भारतीय राजनीति के कुछ चेहरे ऐसे हैं जो बद और बदनाम होने के बावजूद अपना असर बनाये रखते हैं। उन्हें चाहने वालों की संख्या घटती-बढती रहती है, लेकिन फिर भी उनकी राजनीति का सूरज अस्त नहीं होता। लालूप्रसाद यादव को ही लें। इस शख्स ने कितनी जेल यात्राएं कीं मीडिया का निशाना बनता रहा, फिर भी उसे कभी शर्म नहीं आयी। अभी कुछ महीने पहले ही जब चारा घोटाला के मामले में लालू को जेल भेजा गया था तो यह अनुमान भी लगने लगे थे कि इनका अब जेल में ही स्थायी ठिकाना रहेगा। लेकिन शातिर राजनेता जेल से बाहर आने के रास्ते निकाल ही लेते हैं। फिर लालू जैसे चालू नेता की तो हर राजनीतिक पार्टी को जरूरत होती है। इनका किसी एक दल से तो कभी स्थायी जुडाव होता नहीं। 'जहां दम वहां हम' की नीति पर चलते हुए जनता को बेवकूफ बनाते रहते हैं और अपनी खिचडी पकाते रहते हैं। खैर जेल से बाहर आते ही लालू फिर ऐसे सक्रिय हो गये जैसे वे जेल नहीं, किसी तीर्थ यात्रा पर गये थे। लोकसभा चुनाव में भले ही लालू को करारी मात मिली हो, लेकिन उनके लटके-झटके कायम हैं। कम ही ऐसे नेता हैं जिनमें लालू जैसी बेशर्मी और नाटकीयता की भरमार हो। मतलबपरस्ती भी उनमें कूट-कूट कर भरी हुई है। कुर्सी के लिए मर मिटने तक का जज्बा है उनमें। सिद्धांतों से कभी उनका कोई नाता नहीं रहा। ऐसे लोगों के कारण ही इस कहावत को बल मिलता है कि राजनीति में कोई भी दुश्मनी स्थायी नहीं होती। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नितिश कुमार से फिर लालू ने दोस्ती कर उपरोक्त कहावत को चरितार्थ कर ही दिया है। अब दोनों मिलकर सत्ता सुंदरी की बाहों में समाने को आतुर हैं। लेकिन उनका यह सपना आसानी से पूरा होने वाला नहीं।
लालू प्रसाद यादव की तरह ही अमर सिंह भी सत्ता के जबरदस्त भूखे हैं। वे किसी जमाने में समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के दायें हाथ कहलाते थे। इस दायें हाथ ने समाजवादी का मुखौटा ओढकर अरबों-खरबों की अवैध माया जुटायी। भ्रष्टाचार और बेइमानी का ऐसा रिकार्ड बनाया कि जिसके सामने लालू प्रसाद भी बेहद बौने हैं। दरअसल अमर सिंह का भी राजनीति में आने का एक ही मकसद था, जैसे-तैसे माल कमाना और अपार धन का मालिक बन जाना। अपने इस मकसद में उन्होंने भरपूर कामयाबी पायी। उन्होंने उद्योगपति अनिल अंबानी से लेकर अमिताभ बच्चन तक के साथ करीबी रिश्ते बनाये। अमर सिंह रिश्ते बनाने में जितने माहिर हैं तोडने में भी उतने फुर्तीले हैं। अमिताभ बच्चन के तो भाई कहलाने लगे थे अमर सिंह। अमिताभ भी उन्हें अपना बडा भाई कहते नहीं थकते थे। लेकिन जो दोस्ती स्वार्थों पर टिकी होती हैं उसमें स्थायित्व होने का सवाल ही नहीं उठता। इन दिनों अमर सिंह न्यूज चैनलों पर अमिताभ और उनकी पत्नी को कोसते नजर आते हैं। वे जया बच्चन को तो हद दर्जे की मतलबी महिला घोषित कर चुके हैं। जया की वजह से ही मुलायम सिंह और उनकी दोस्ती में दरार पडने का भी रोना रोते रहते हैं। अमर सिंह के हिस्से में भी जेलयात्रा आयी थी। लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पडा। लालू अगर बेशर्म हैं तो अमर महा बेशर्म। ऐसे लोगों के कारण राजनीति को 'वेश्या' तक कहा जाता है और नेताओं पर गालियों की बौछार होती रहती है। जिस अमर सिंह को मुलायम सिंह ने अपनी पार्टी से बाहर कर दिया था उसी को उन्होंने