कई लोगों के लिए होली और दारू का चोली-दामन का साथ है। उनका मानना है कि बिन पिए कैसी होली! नशे में टुन्न होकर रंगों में डूबने का एक अलग मज़ा है। फिर होली है ही मौज-मज़े का रंगारंग त्यौहार। यही वजह है कि पीने वालों को होली का बेसब्री से इंतजार रहता है। वैसे तो देशभर में अपने-अपने अंदाज के साथ होली के उत्सव को मनाया जाता है। लेकिन बरसाने की लठमार होली की तो बात ही खास है। जिसने भी यहां एक बार होली खेली, उसका हर बार यहां आने को जी चाहता है। देश और विदेश के हजारों लोगों को बरसाने की होली के डंडे खाने और मीठी-मीठी गालियां सुनने का इंतजार रहता है। दूर-दूर से लोग आते हैं, बिना किसी भेदभाव के एक दूसरे को रंग लगाते हैं और मस्ती में डूब जाते हैं। कहीं कोई दुराव-छिपाव नहीं होता। बरसाने में शराब भी पानी की तरह बहती रही है। रंगों की मदमस्ती में कई मतवाले इतनी अधिक च‹ढा लेते हैं कि उन्हें कोई सुध-बुध नहीं रहती। हर पहचान भूल जाते हैं। महिलाएं सज-धज कर मैदान में आती हैं। "ऐसी कसक निकालूंगी... तोय होरी का मज़ा चखाय दूंगी" जैसे गीत गाते हुए हंसी-ठिठोली करती हैं। लाठियों और रंगों की बौछार के साथ खेली जाने वाली यह लठमार होली आधुनिक गोपियों और श्रीकृष्ण के सखाओं को ऐसी अनूठी दुनिया में पहुंचा देती है जहां से बाहर निकलने का उनका मन नहीं करता। कुछ पियक्कड रंग में भंग डालने से बाज नहीं आते। मर्यादा को तिलांजलि दे मां-बहन और बेटी का अर्थ ही भूल जाते हैं। उनका ओछापन आहत कर देता है। इसलिए इस बार महिलाओं ने ऐसे आपा खोने वाले नशेडियों के साथ होली नहीं खेलने की कसम खायी। उन्होंने घोषणा कर दी कि वे तभी लठमार होली खेलेंगी जब शराब के ठेके पर ताले लग जाएंगे। शराबियों के साथ हमें नहीं खेलनी होली। महिलाओं की जिद के आगे आखिरकार प्रशासन को झुकना पडा। तीन दिनों के लिए सभी शराब दुकाने बंद कर दी गयीं। राधा रानी की सखियों की जिद पूरी हुई तो उन्होंने दिल खोलकर श्रीकृष्ण के सखाओं के साथ लठमार होली खेली। श्रीधाम बरसाना की जागरूक महिलाएं कहती हैं कि होली व अन्य पर्वो पर कई लोग शराब पीकर हुडदंग करते हैं। ऐसे में उत्सव का मज़ा किरकिरा हो जाता है। खुशी की बजाय शर्मिंदगी झेलनी पडती है। होली तो कृष्ण-राधा के सात्विक प्रेम का प्रतीक है। यह रंग उत्सव है, कंस उत्सव नहीं। अपनी जीत से उत्साहित महिलाओं ने बरसाना को हमेशा-हमेशा के लिए शराब मुक्त करने का अभियान छेडने की भी तैयारी शुरु कर दी है। क्या ऐसी जिद्दी कोशिश पूरे देश में नहीं हो सकती?
