प्रति सम्मान की भावना हो। उनकी योग्यता और विचारों से दूसरे सदस्यों के साथ-साथ देशवासी भी प्रभावित और लाभान्वित हों। विजय माल्या जैसे दारू के धंधेबाजों, अखबारों के जुगाडू मालिकों और शोषक किस्म के उद्योगपतियों ने राज्यसभा में पहुंचकर देश को ही लूटा है। उनसे देश के भले की उम्मीद करना बेमानी है। आजादी की ६८वीं वर्षगांठ पर क्या इस गंभीर विषय पर भी शासक कोई ध्यान देंगे?
क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर चरित्र के मामले में यकीनन निष्कलंक हैं फिर भी उन्हे राज्यसभा का सांसद बनाना समझदार देशवासियों को रास नहीं आया। सचिन को 'भारतरत्न' देने पर किसी ने आपत्ति नहीं उठायी थी। वे इसके हकदार थे। लेकिन उनका सांसद बनाया जाना हैरतअंगेज और शर्मनाक खेल था, जो इस देश के साथ खेला गया। यह महान कार्य कांग्रेस ने तब किया जब उसका पतन काल था। कुछ कांग्रेसियों ने अपनी पार्टी की सुप्रीमों सोनिया गांधी को यह पाठ पढाया कि सचिन पर यह मेहरबानी करने के कई फायदे होंगे। युवा वर्ग तो पार्टी से जुडेगा ही, सचिन पार्टी के चुनाव प्रचार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे। सोनिया गांधी ने हामी भरने में जरा भी देरी नहीं लगायी और रेखा के साथ-साथ सचिन का नाम भी राष्ट्रपति के पास राज्यसभा की सदस्यता हेतु नामांकन के लिए भिजवा दिया। दोनों महारथी राज्यसभा में पहुंच गए। कांग्रेस को उम्मीद थी यह दोनों सांसद लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के धुआंधार प्रचार अभियान में अपना करिश्मा दिखाएंगे। यानी उसके बडे काम आएंगे। पर इनके पास न तब समय था और न ही अब कोई समय है। यह तो शौकिया सांसद बने हैं। इन अहंकारियों को राज्यसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में अपनी कमतरी का अहसास होता है। यह तो खुद को सांसद से कहीं बहुत ऊंचा और महान समझते हैं। गौरतलब है कि संविधान निर्माताओं ने अलग-अलग क्षेत्रों की १२ श्रेष्ठतम हस्तियों को राज्यसभा की सदस्यता के लिए मनोनीत करने की व्यवस्था की थी। लेकिन इस व्यवस्था में भी राजनीति हावी होती चली गयी। विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपनी-अपनी चलायी जिसके चलते अपने-अपने क्षेत्र में पूरी तरह से काबिल और प्रतिष्ठित लोगों को राज्यसभा में पहुंचने का उतना अवसर मिल ही नहीं पाया, जितने के वे हकदार थे। रेखा और सचिन तेंदुलकर की राज्यसभा में लंबे समय से अनुपस्थिति के बाद हंगामा मचा और यह मांग भी की गयी कि इन दोनों को राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर देश पर उपकार करना चाहिए। साथ ही सरकार चलाने वालों तक यह आवाज पहुंचाने की कोशिश की गयी कि इस देश में ऐसी प्रेरक हस्तियों की कमी नहीं है जो वाकई बेहतरीन राज्यसभा सांसद साबित हो सकते हैं। गूंगों और बहरों को राज्यसभा में भेजने से अंतत: देश का ही नुकसान होगा।
स्वामी विवेकानंद कहते थे कि एक समय में एक काम करो, और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमें डाल दो और बाकी सबकुछ भूल जाओ। सोचिए जब राज्यसभा की सदस्यता के लिए ऐसे महारथियों को मनोनीत किया जाएगा जिनके कई और भी कामधंधे है तो वे राज्यसभा के प्रति कैसे समर्पित रह पाएंगे। उनका ध्यान तो अपने मूल कार्य पर केंद्रित रहेगा। सचिन ने भले ही क्रिकेट से संन्यास ले लिया हो, लेकिन उनके दीगर काम-धंधे बंद नहीं हुए हैं। उनका अधिकांश वक्त कमायी के चक्कर में बीत जाता है। रेखा की भी यही सच्चाई है। वे भी यदि कभी-कभार राज्यसभा में अपनी उपस्थिति दर्शाती हैं तो गूंगी गुडिया की तरह बैठी नजर आती हैं। दूसरे सांसद उनसे मिलने और बातचीत करने को लालायित रहते हैं। राज्यसभा में भेजे जाने वाले अभिनेता हों या खिलाड़ी उन्हें देखने को सभी आतुर रहते हैं। वे भी अपनी झलक ऐसे दिखाते हैं जैसे इस धरती के भगवान हों।
राजनीतिक पार्टियों को भी राज्यसभा में उन्हीं लोगों को राज्यसभा में भेजना चाहिए जो देश के प्रति समर्पित हों। ज्ञानवान हों। प्रतिभाशाली हों। अपने क्षेत्र की विशेषताओं और समस्याओं पर बातचीत कर सकें। उनमें मौलिक चिंतन-मनन की क्षमता हो। राज्यसभा के प्रति सम्मान की भावना हो। उनकी योग्यता और विचारों से दूसरे सदस्यों के साथ-साथ देशवासी भी प्रभावित और लाभान्वित हों। विजय माल्या जैसे दारू के धंधेबाजों, अखबारों के जुगाडू मालिकों और शोषक किस्म के उद्योगपतियों ने राज्यसभा में पहुंचकर देश को ही लूटा है। उनसे देश के भले की उम्मीद करना बेमानी है। आजादी की ६८वीं वर्षगांठ पर क्या इस गंभीर विषय पर भी शासक कोई ध्यान देंगे?
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