Thursday, February 26, 2015

छल-कपट का स्मारक

कई जनसेवक ऐसे होते हैं जो जनसेवा करते ही इसलिए हैं कि उनके नाम का डंका बजता रहे। मीडिया उनके गुणगान गाता रहे। लोग भी सतत उनकी चर्चा करते रहें। कर्नाटक की रहने वाली मंगला सोनाबणे की सोच सबसे जुदा है। वे चुपचाप काम करने में यकीन रखती हैं। कुछ वर्ष पूर्व उत्तराखंड में आयी भारी तबाही ने पूरे देश को विचलित कर दिया था। हजारों जानें चली गयी थी। कुदरत का वैसा तांडव पहले कभी देखने में नहीं आया था। न जाने कितने हंसते-खेलते परिवारों की खुशी सदा-सदा के लिए छिन गयी थी। पीडितों की मदद के लिए कई लोग आगे आए थे। इन्ही में शामिल थीं हुबली, कर्नाटक की मंगला सोनाबणे। मंगला ने जैसे ही देवभूमि पर आयी विपदा के तूफान की खबर सुनी तो वह अपना घर-बार छोडकर देवभूमि पहुंच गयीं। वहां तक जाने के लिए उनकी जेब में रेल की टिकट के पैसे नहीं थे। मंगला का मन तो बस आपदा पीडितों का हाल-चाल जानने और उनकी सहायता करने को बेचैन था। इसलिए उन्होंने अपने गहने तक बेच डाले और पहुंच गयीं उन मुसीबत के मारों के बीच जिनका देखते ही देखते सबकुछ लुट गया था। संवेदनशील मंगला आपदा पीडितों की अथक सेवा में लग गयीं। अपनी भूख-प्यास को भूल कई हफ्तों तक पीडितों की सेवा करती रहीं। अपना घर-बार छोडकर दुखियारों की सेवा के लिए निकल पडना मंगला की आदत में शुमार है। वे इसे अपना कर्तव्य मानती हैं। इंसानियत का फर्ज निभाने में उन्हें बेहद सुकून मिलता है। २००६ में जब मुंबई धमाके हुए तो मंगला ने वहां पहुंचने में भी देरी नहीं लगायी थी। उसने घायलों को अस्पताल पहुंचाने में जो भूमिका निभायी उससे कइयों ने प्रेरणा ली। वे मृतकों के परिजनों से मिलीं और उन्हें ऐसे सांत्वना देती रहीं जैसे उन्हीं की परिवार की सदस्य हों। २००८ में बिहार में कोसी नदी की बाढ से बेघर और बर्बाद हुए लोगों की सेवा में भी दिन-रात एक करने वाली यह भारतीय नारी इंसानियत की सेवा के लिए मर मिटने को तैयार रहती है। मंगला को जब भी कहीं पीडित और परेशान लोगों की खबर लगती है तो वह फौरन उनके पास पहुंच मदद में जुट जाती हैं।
जमींदार घराने से ताल्लुक रखने वाले हरपाल राणा भी असहायों और गरीबों के मसीहा हैं। दिल्ली के निकट स्थित बुरादी इलाके के कादीपुर गांव के रहने वाले हरपाल ऐसे खुशकिस्मत हैं जिनके पास अच्छी-खासी पुश्तैनी संपत्ति है। ऐसे में तो अक्सर एक आम इंसान खुद को और अधिक सम्पन्न बनाने के लिए सारे दांव अजमाता है। उसकी यही कोशिश होती है कि वह अपने परिवार के साथ मस्त रहे। दुनिया के सारे सुख भोगे। किसी भी गम का उसके परिवार पर साया न पडे।  बस जिन्दगी बडे मजे से कट जाए, लेकिन हरपाल की सोच ऐसी नहीं थी। तभी तो उन्होंने एक ऐसी डगर पकडी जिस पर धनवान चलने से कतराते हैं। हरपाल की जब अपने इर्द-गिर्द के गरीबों और मजलूमों पर नजर गयी तो उन्होंने उनकी तकलीफों को जाना। उन्होंने ठान लिया कि उन्हें खुद का तथा धन का सदुपयोग करना है। जिन्दगी ऐसे ही जाया नहीं करनी। हमारे देश में सरकारी कामकाज कैसे चलता है यह तो सभी जानते हैं। बिना रिश्वत के काम हो जाए तो मानो लाटरी खुल गयी। हरपाल  गरीबों और असहायों के साथ खडे हो गये। अनाधिकृत कालोनियों में रहने वाले लोगों को आवासीय प्रमाणपत्र नहीं होने की वजह से राशन कार्ड, जाति प्रमाण पत्र, आय प्रमाण पत्र आदि पाने में न जाने कितनी दिक्कतो का सामना करना पडता है। हरपाल ने ऐसे लोगों की मदद का बीडा उठाया है। पर्याप्त दस्तावेज नहीं होने के कारण शिक्षा से वंचित परिवारों के बच्चों को स्कूल में दाखिला दिलवाकर हजारों बच्चों का भविष्य संवार चुके हैं हरपाल। असंख्य गरीबों के राशन कार्ड बनवाने, कानूनी सहायता दिलवाने और उन्हें विभिन्न सुविधाएं दिलवाने वाले हरपाल को नाम की कतई भूख नहीं है।
 गुजरात दंगों के बाद तीस्ता सीतलवाड के नाम का डंका भी दूर-दूर तक बजा। तथाकथित धर्मनिरपेक्ष चेहरों ने तीस्ता को महिमामंडित करने का जबरदस्त अभियान चलाया। तीस्ता ने भी गुजरात दंगा पीडितों के लिए लडने-मरने का ऐसा ढिंढोरा पीटा कि मीडिया भी उसके 'दयावान' होने के गीत गाने लगा। दंगा पीडितों के कल्याण और उन्हें न्याय दिलाने के लिए तीस्ता सीतलवाड ने एनजीओ की स्थापना की। इसका सच बडा चौकाने वाला है। दंगा पीडितों की सेवा के नाम पर जुटाये गये धन ने तीस्ता और उसके परिवार के दिन ही बदल डाले। रंक को राजा बना दिया। तीस्ता सीतलवाड ने अपने पति के साथ मिलकर 'सबरंग ट्रस्ट एंड सिटीजन फार जस्टिज एंड पीस' की स्थापना तो लोगों को निस्वार्थ भाव से न्याय दिलवाने के लिए की थी, लेकिन इनकी चालाकी देखिए कि यह इसी ट्रस्ट से तनख्वाह के तौर पर मोटी रकम अंदर करती रहीं। सितलवाड को अपनी छोटी बेटी पर इतना दुलार आया कि उसने उसे फाइल तैयार करने और सूचनाओं के प्रसार के लिए करोडों रुपये उपहार में दे दिए। बेटी ने भी मुफ्त में मिले धन को होटलों की मौजमस्ती, डिजाइनर कपडों और इधर-उधर की यात्राओं में सिगरेट के धुएं की तरह उडाया। दंगा पीडितों के धन से ऐशो-आराम करने वाली तीस्ता सीतलवाड की यह तस्वीर दंगा पीडितो को आहत और निराश कर गयी है। दंगा पीडितों के लिए स्मारक बनाने का ऐलान कर इस परोपकारी समाजसेविका ने करोडों की माया जुटायी। तेरह वर्ष बीत गये। स्मारक तो नहीं बना। तीस्ता जरूर बेनकाब हो गई।

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