फिर वही सवाल। कब तक लुटती रहेगी महिलाओं की आबरू? वो दिन कब आएंगे जब युवतियां जब चाहें तब बेफिक्र घूम-फिर सकेंगी? क्या कभी ऐसा भी होगा जब नारियां पुरुषों की भीड में खुद को पूरी तरह से सुरक्षित महसूस करेंगी। अनाचारी और व्याभिचारी कब तक कानून के डंडे से भयमुक्त होकर दानवी कुकृत्यों को अंजाम देते रहेंगे? १६ दिसंबर २०१२ में दिल्ली में दरिंदगी की शिकार बनी निर्भया की याद आज भी लोगों के दिलों में ताजा है। तब जिस तरह से देश के लोग सडकों पर उतरे थे और सरकार ने अपने कडे इरादे जताये थे उससे लगा था कि दुष्कर्मियों के हौसले पस्त हो जाएंगे। निर्भया कांड को दो साल होने जा रहे हैं। इन दो सालों में दिल्ली तो दिल्ली पूरा देश बलात्कारों से दहलता रहा। बदलाव की उम्मीदें जगायी गयीं। पर कुछ भी नहीं बदला। नयी सरकार भी मूकदर्शक बनी रही। सारे दावे धरे के धरे रह गये। भ्रष्टाचार भी वहीं का वहीं है और अनाचारियों का तांडव भी लगभग जस का तस है। २०१२ के दिसंबर की तरह २०१४ के दिसंबर में भी देश की राजधानी में एक युवती बलात्कारी की हवस का शिकार हो गयी। तब चलती बस में दुष्कर्म हुआ था, अब टैक्सी में हुआ है। कहीं भी सुरक्षा तय नहीं। हवस के पुजारियों की गिद्ध नजरें हर जगह जमी रहती हैं। बसें हों, रेलगाडियां हों, बाजार हों या फिर गली-मोहल्ले ही क्यों न हों। इनके आतंक का शासन जहां-तहां बना रहता है।
गुड़गांव की एक फाइनांस कंपनी में काम करने वाली एक युवती ने रात के समय घर जाने के लिए एक नामी-गिरामी कंपनी की कैब बुक करायी। रात दस बजे कार चालक उसके पास पहुंचा। युवती कार में बैठ गयी। रास्ते में उसकी आंख लग गयी। कार चालक को ऐसे ही मौके की तलाश थी। वह उससे छेडछाड करने लगा। युवती ने विरोध किया तो वह अपनी पर आ गया। उसने उसे डराया, धमकाया और फिर निर्मम बलात्कार कर डाला। उसने युवती को धमकाया और चेताया कि यदि वह चीखी-चिल्लायी तो वह उसका भी निर्भया जैसा हश्र करने से नहीं चूकेगा। तय है कि उसे निर्भया कांड की पूरी जानकारी थी। इस दिल को दहला देने वाले कांड को अंजाम देने वाले बलात्कारियों की हुई थू...