Thursday, March 12, 2015

आतंकी, भयावह और शर्मनाक

कल नेताजी कह रहे थे कि बेपरवाह लडकी का पहनावा पुरुष को उकसाता है। उसे आधे-अधूरे लिबास में देखकर कोई भी इंसान बेकाबू हो जाता है। उसकी वासना की आग भडक उठती है। लडकी को बहुत सोच समझकर बाहर निकलना चाहिए। खासकर रात के समय तो उसका अकेले बाहर निकलना बलात्कार जैसे खतरों को खुला निमंत्रण देना है। नेता के विचारों का अनुसरण करने वालों की कमी नहीं है। लोगों को न्याय दिलाना वकीलों का दायित्व भी है और कर्तव्य भी। अपराधियों को सज़ा दिलवाकर अपने पेशे के प्रति वफादारी निभाने वाले वकीलों की भीड के बीच कुछ चेहरे ऐसे भी हैं जिनका कोई ईमान-धर्म नहीं है। ऐसे ही चेहरों का प्रतिरूप एक वकील पहुंचे हुए ज्ञानी की तरह लोगों को बता रहा है कि लडकी तो मिठाई होती है। जिसे खाने के लिए किसी का भी मन ललचा सकता है। ऐसे में अगर मिठाई को यहां-वहां रख दोगे तो कुत्ते तो लपकेंगे ही। मिठाई तो फ्रिज में रखने की चीज़ है। यह सिर्फ वहीं सुरक्षित रह सकती है। वकील यह बताना भी नहीं भूलता कि हमारी भारतीय संस्कृति बहुत महान है। दुनिया का कोई दूसरा देश इसकी बराबरी नहीं कर सकता। यह संस्कृति ही है जो संस्कारों से बांधे रखती है। अच्छे संस्कारों का पालन करना देश की हर मां-बेटी का धर्म है। भारत की संस्कृति महिलाओं को घर से बाहर निकलने की कतई इजाजत नहीं देती। महिलाओं को समझना चाहिए कि अकेले बाहर निकलने के हजारों खतरे हैं। जब महिलाएं घर में ही सुरक्षित नहीं तो सडकों पर भी उन्हें कोई बचाने नहीं आने वाला। बलात्कारियों को चेताने की बजाए महिलाओं को डराने वाले इस महाशय को अपने विचारों पर गर्व है। उसका मानना है कि जो लोग उसके खिलाफ हैं वे खुद ढोंगी है। सच से मुंह चुराते हैं।
पढे-लिखों के विचार जानने के बाद अब नंबर आता है बलात्कारी मुकेश का जो कहता है कि बलात्कार के लिए सिर्फ और सिर्फ लडकियां ही कसूरवार होती हैं। देह दिखाने वाले वस्त्र पहनकर लडकियां बलात्कारियों को खुला आमंत्रण देती हैं। जो लडकियां रात को घर से बाहर निकलती हैं उन्हें भगवान भी नहीं बचा सकता। आधुनिकता का लबादा ओढकर सिनेमा, क्लब और डिस्को जाने वाली लडकियों का शराफत से कोई नाता नहीं होता। ऐसी भटकती लडकियां आसानी से देहखोरों की निगाह में आ जाती हैं। लडकियों को यदि खुद को महफूज रखना है तो शराफत के साथ अपने घरों में कैद रहना चाहिए। लडकियां यह क्यों भूल जाती हैं कि उनकी असली जिम्मेदारी तो घर-परिवार को संभालना है। घर के मर्दो की सेवा करना ही नारी-धर्म है। जिस बलात्कारी हत्यारे को पश्चाताप और शर्मिन्दगी के गर्त में डूब मरना चाहिए था वही छाती तानकर कहता है कि अगर निर्भया चुपचाप समर्पण कर देती तो उसका बाल भी बांका नहीं होता। वह चीखी-चिल्लायी और आखिर तक विरोध करती रही, इसी की उसने सजा पायी। अपने देश में नेता, वकील और बलात्कारी जैसी सोच रखनेवालों की कोई कमी नहीं है। उनके लिए नारी मात्र देह है। तभी तो वे हर रिश्ते को भूल जाते हैं। इन्हें कानून का भय और बदनामी की चिन्ता कभी नहीं सताती। इन्हें इससे भी कोई फर्क नहीं पडता कि इनके दुष्कर्मों की वजह से देश बदनाम हो रहा है। विदेशों में भारत को बलात्कारियों के देश के रूप में जाना जाने लगा है। देशवासी शर्मसार हैं। उनका गुस्सा संभाले नहीं संभल रहा है। इसलिए कुछ लोग गलत और सही की पहचान भी भूलने लगे हैं। नागालैंड के दीमापुर में जेल तोडकर एक बलात्कार के आरोपी को भीड द्वारा अपने कब्जे में लेकर पीट-पीटकर मार डालने की क्रूर वारदात ने कई सवाल खडे कर दिये हैं। क्या लोगों का कानून से विश्वास उठता चला जा रहा है? ऐसा तो नहीं हो सकता कि भीड यह न जानती हो कि कानून को हाथ में लेना अमानवीय कृत्य है। अक्षम्य अपराध है। फिर भी दीमापुर कांड हो गया! आठ से दस हजार की भीड ने वो कर डाला जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इस भीड में छात्र-छात्राओं का भी समावेश था। दरअसल यह जोश में होश खोने वाला कृत्य है जो आतंकित करता और डराता है।
माना कि कुछ अराजक तत्वों, धनपतियों और दबंगों ने कानून को बेदम कर डाला है। न्याय प्रक्रिया की रफ्तार बहुत धीमी है। बलात्कारी को इंसाफ की चौखट तक लाने में इतनी अधिक देरी हो जाती है कि न्याय, न्याय नहीं लगता। अपराधियों के हौसलें बुलंद हो जाते हैं। यह भी कटु सच है कि बलात्कारी दरिंदे हमारे बीच में ही उठते-बैठते और फलते-फूलते हैं। कई बार उनकी हरकतों को जानबूझकर नजरअंदाज भी कर दिया जाता है। फिर भी देश में कानून का राज है। जंगल राज नहीं। ऐसे में दीमापुर जैसी कोई भी शर्मनाक करतूत देश के मस्तक को ऊंचा तो नहीं उठा सकती। हां स्त्रियों को मिठाई और अबला मानने वाले लोग चेत जाएं। बलात्कारियों के हौसले न बढाएं। अपनी सोच और नजरिया बदलें। बर्दाश्त करने की सभी हदें पार हो चुकी हैं।

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