Friday, June 26, 2015

अकेले ही लडना होगा

सरकार कहती है कि इस देश के हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। पत्रकारों पर कहीं कोई बंदिश नहीं है। निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ कलम चलाने वाले पत्रकार सम्मान के हकदार हैं। उन पर किसी भी तरह की आंच नहीं आनी चाहिए। शासन और प्रशासन उनके साथ है। क्या वास्तव में ऐसा है? उत्तरप्रदेश में एक मंत्री की गुंडई और नंगई को उजागर करने वाले पत्रकार को जलाकर खत्म कर देने की घिनौनी हरकत और मध्यप्रदेश में खनन माफिया का पर्दाफाश करने वाले पत्रकार की निर्मम हत्या तो ऐसा कतई नहीं दर्शाती। सच हमारे सामने है। बाकी सब छल, कपट, फरेब और झूठ है। सच को उजागर करने वाले कलमकारों का गला घोटने के लिए जितनी ताकतें इन दिनों सक्रिय हैं, उतनी पहले कभी नहीं हुर्इं। उन्हें पूरी आजादी है, अपने खिलाफ लिखने वाले पत्रकारों को मौत के घाट उतारने की। जो पत्रकार सत्ताधीशों के गुणगान गाएं, राजनेताओं के समक्ष मस्तक झुकाएं, माफियाओं के लूटकांड पर चुप्पी साधे रह जाएं... उनकी तो जय जय है। लेकिन उनका मरण है जो आइना दिखाते हैं, पोल खोलने का काम करते हैं। पत्रकार जगेंद्र ने मरते-मरते स्पष्ट तौर पर कहा कि मंत्री ही उसका हत्यारा है। उसी के ही कहने पर खाकी वर्दी वालों ने उस पर पेट्रोल उडेला और आग लगा दी। लेकिन उत्तरप्रदेश की समाजवादी सरकार को पत्रकार के अंतिम बयान के शब्दों का जैसे अर्थ ही नहीं समझ में आया। यह सरकारें भी अजीब हैं। जो तय कर लेती हैं, उससे टस से मस नहीं होतीं। अपने मंत्रियों-संत्रियों, शुभचिंतकों, धनपतियों, प्रभावशाली लोगों और अपने चहेतों को बचाने के लिए सभी मर्यादाओं को भी सूली पर चढा देती हैं। इस मामले में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर उ.प्र. के मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव तक सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे नजर आते हैं। यह लोग मीडिया और पत्रकारों के बिना रह भी नहीं पाते। उन पर तब तक यकीन करते हैं जब तक इनकी तारीफ होती रहे। बडी हैरतअंगेज विडंबना है। समाजवादी युवा मुख्यमंत्री अखिलेश से तो ऐसी उम्मीद नहीं थी, लेकिन वे भी अपने पिता मुलायम सिंह यादव के पद चिन्हों पर दौड रहे हैं। अखिलेश ने पत्रकार के परिवार को तीस लाख रुपये का चेक और दो लोगों को नौकरी देने का ऐलान कर दर्शा दिया है कि अब उनसे ज्यादा उम्मीदें रखना बेकार है। किसी प्राकृतिक आपदा का शिकार होकर मरने या रेल के दुर्घटनाग्रस्त होने पर मौत के मुंह में समाने वालों के परिवारों को जिस तरह से कुछ लाख का मुआवजा देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है वैसा ही पत्रकार और उसके परिवार के साथ किया गया है। अखिलेश के लिए पत्रकार की हत्या महज एक दुर्घटना है। लेकिन सच यह है कि पत्रकार की हत्या की गयी है, या फिर उसे मरने को मजबूर किया गया है। समाजवादी सरकार में शक्तिशाली माने जाने वाले मंत्री राममूर्ति सिंह वर्मा लोगों की जमीनें हडपने के खेल में माहिर हैं। अवैध रेत उत्खनन करने और अवैध निर्माण के साथ-साथ बलात्कार जैसे तमाम अपराधों को अंजाम देना उसकी आदत में शुमार है। पत्रकार ने उसका पर्दाफाश कर अपना कर्तव्य निभाया, लेकिन उसे जलाकर फूंक दिया गया! उनके एक मंत्री ने कहा भी है कि ऐसी दुर्घटनाएं होती रहती हैं। दुर्घटनाओं पर तो किसी का भी बस नहीं चलता।
