Monday, September 29, 2014

अभिनेत्री की टुच्ची राजनीति

उनका नाम है हेमा मालिनी। तडक-भडक और खूबसूरती से उन्हें जन्मजात लगाव है। खुशहाली और खुशहाल चेहरे उनकी पहली पसंद हैं। गरीबी और बदहाली से उनका कभी कोई वास्ता नहीं पडा, इसलिए गरीबों, बेबसों और वक्त के मारों की तौहीन करने, कोसने और दुत्कारने के मौके तलाशती रहती हैं। अभिनेत्री को तो याद भी नहीं रहता कि वे धार्मिक नगरी मथुरा की सांसद हैं। जब मीडिया उन्हें बार-बार याद दिलाता है कि भाजपा की मेहरबानी से अब वे लोकसभा की सदस्य भी बन गयी हैं तब कहीं जाकर उनकी तन्द्रा टूटती है। कुछ घंटो के लिए अभिनेत्री मथुरा जाती हैं तो नानी याद आ जाती है। अकेली जान और इतने सारे काम...। किसे सुलझायें और किस-किस की सुनें। यहां तो उनकी झलक पाने के लिए लोगों की भीड लग जाती है। असली तकलीफों के मारे तो उन तक पहुंच ही नहीं पाते। ऐसे में बेचारी फिल्मी नारी अपने संसदीय क्षेत्र की विभिन्न समस्याओं से रूबरू हो तो कैसे? वैसे भी उनका मन पता नहीं कहां-कहां भटकता रहता है। इसलिए बचकाने बोलों के ढोल पीटकर लोगों का मनोरंजन करती नजर आती हैं। उन्हें जागरूक लोगों का गुस्सा तो कतई नजर नहीं आता। पिछले दिनों उन्होंने वृंदावन के एक आश्रम का दौरा किया। मथुरा संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत ही आता है वृंदावन। इसी नगरी में हजारों विधवाएं बडी दयनीय स्थिति में रहती हैं। जब उन्हें कहीं और ठौर नहीं मिलता तो वे यहां चली आती है। यहां उन्हें सुकून और शांति मिलती है। यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है। अधिकांश विधवाएं मंदिरों में कीर्तन करती हैं। कई ऐसी भी हैं जिन्हें भीख मांगकर जैसे-तैसे दिन काटने पडते हैं। मंदिरों में घंटों भजन करने वाली विधवाओं को मंदिर प्रशासन द्वारा बडी मुश्किल से पांच-दस रुपये की खैरात दी जाती है। इस घोर महंगाई के युग में पांच-दस रुपये में क्या होता है। मोटा चढावा पाने वाले मंदिरों के कर्ताधर्ता विधवाओं के साथ ऐसा शर्मनाक मजाक करते हैं कि देखने और सोचने वालों का भी सिर शर्म से झुक जाता है। वैसे भी अंधाधुंध धन की आवक के चलते अब मंदिर, मंदिर नहीं रहे। यहां भी कारोबार और कारोबारियों ने अपनी पैठ बना ली है। इस देश में जिस रफ्तार से शोरुम खुलते हैं उसी तरह से देखते ही देखते मंदिर तन जाते हैं। भक्तों की भीड लगने में देरी नहीं लगती। चढाने वाले चढाते हैं और कमाने वालों की तिजोरियां भरती चली जाती हैं।
