Thursday, February 5, 2015

सच की किताब का पन्ना

कर्नल एम.एन. राय। मैं नहीं जानता कि इस नाम से कितने देशवासी वाकिफ हैं। आतंकवादियों के साथ मुठभेड में शहीद हुए कर्नल एम.एन. राय मेरी निगाह में इस देश के असली नायक हैं। जिन्हें भुला पाना असंभव है। कर्नल राय को २६ जनवरी २०१५ को युद्ध सेवा मेडल से सम्मानित किया गया। मात्र एक दिन बाद वे कश्मीर के पुलवामा जिले में आतंकवादियों के छक्के छुडाते हुए शहीद हो गए। मातृभूमि के सच्चे सुपूत ने पुरस्कार का जश्न अपनी अमर शहादत देकर मनाया। सभी की आंखों में आंसू थे। जिसने भी यह खबर सुनी, दंग रह गया। वृद्ध पिता ने अपना दुलारा खो दिया। मां की आंखों का तारा चला गया। पत्नी और बच्चों के गम को शब्दों में नहीं बयां किया जा सकता। कर्नल के अपनों के लिए यह सबसे कठिन समय था। कल वो दोस्तों के साथ खिलखिला रहे थे, और दोस्त भी यह कहते नहीं थक रहे थे कि अगली बार तो अशोक चक्र पक्का है। आज अपने जिगरी दोस्त का शव उनके सामने पडा था। चेहरे पर वही देशभक्त वाली तसल्ली थी। भारत माता के लिए कुछ कर गुजरने का ज़ज्बा था। आंसू बहाती भीड से अभी भी जैसे वे कह रहे थे मैंने तो अपना फर्ज निभा दिया। अब देश तुम्हारे हवाले है। शहीद बेटे की बोलती खामोशी को पीडा के अथाह सागर में डूबे उम्रदराज पिता ने यह कहकर गुंजा दिया कि वे कर्नल राय की दोनों बेटियों और एक मात्र बेटे को सेना में ही भेजेंगे। ताकि बच्चे भी भारत माता की सेवा कर अपने पिता के सपनों को पूरा कर सकें।
यह पिता और दादा जी की दी गयी शिक्षा और संस्कारों का ही प्रतिफल है कि शहीद कर्नल की बडी बेटी अलका ने बडी दिलेरी के साथ अपने पिता के शव के समक्ष खडे होकर सैल्यूट किया और जिस तरह से पिता के रेजीमेंट की रण हुंकार भरी उससे पूरी सृष्टि में यही संदेश गया कि भारत की बहादुर बेटियां बडी से बडी कुर्बानी देने को तैयार हैं। उन्हें किसी से कमतर न समझा जाए। इस देश की नारियां बडे से बडा आघात सहने का भी दम रखती हैं। मुश्किल की घडी में उन्हें स्वजनों और खुद को भी संभालना आता है।
गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जब शहीद मेजर मुकुंद वरद राजन की पत्नी को अशोक चक्र प्रदान कर रहे थे तब उनका चेहरा खुशी और गर्व से चमक रहा था। इंदु मुकुंद कहती हैं कि यह मेरे पति के शौर्य का दिन था। गौरवान्वित होने का अभूतपूर्व समय। ऐसा मौका हर किसी को कहां नसीब होता है। मैं एक बहादुर सैनिक की हिम्मती पत्नी हूं। मुझे उन पर गर्व है। वे मेरे प्रेरणास्त्रोत थे। हमेशा कहते थे जीवन एक जंग है। जंग में घबराना कैसा। इस दुनिया में हर इंसान को एक योद्धा की तरह जीना और समस्याओं का सामना करना चाहिए। मैं अपनी बेटी को भी उन्हीं की तरह बहादुर बनाऊंगी। मैंने अभी तक उसे हकीकत से अवगत नहीं कराया है। वह तो यही समझती है कि उसके प्यारे पापा आफिस गए हैं। वह हर शाम पापा की राह देखती है और इंतजार करते-करते सो जाती है। उसने अभी अपनी उम्र के चार साल भी पूरे नहीं किए हैं। जब उसका सच से सामना होगा तो मुझे यकीन है कि वह मायूस नहीं होगी। उसका सीना भी गर्व से तन जाएगा। बहादुर माता-पिता की ताकतवर बेटी। हां यदि यह शौर्य सम्मान मेरे पति खुद लेते तो मुझे जो खुशी होती उन्हें मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती।
इस देश के हर सैनिक के लिए राष्ट्र भक्ति और राष्ट्र सेवा सर्वोपरि रही है। कुछ लोग भले ही खुद को हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई के फ्रेम में बांधते रहे हों, लेकिन फौजियों का एक ही धर्म होता है। वक्त पडने पर देश के लिए कुर्बान हो जाना। द्वितीय विश्वयुद्ध में दुश्मनों के दांत खट्टे करने वाले शाहपुर के फौजी मेहमूद खान की असहाय बूढी पत्नी दर-दर भटकने को मजबूर है। फौजी मेहमूद खान ने १९३९ से १९६१ तक सेना में रहकर देश सेवा की। उन्हें दस मेडल मिले थे। युद्ध में लडाई के दौरान सिर में गोली लगने से वे बुरी तरह से घायल हो गये। वर्षों तक इलाज चलता रहा। आज उनका कोई अता-पता नहीं है। बीस साल पहले घर से निकले थे, अभी तक नहीं लौटे। उनकी बहादुरी के कई किस्से हैं। आज उनके परिवार को दर-दर की ठोकरें खानी पड रही हैं। लाचार पत्नी ऐसी जर्जर झोपडी में रहती है जो धूप में जलाती है और पसीने से तरबतर कर देती है। बरसात के मौसम में जब झोपडी तालाब बन जाती है तो फौजी की बीवी आंसू पर आंसू बहाती है। उसे अपने पति पर नाज़ है। उसका हर पल उनके इंतजार में बीतता है। पति ने उसे एक तोहफा दिया था। ऐसा तोहफा शायद ही कभी किसी ने किसी को दिया हो। जंग में जब  फौजी की अंगुली कटी तो उन्होंने उसे अपनी जेब में रख लिया। बाद में वही कटी अंगुली उन्होंने उसे यह कहकर दे दी कि यह मेरी तरफ से तुम्हारे लिए तोहफा है। इसे रख लो। अस्सी वर्ष की अमीना के दो बेटे हैं। एक भीख मांगता फिरता है तो दूसरा हम्माली और कुलीगिरी कर बडी मुश्किल से एकाध वक्त की रोटी का जुगाड कर पाता है।

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