ऐसी दुर्घटनाओं को अंजाम देने में म.प्र. भी पीछे नहीं है। बालाघाट के निकट स्थित कटंगी के रहने वाले पत्रकार का भी काम तमाम कर दिया गया। प्रदेश के विभिन्न समाचार पत्रों में संवाददाता के रूप में कार्यरत रहे पत्रकार संदीप कोठारी भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कलम चलाने में अग्रणी थे। उन्होंने अवैध मैंगनीज उत्खनन कर मालामाल होने वाले लुटेरों को सतत बेनकाब किया। देश के प्रदेश मध्यप्रदेश में सरकारी ठेकेदारों, खनन और रेत माफियाओं की ऐसी तूती बोलती है कि अच्छे-अच्छे पत्रकार उनके सामने ठंडे पड जाते हैं। पत्रकार संदीप में भ्रष्टों के खिलाफ लडने का जबरदस्त ज़़ज्बा था। अवैध मैंगनीज खनन माफिया ने तो उन्हें सबक सिखाने की कसम खा ली थी। उन्हें कई तरह से प्रताडित किया गया। उनके खिलाफ कई झूठे मामले दर्ज करवाये गये। पुलिस भी अपराधियों की ऐसी साथी बनी कि एक निष्पक्ष निर्भीक पत्रकार को हिस्ट्रीशीटर अपराधी दर्शा कर जिला बदर कर दिया गया। संदीप फिर भी नहीं झुके। हारना उनकी फितरत नहीं थी। अवैध खनन, चिटफंड घोटाले और अवैध कालोनियों का निर्माण कर करोडों का साम्राज्य खडा करने वाले माफियाओं ने बेगुनाह पत्रकार पर बलात्कार का मामला भी दर्ज करवा कर उनके हौसले को पस्त करने का षडयंत्र रचा। यह तो अच्छा हुआ कि माफियाओं के इशारे पर बलात्कार का आरोप लगाने वाली महिला को सदबुद्धि आयी और उसने स्वीकारा कि पत्रकार बेगुनाह है। उसने दबंगों के दबाव में आकर बलात्कार की झूठी रिपोर्ट दर्ज करवायी थी। संदीप कोठारी की निष्पक्ष पत्रकारिता का इससे बडा उदाहरण और क्या हो सकता है कि उन्होंने अपने उस चचेरे भाई को भी नहीं बख्शा जिन्होंने प्रशासन की आखों में धूल झोंककर बंदूक का लायसेंस हासिल किया था। उन्होंने भाई के गलत तरीके से बंदूक का लायसेंस लेने के खिलाफ आवाज उठायी। उन पुलिसवालों को भी लताडा जिन्होंने अपात्र को बंदूक का लायसेंस दिलवाने का रास्ता साफ किया था।
उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में शक्तिशाली गुंडे, बदमाशों और माफियाओं के खिलाफ लडने और कार्रवाई करने वाले ईमानदार कलेक्टर, तहसीलदार, इंजिनियर, पुलिस अधिकारी और आरटीआई कार्यकर्ता तक ट्रकों और बुलडोजरों से रौंद दिये जाते हैं। ईमानदार अधिकारी का तबादला कर बेइमानों और माफियाओं का मनोबल बढाया जाता है। कर्तव्यपरायण सरकारी अधिकारियों को न्याय के लिए तरसना पडता हैं। राजनेता कातिलों के साथ खडे नजर आते हैं। सरकारें भी अपनी जान की कुर्बानी देने वालों की चिंता-फिक्र नहीं करतीं। उन्हें सिर्फ अपने वोट बैंक की चिंता रहती है। अपराधी मंत्रियों, विधायकों, सांसदों आदि को इसलिए सतत बचाया जाता है क्योंकि उनके साथ उनकी जाति-वाति के असंख्य वोटर जुडे होते हैं। ऐसे में पत्रकारों की क्या औकात! उनके लिए तो बस दिखावटी संवेदना दिखा दी जाती है तो दूसरी तरफ हत्यारों को भी पुचकारा और पाला-पोसा जाता है। पत्रकारों को इस सच्चाई को नहीं भूलना चाहिए कि उन्हें अकेले ही भ्रष्टाचारियों और अनाचारियों के खिलाफ जंग लडनी है। उनकी बिरादरी में भी बहुत कम ऐसे लोग हैं जो ईमानदारी की पत्रकारिता करते हैं। अधिकांश बडे-बडे अखबारों के मालिकों का तो धन कमाने के सिवाय और कोई लक्ष्य ही नहीं बचा है। यही वजह है कि वो कभी भी अपने यहां काम करने वाले समर्पित पत्रकारों के भी साथ खडे होने का साहस नहीं दिखा पाते।

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