हेमा को समझ में ही नहीं आया कि उन्हें करना और कहना क्या है। उन्होंने विधवाओं की मूलभूत समस्याओं पर गौर करने की बजाय उनपर कीचड उछाल कर अपनी अक्ल के दिवालियेपन का सबूत पेश कर दिया। वे फटाक से बोल पडीं कि बंगाल और बिहार से आने वाली विधवाओं ने इस पवित्र नगरी की तस्वीर को बिगाडकर के रख दिया है। इनकी अंटी में अच्छी-खासी रकम होती है फिर भी यह आदतन भीख मांगती हैं। वृंदावन में हजारों विधवाएं भरी पडी हैं। यह नगरी अब और विधवाओं का बोझ नहीं ढो सकती। अच्छा तो यही होगा कि विधवाएं अपने-अपने प्रदेश में वापस लौट जाएं। बंगाल और बिहार में भी मंदिरों की कमी नहीं हैं। वे बडे आराम से वहां रह सकती हैं। अभिनेत्री ने शिवसेना की तर्ज पर अलगाव के बीज बोने की चेष्टा करने की भूल तो कर डाली, लेकिन जब तालियों और वाहवाही के बदले गालियां बरसने लगीं तो चेहरे का सारे का सारा मेकअप ही उतर गया। किसी दूसरे के लिखे डायलाग बोलना जितना आसान होता है, उतना ही मुश्किल होता है सच की तह तक जा पाना। हवा में उडती फिरती अभिनेत्री ने विधवाओं पर निर्मम कटाक्ष तो कर दिया, लेकिन उन्हें उनकी मजबूरी नजर नहीं आयी। यह सच है कि वृंदावन में रहने वाली ७५ प्रतिशत विधवाओं का नाता पश्चिम बंगाल से है। पति की मौत के बाद उन्हें किसी का सहारा नहीं मिलता। जमीन-जायदाद के लालच में अपने भी बेगाने हो जाते हैं। रुढ़िवादी परंपराओं के चलते वे पुनर्विवाह भी नहीं कर पातीं। इन विधवाओं को अपनों के द्वारा ही इस कदर प्रताड़ित किया जाता है कि वे शारीरिक और मानसिक रूप से टूट जाती हैं और अंतत: उन्हें वृंदावन में आकर पनाह लेनी पडती है। बिहार और अन्य प्रदेशों की बेसहारा विधवाओं को भी यह धार्मिक नगरी हाथोंहाथ अपनाती है। कुछ विधवाएं तो इतनी कमजोर होती हैं कि उन्हें वृंदावन में भीख मांगने को विवश होना पडता है। कुछ का दैहिक शोषण भी होता रहता है। यह भी कटु सच है कि अपना घर-परिवार छोडने को मजबूर कर दी जाने वाली अधिकांश विधवाएं अनपढ और छोटी जाति की होती हैं। इन्हें अपने गांव में कोई काम नहीं मिलता। शहर भी दुत्कार देते हैं। ऐसे में बेचारी अगर वृंदावन चली आती हैं तो कौन-सा गुनाह करती हैं? यह विधवाएं किसी को कोई कष्ट नहीं देतीं। इनकी तो सारी उम्र ही कष्ट भोगते हुए कट जाती है, लेकिन हेमा ने इन्हें 'बाहरी' करार देकर अपने ओछेपन का ही परिचय दिया है। यह देश सबका है। हर नागरिक को कहीं भी रहने की आजादी है। असहाय विधवाएं पलायन को क्यों विवश होती हैं इस पर चिंतन-मनन कर कोई रास्ता निकालने की जरूरत है, न कि उन्हें फालतू मानकर दुत्कारने की। उन्हें उनका हक दिलाने की जिम्मेदारी भी जनप्रतिनिधियों पर है। सांसद ही यदि ऐसी टुच्ची और विभाजनकारी सोच रखेंगे तो देश का क्या होगा? हेमा मालिनी जैसी नारियों की सोच की अपनी एक सीमा है। उससे आगे वे जा ही नहीं सकतीं। उनसे किसी भी तरह के विकास और परिवर्तन की उम्मीद रखना बेमानी है। विधवाओं को कोसने वाली सांसद के मन में शायद ही कभी यह सवाल आया होगा कि विधवाओं को ही क्यों ऐसे दिन देखने पडते हैं? ...विधुरों को आखिर ऐसी शर्मनाक स्थितियों का सामना क्यों नहीं करना पडता?

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