पिछले दिनों हंसते-हंसते गले लगा लिया। समाजवादी पार्टी के ही कार्यक्रम में अमर सिंह मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। यानी बिछडे यार फिर से एक हो सकते हैं। कहा तो यह भी जाता है कि मुलायम सिंह अमर सिंह को पार्टी से निकालना ही नहीं चाहते थे। कमाऊ पूत हमेशा प्यारा होता है। अमर सिंह तो कमाऊ यार थे जो खुद भी खा रहे थे और मुलायम का भी घर भर रहे थे। लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि मजबूरन मुलायम सिंह को कडा निर्णय लेना पडा। अपने नेता से अलग होने के बाद अमर सिंह ने यहां-वहां काफी हाथ-पैर मारे, लेकिन मुंह की खानी पडी। अमर सिंह ने मुलायम सिंह की कमियों को उजागर करने का कोई भी मौका नहीं छोडा। जहां जाते वहीं मुलायम तथा उनके परिवार की बेवफाई की दास्तान के पन्ने खोल देते। पर अमर सिंह को किसी ने भी घास नहीं डाली। सभी दल और नेता जिस थाली में खाने, उसी में छेद करने की उनकी नीति से वाकिफ हैं। फिर भी नेताजी को अमर की कमी खलती रही। लोकसभा के चुनावों में हुई शर्मनाक हार ने मुलायम सिंह को अपनी गलती का अहसास करा दिया।
दरअसल, गलती अमर सिंह की भी थी। वे खुद को पार्टी से बडा मानने लगे थे। उन्हें लगता था कि उनके बिना नेताजी चार कदम भी नहीं चल पायेंगे। चार साल के अलगाव ने दोनों को एक-दूसरे की अहमियत का अहसास दिला दिया है। वैसे अमर सिंह जमीनी नेता तो कतई नहीं हैं। सत्ता के बदनाम दलालों में उनकी गिनती की जा सकती है। जोड-तोड में माहिर हैं। अपना काम निकालने के लिए किसी भी पार्टी के नेता, उद्योगपति, माफिया से दोस्ती गांठ सकते हैं। बिफरने और दंडवत होने की कला में उनका कोई सानी नहीं है।
मुलायम सिंह यादव को अपने लाडले अखिलेश सिंह यादव पर बडा नाज था। मुख्यमंत्री बनने के बाद अखिलेश ने प्रदेशवासियों को इतना अधिक निराश किया है कि अब शायद ही वे दोबारा सत्ता पा सकें। प्रदेश की जनता तो विधानसभा के चुनावों का इंतजार कर रही है। वह बेटे और बाप को ऐसा करारा सबक सिखाना चाहती है कि जिसे वे उम्र भर न भूल पाएं। ऐसे में मुलायम को लगता है कि अमर सिंह ही उनके कोई काम आ सकते हैं। यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा कि सत्ता का दलाल अमर सिंह मुलायम की बिगडी तकदीर संवारता है या फिर घिसी-पिटी लुटिया को पूरी तरह से डूबो कर रख देता है। वैसे इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि राजनीति के बाजार में खोटे सिक्कों की भी अहमियत बनी रहती हैं।
लालू प्रसाद यादव की तरह ही अमर सिंह भी सत्ता के जबरदस्त भूखे हैं। वे किसी जमाने में समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के दायें हाथ कहलाते थे। इस दायें हाथ ने समाजवादी का मुखौटा ओढकर अरबों-खरबों की अवैध माया जुटायी। भ्रष्टाचार और बेइमानी का ऐसा रिकार्ड बनाया कि जिसके सामने लालू प्रसाद भी बेहद बौने हैं। दरअसल अमर सिंह का भी राजनीति में आने का एक ही मकसद था, जैसे-तैसे माल कमाना और अपार धन का मालिक बन जाना। अपने इस मकसद में उन्होंने भरपूर कामयाबी पायी। उन्होंने उद्योगपति अनिल अंबानी से लेकर अमिताभ बच्चन तक के साथ करीबी रिश्ते बनाये। अमर सिंह रिश्ते बनाने में जितने माहिर हैं तोडने में भी उतने फुर्तीले हैं। अमिताभ बच्चन के तो भाई कहलाने लगे थे अमर सिंह। अमिताभ भी उन्हें अपना बडा