कभी किसी ने सोचा भी नहीं था कि विदर्भ के शहर चंद्रपुर में महिलाओं की जंग रंग लाएगी। यहां की सजग महिलाएं वर्षों से चंद्रपुर जिले में शराब बंदी की मांग करती चली आ रही थीं। सरकार सुनने को तैयार ही नहीं थी। सरकार को शराब की कमायी ललचाती। उसे शराब पीकर बरबाद होने और बेमौत मरने वालों से क्या लेना-देना! विधानसभा और लोकसभा के चुनाव आते-जाते रहे। हर चुनाव के समय शराब बंदी के वायदे तो किये जाते, लेकिन उन्हें पूरा करने का साहस गायब हो जाता। इस बार के विधानसभा चुनाव के दौरान महिलाओं ने उसी उम्मीदवार को जितवाने की कसम खायी जो चंद्रपुर जिले में जगह-जगह आबाद शराब दुकानों और बीयरबारो को बंद करवाने का दम रखता हो। वायदे का पक्का हो। वर्षों से जिले में शराब बंदी लागू करने की मांग करने वाले सुधीर मुनगंटीवार पर महिलाओं ने भरोसा किया। उन्होंने भी अपने वायदे पर खरा उतरने में जरा भी देरी नहीं लगायी। महाराष्ट्र में जैसे भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी, वे शराब बंदी की जिद पर अड गये। अंतत: नक्सलग्रस्त चंद्रपुर जिले को शराब से मुक्ति दिलाने का ऐलान कर दिया गया। दृढ प्रतिज्ञ सुधीर मुनगंटीवार की हिम्मत को दाद देनी होगी। उन्होंने शराब बंदी करवाने में असफल होने पर अपने मंत्री पद से ही इस्तीफा देने का पक्का मन बना लिया था। उनके चंद्रपुर आगमन पर शराब विक्रताओं ने उन्हें काले झंडे दिखाए। शराब बंदी की खिलाफत करने वालों का तर्क है कि वर्धा में महात्मा गांधी के नाम पर ४० सालों से और गडचिरोली में २२ सालों से शराब पर प्रतिबंध लगा हुआ है फिर भी इन दोनों जिलों में पीने वालों को भरपूर शराब मिल जाती है। दरअसल जिनका धंधा मार खाता है उनके पक्ष हमेशा कुछ इसी तरह के ही होते हैं। शराब आखिर है तो ज़हर ही। इस जहर के कहर से उन महिलाओं से ज्यादा और कौन वाकिफ हो सकता है। जिनके पति दारू चढाकर हैवान बन जाते हैं। घर परिवार तबाह हो जाते हैं।१ अप्रैल २०१५ से चंद्रपुर जिले में देसी-विदेशी शराब बिकनी बंद हो जाएगी। दरअसल यह उन महिलाओं की जीत है, जिन्होंने लगातार नौ वर्षों तक शराब के खिलाफ अपनी लडाई जारी रखी। किसी की धमकी-चमकी से भयभीत नहीं हुर्इं।
सच्ची भारतीय नारी तो देश के हर शहर और गांव को 'कसही' जैसा देखना चाहती है। छत्तीसगढ के बालोद जिले में स्थित है, गांव कसही। इस गांव का शराब और शराबियों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। पूरी तरह से साक्षर यह गांव अपराधमुक्त है। आपसी भाईचारा भी देखते बनता है। यहां की बेटी उसी घर में ब्याही जाती है जहां शराब को नफरत की निगाह से देखा जाता हो। यह सब हुआ है कसही गांव के रहने वालों की जागरूकता की वजह से! आसपास के शहरों और गावों के लोग भी हैरत में पड जाते हैं जब उन्हें पता चलता है कि इस गांव में पिछले १०० सालों से किसी ने शराब नहीं चखी। कसही की आबादी छह सौ के आसपास है। पूरी तरह से शाकाहारियों के इस गांव में बहू लाने के पहले यह खोज-खबर ली जाती हैं कि कहीं समधियों के परिवार का कोई सदस्य मदिरा प्रेमी तो नहीं है। पूरी तरह से आश्वस्त होने के बाद ही रिश्ता जोडा जाता है। यानी इस गांव के लोग तो लोग, रिश्तेदार भी शराब से कोसों दूर रहते हैं।