थू और दुर्गति की भी उसे पूरी खबर थी। फिर भी वह बलात्कार करने से नहीं घबराया। कानून का उसे ज़रा भी भय नहीं लगा। यह बलात्कारी पहले भी कई महिलाओं की अस्मत लूट चुका है। वह जिस गांव का रहने वाला है उसमें ऐसा कोई घर नहीं जहां की महिलाओं के साथ उसने छेडखानी और बदसलूकी न की हो। उसके गांव वाले उसकी चरित्रहीनता की शर्मनाक दास्तानें सुनाते नहीं थकते। आश्चर्य है कि एक जगजाहिर अभ्यस्त बलात्कारी अमेरिका की जिस नामी कंपनी की कैब चलाता था, उसने भी उसका अतीत खंगालने की जरा भी कोशिश नहीं की। गिरफ्तारी के बाद उसने खुद कबूला है कि उसने पीडित युवती की गला दबाकर मारने की कोशिश की थी। पीडित युवती के पुरजोर विरोध के चलते वह सफल नहीं हो पाया।
अब इस सच पर भी गौर किया जाना चाहिए बलात्कारी शिवकुमार यादव के वृद्ध माता-पिता अपने इस बलात्कारी बेटे को फांसी पर लटकता देखना चाहते हैं। वे कतई नहीं चाहते कि कानून उस पर रहम दिखाये। क्या हर बलात्कारी के माता-पिता और उसके परिजन अपनी औलाद को दुत्कारने और सजा दिलाने की दिलेरी दिखा पाते हैं। जवाब है... बिलकुल नहीं। अधिकांश मां-बाप को अपनी संतान का कोई ऐब नजर नहीं आता। आता भी है तो छुपाने की हजार कोशिशें की जाती है। धनासेठों, उद्योगपतियों, सत्ताधीशों और नेताओं की बिगडैल औलादों के बलात्कारी होने की कितनी ही खबरें आती रहती हैं। किसी भी मां-बाप ने अपने बेटे को फांसी पर लटकाने की मंशा व्यक्त नहीं की। होता यह है कि अपने नालायक अय्याश बेटे को बचाने के लिए ताकतवर और सक्षम लोग महंगे से महंगे वकीलों की फौज खडी कर देते हैं। सभी जानते हैं इस देश में धन की माया अपरमपार है। अपने गंदे खून को सजा दिलवाने और दुत्कारने की हिम्मत न होने की वजह से ही तथाकथित ऊंचे लोगों के नीच कर्म मीडिया की सुर्खियां तो बनते हैं, लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पडता। समाज में भी उनकी इज्जत यथावत बनी रहती है। वाकई हमारा समाज बडा विचित्र है। जानबूझकर अंधा बना रहता है। जब कोई बडा धमाका होता है तो चौंकने का अभिनय करता हैं। जहां घरों में बहू-बेटियों की इज्जत पर डाका डाला जाता हो और डकैत भी अपने ही होते हों वहां पुलिस भी क्या कर सकती है? ऐसी न जाने कितनी खबरें अक्सर चौंकाती हैं कि पिता ने बेटी के साथ तो भाई ने बहन के साथ मुंह काला कर रिश्तों को कलंकित कर डाला। ताज्जुब है कि इसके लिए भी शासन और प्रशासन को दोषी ठहराया जाता है। निर्भया को जब बलात्कारियों ने चलती बस से सडक पर फेंक दिया तब वह घंटों वहीं पडी कराहती रही थी। आते-जाते लोग तमाशबीन बने रहे। दरअसल, लोग सामने आने से डरते हैं। उन्हें तरह-तरह का खौफ सताता है। ऐसे में हालात बदलने से रहे। दिखावटी इज्जत को बचाने से कहीं बहुत जरूरी है असली इज्जत को बचाना। मां-बहन, बहू-बेटी की आबरू से बढकर और कुछ होता है क्या?