भाई कहते नहीं थकते थे। लेकिन जो दोस्ती स्वार्थों पर टिकी होती हैं उसमें स्थायित्व होने का सवाल ही नहीं उठता। इन दिनों अमर सिंह न्यूज चैनलों पर अमिताभ और उनकी पत्नी को कोसते नजर आते हैं। वे जया बच्चन को तो हद दर्जे की मतलबी महिला घोषित कर चुके हैं। जया की वजह से ही मुलायम सिंह और उनकी दोस्ती में दरार पडने का भी रोना रोते रहते हैं। अमर सिंह के हिस्से में भी जेलयात्रा आयी थी। लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पडा। लालू अगर बेशर्म हैं तो अमर महा बेशर्म। ऐसे लोगों के कारण राजनीति को 'वेश्या' तक कहा जाता है और नेताओं पर गालियों की बौछार होती रहती है। जिस अमर सिंह को मुलायम सिंह ने अपनी पार्टी से बाहर कर दिया था उसी को उन्होंने पिछले दिनों हंसते-हंसते गले लगा लिया। समाजवादी पार्टी के ही कार्यक्रम में अमर सिंह मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। यानी बिछडे यार फिर से एक हो सकते हैं। कहा तो यह भी जाता है कि मुलायम सिंह अमर सिंह को पार्टी से निकालना ही नहीं चाहते थे। कमाऊ पूत हमेशा प्यारा होता है। अमर सिंह तो कमाऊ यार थे जो खुद भी खा रहे थे और मुलायम का भी घर भर रहे थे। लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि मजबूरन मुलायम सिंह को कडा निर्णय लेना पडा। अपने नेता से अलग होने के बाद अमर सिंह ने यहां-वहां काफी हाथ-पैर मारे, लेकिन मुंह की खानी पडी। अमर सिंह ने मुलायम सिंह की कमियों को उजागर करने का कोई भी मौका नहीं छोडा। जहां जाते वहीं मुलायम तथा उनके परिवार की बेवफाई की दास्तान के पन्ने खोल देते। पर अमर सिंह को किसी ने भी घास नहीं डाली। सभी दल और नेता जिस थाली में खाने, उसी में छेद करने की उनकी नीति से वाकिफ हैं। फिर भी नेताजी को अमर की कमी खलती रही। लोकसभा के चुनावों में हुई शर्मनाक हार ने मुलायम सिंह को अपनी गलती का अहसास करा दिया।
दरअसल, गलती अमर सिंह की भी थी। वे खुद को पार्टी से बडा मानने लगे थे। उन्हें लगता था कि उनके बिना नेताजी चार कदम भी नहीं चल पायेंगे। चार साल के अलगाव ने दोनों को एक-दूसरे की अहमियत का अहसास दिला दिया है। वैसे अमर सिंह जमीनी नेता तो कतई नहीं हैं। सत्ता के बदनाम दलालों में उनकी गिनती की जा सकती है। जोड-तोड में माहिर हैं। अपना काम निकालने के लिए किसी भी पार्टी के नेता, उद्योगपति, माफिया से दोस्ती गांठ सकते हैं। बिफरने और दंडवत होने की कला में उनका कोई सानी नहीं है।
मुलायम सिंह यादव को अपने लाडले अखिलेश सिंह यादव पर बडा नाज था। मुख्यमंत्री बनने के बाद अखिलेश ने प्रदेशवासियों को इतना अधिक निराश किया है कि अब शायद ही वे दोबारा सत्ता पा सकें। प्रदेश की जनता तो विधानसभा के चुनावों का इंतजार कर रही है। वह बेटे और बाप को ऐसा करारा सबक सिखाना चाहती है कि जिसे वे उम्र भर न भूल पाएं। ऐसे में मुलायम को लगता है कि अमर सिंह ही उनके कोई काम आ सकते हैं। यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा कि सत्ता का दलाल अमर सिंह मुलायम की बिगडी तकदीर संवारता है या फिर घिसी-पिटी लुटिया को पूरी तरह से डूबो कर रख देता है। वैसे इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि राजनीति के बाजार में खोटे सिक्कों की भी अहमियत बनी रहती हैं।
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