कभी किसी ने सोचा भी नहीं था कि विदर्भ के शहर चंद्रपुर में महिलाओं की जंग रंग लाएगी। यहां की सजग महिलाएं वर्षों से चंद्रपुर जिले में शराब बंदी की मांग करती चली आ रही थीं। सरकार सुनने को तैयार ही नहीं थी। सरकार को शराब की कमायी ललचाती। उसे शराब पीकर बरबाद होने और बेमौत मरने वालों से क्या लेना-देना! विधानसभा और लोकसभा के चुनाव आते-जाते रहे। हर चुनाव के समय शराब बंदी के वायदे तो किये जाते, लेकिन उन्हें पूरा करने का साहस गायब हो जाता। इस बार के विधानसभा चुनाव के दौरान महिलाओं ने उसी उम्मीदवार को जितवाने की कसम खायी जो चंद्रपुर जिले में जगह-जगह आबाद शराब दुकानों और बीयरबारो को बंद करवाने का दम रखता हो। वायदे का पक्का हो। वर्षों से जिले में शराब बंदी लागू करने की मांग करने वाले सुधीर मुनगंटीवार पर महिलाओं ने भरोसा किया। उन्होंने भी अपने वायदे पर खरा उतरने में जरा भी देरी नहीं लगायी। महाराष्ट्र में जैसे भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी, वे शराब बंदी की जिद पर अड गये। अंतत: नक्सलग्रस्त चंद्रपुर जिले को शराब से मुक्ति दिलाने का ऐलान कर दिया गया। दृढ प्रतिज्ञ सुधीर मुनगंटीवार की हिम्मत को दाद देनी होगी। उन्होंने शराब बंदी करवाने में असफल होने पर अपने मंत्री पद से ही इस्तीफा देने का पक्का मन बना लिया था। उनके चंद्रपुर आगमन पर शराब विक्रताओं ने उन्हें काले झंडे दिखाए। शराब बंदी की खिलाफत करने वालों का तर्क है कि वर्धा में महात्मा गांधी के नाम पर ४० सालों से और गडचिरोली में २२ सालों से शराब पर प्रतिबंध लगा हुआ है फिर भी इन दोनों जिलों में पीने वालों को भरपूर शराब मिल जाती है। दरअसल जिनका धंधा मार खाता है उनके पक्ष हमेशा कुछ इसी तरह के ही होते हैं। शराब आखिर है तो ज़हर ही। इस जहर के कहर से उन महिलाओं से ज्यादा और कौन वाकिफ हो सकता है। जिनके पति दारू चढाकर हैवान बन जाते हैं। घर परिवार तबाह हो जाते हैं।१ अप्रैल २०१५ से चंद्रपुर जिले में देसी-विदेशी शराब बिकनी बंद हो जाएगी। दरअसल यह उन महिलाओं की जीत है, जिन्होंने लगातार नौ वर्षों तक शराब के खिलाफ अपनी लडाई जारी रखी। किसी की धमकी-चमकी से भयभीत नहीं हुर्इं।
सच्ची भारतीय नारी तो देश के हर शहर और गांव को 'कसही' जैसा देखना चाहती है। छत्तीसगढ के बालोद जिले में स्थित है, गांव कसही। इस गांव का शराब और शराबियों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। पूरी तरह से साक्षर यह गांव अपराधमुक्त है। आपसी भाईचारा भी देखते बनता है। यहां की बेटी उसी घर में ब्याही जाती है जहां शराब को नफरत की निगाह से देखा जाता हो। यह सब हुआ है कसही गांव के रहने वालों की जागरूकता की वजह से! आसपास के शहरों और गावों के लोग भी हैरत में पड जाते हैं जब उन्हें पता चलता है कि इस गांव में पिछले १०० सालों से किसी ने शराब नहीं चखी। कसही की आबादी छह सौ के आसपास है। पूरी तरह से शाकाहारियों के इस गांव में बहू लाने के पहले यह खोज-खबर ली जाती हैं कि कहीं समधियों के परिवार का कोई सदस्य मदिरा प्रेमी तो नहीं है। पूरी तरह से आश्वस्त होने के बाद ही रिश्ता जोडा जाता है। यानी इस गांव के लोग तो लोग, रिश्तेदार भी शराब से कोसों दूर रहते हैं।
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