गुड़गांव की एक फाइनांस कंपनी में काम करने वाली एक युवती ने रात के समय घर जाने के लिए एक नामी-गिरामी कंपनी की कैब बुक करायी। रात दस बजे कार चालक उसके पास पहुंचा। युवती कार में बैठ गयी। रास्ते में उसकी आंख लग गयी। कार चालक को ऐसे ही मौके की तलाश थी। वह उससे छेडछाड करने लगा। युवती ने विरोध किया तो वह अपनी पर आ गया। उसने उसे डराया, धमकाया और फिर निर्मम बलात्कार कर डाला। उसने युवती को धमकाया और चेताया कि यदि वह चीखी-चिल्लायी तो वह उसका भी निर्भया जैसा हश्र करने से नहीं चूकेगा। तय है कि उसे निर्भया कांड की पूरी जानकारी थी। इस दिल को दहला देने वाले कांड को अंजाम देने वाले बलात्कारियों की हुई थू...थू और दुर्गति की भी उसे पूरी खबर थी। फिर भी वह बलात्कार करने से नहीं घबराया। कानून का उसे ज़रा भी भय नहीं लगा। यह बलात्कारी पहले भी कई महिलाओं की अस्मत लूट चुका है। वह जिस गांव का रहने वाला है उसमें ऐसा कोई घर नहीं जहां की महिलाओं के साथ उसने छेडखानी और बदसलूकी न की हो। उसके गांव वाले उसकी चरित्रहीनता की शर्मनाक दास्तानें सुनाते नहीं थकते। आश्चर्य है कि एक जगजाहिर अभ्यस्त बलात्कारी अमेरिका की जिस नामी कंपनी की कैब चलाता था, उसने भी उसका अतीत खंगालने की जरा भी कोशिश नहीं की। गिरफ्तारी के बाद उसने खुद कबूला है कि उसने पीडित युवती की गला दबाकर मारने की कोशिश की थी। पीडित युवती के पुरजोर विरोध के चलते वह सफल नहीं हो पाया।
अब इस सच पर भी गौर किया जाना चाहिए बलात्कारी शिवकुमार यादव के वृद्ध माता-पिता अपने इस बलात्कारी बेटे को फांसी पर लटकता देखना चाहते हैं। वे कतई नहीं चाहते कि कानून उस पर रहम दिखाये। क्या हर बलात्कारी के माता-पिता और उसके परिजन अपनी औलाद को दुत्कारने और सजा दिलाने की दिलेरी दिखा पाते हैं। जवाब है... बिलकुल नहीं। अधिकांश मां-बाप को अपनी संतान का कोई ऐब नजर नहीं आता। आता भी है तो छुपाने की हजार कोशिशें की जाती है। धनासेठों, उद्योगपतियों, सत्ताधीशों और नेताओं की बिगडैल औलादों के बलात्कारी होने की कितनी ही खबरें आती रहती हैं। किसी भी मां-बाप ने अपने बेटे को फांसी पर लटकाने की मंशा व्यक्त नहीं की। होता यह है कि अपने नालायक अय्याश बेटे को बचाने के लिए ताकतवर और सक्षम लोग महंगे से महंगे वकीलों की फौज खडी कर देते हैं। सभी जानते हैं इस देश में धन की माया अपरमपार है। अपने गंदे खून को सजा दिलवाने और दुत्कारने की हिम्मत न होने की वजह से ही तथाकथित ऊंचे लोगों के नीच कर्म मीडिया की सुर्खियां तो बनते हैं, लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पडता। समाज में भी उनकी इज्जत यथावत बनी रहती है। वाकई हमारा समाज बडा विचित्र है। जानबूझकर अंधा बना रहता है। जब कोई बडा धमाका होता है तो चौंकने का अभिनय करता हैं। जहां घरों में बहू-बेटियों की इज्जत पर डाका डाला जाता हो और डकैत भी अपने ही होते हों वहां पुलिस भी क्या कर सकती है? ऐसी न जाने कितनी खबरें अक्सर चौंकाती हैं कि पिता ने बेटी के साथ तो भाई ने बहन के साथ मुंह काला कर रिश्तों को कलंकित कर डाला। ताज्जुब है कि इसके लिए भी शासन और प्रशासन को दोषी ठहराया जाता है। निर्भया को जब बलात्कारियों ने चलती बस से सडक पर फेंक दिया तब वह घंटों वहीं पडी कराहती रही थी। आते-जाते लोग तमाशबीन बने रहे। दरअसल, लोग सामने आने से डरते हैं। उन्हें तरह-तरह का खौफ सताता है। ऐसे में हालात बदलने से रहे। दिखावटी इज्जत को बचाने से कहीं बहुत जरूरी है असली इज्जत को बचाना। मां-बहन, बहू-बेटी की आबरू से बढकर और कुछ होता है क्या?
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