Thursday, June 4, 2015

पत्रकारिता का धर्म

सबसे पहले उन लाखों पाठकों का वंदन, अभिनंदन और शुक्रिया जिनकी बदौलत 'राष्ट्र पत्रिका' अपने सफलतम प्रकाशन के सातवें वर्ष में प्रवेश करने जा रहा है। हम अपने सभी शुभचिंतकों, सहयोगियों के भी तहे दिल से आभारी हैं, जिनकी आत्मीयता और अटूट सहयोग ने हमारा मनोबल बढाया। इस सच से हर कोई वाकिफ है कि आज के जमाने में अखबार निकालने के लिए भरपूर धन चाहिए। 'राष्ट्र पत्रिका' यकीनन देश का पहला समाचार पत्र है जिस पर किसी धनवान का वरदहस्त नहीं है। किसी राजनीतिक पार्टी और राजनेता से भी कोई करीबी रिश्ता नहीं है। 'राष्ट्र पत्रिका' के तो देश के लाखों पाठक और शुभचिंतक ही असली साथी हैं। इन्हीं की बदौलत हम निष्पक्षता और निर्भीकता की पत्रकारिता के धर्म को निभाने में सक्षम हो पाये हैं। 'राष्ट्र पत्रिका' की सफलता ने इस धारणा की भी धज्जियां उडा कर रख दी हैं कि सिर्फ पूंजीपति ही अखबार निकाल सकते हैं। समर्पित पत्रकारों के लिए तो उनके यहां चाकरी करने के अलावा और कोई चारा ही नहीं है।
पिछले दस-बारह वर्षों से जो मंजर सामने आये हैं वे चीख-चीख कर बता रहे हैं कि जिन अखबार मालिकों, संपादकों और पत्रकारों को सत्ता और राजनेताओं से भरपूर पोषण मिलता है उनसे निष्पक्ष पत्रकारिता की उम्मीद नहीं की जा सकती। अखबारों का स्वतंत्र होना जरूरी है। उन पर किसी के दबाव का मतलब है पत्रकारिता का दिशाहीन होकर किसी खतरनाक ताकत का गुलाम हो जाना। 'राष्ट्र पत्रिका' का दावा है कि इसका झुकाव सिर्फ और सिर्फ पाठकों की ओर है। देश और देशवासी ही हमारे लिए सर्वोपरि हैं। कोई भी प्रलोभन और ताकत इसे डिगा नहीं सकती। 'राष्ट्र पत्रिका' की निष्पक्षता के साथ एक सच और भी जुडा है कि इसमें पूर्वाग्रह से ग्रस्त खबरों के लिए कोई जगह नहीं है। 'राष्ट्र पत्रिका' में हर तरह की खबरें छापी जाती हैं। इसमें सिर्फ महानगरों को ही प्राथमिकता नहीं दी जाती। छोटे-बडे, ग्रामों और कस्बों की खबरें भी सुर्खियां पाती हैं। किसानों, मजदूरों, कलाकारों, अभावों में रहकर इतिहास रचने वाले चेहरों, दलितो-शोषितों और अन्याय ग्रस्त तमाम हिन्दुस्तानियों का मंच है 'राष्ट्र पत्रिका'। यहां किसी से कोई भेदभाव नहीं किया जाता।
आज मीडिया पर अविश्वास के काले बादल छाये हैं। कुछ बिकाऊ पत्रकारों और संपादकों के द्वारा पत्रकारिता के पवित्र पेशे को कलंकित कर दिए जाने के कारण पत्रकारिता को बाजारू और वेश्या तक का दर्जा दिया जाने लगा है। 'राष्ट्र पत्रिका' किसी को बख्शने और किसी को दबोचने की नीति पर चलने में यकीन नहीं रखता। पत्रकारिता के क्षेत्र में ऐसे नाटककार भी है जो गणेश शंकर विद्यार्थी, सुरेंद्र प्रताप सिंह, प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर जैसे मूर्घन्य संपादकों को अपना आदर्श घोषित करते नहीं थकते, लेकिन इनका असली सच कुछ और ही देखने में आता है। यह कलमकार उन संपादकों को जानता है जिनका सत्ता की दलाली करना एकमात्र पेशा है। यह महान बुद्धिजीवी किसी नौकरशाह का स्थानांतरण करवाने, किसी उद्योगपति को सरकारी जमीन दिलवाने और कारखानों का लायसेंस दिलवाने आदि...आदि के लिए कमीशनखोरी करते हैं। यह धुरंधर अपने संबंधों को भुनाने के लिए यहां से वहां सतत उडते रहते हैं। फिर भी प्रगतिशील संपादक कहलाते हैं। ऐसे संपादकों की अच्छी खासी सेना तैयार हो चुकी है जो सिर्फ और सिर्फ इन्हें अपना आदर्श मानते हुए दिन रात सत्ताधीशों, राजनेताओं, दलालों, भ्रष्ट समाजसेवकों और काले कारोबार के सरगनाओं से रिश्ते बनाने में लगी रहती है।
देश के नब्बे प्रतिशत अखबारों पर उद्योगपतियों, बिल्डरों, खनिज माफियाओं, अपराधियों और घुटे हुए राजनेताओं का कब्जा है। उनके अखबारों पर भी किसी न किसी राजनीतिक दल का ठप्पा लगा रहता है। यह अखबारीलाल सत्ता के इशारे पर ही नाचते है। जिधर दम, उधर हम की नीति से चलना इनकी फितरत है। चाटुकारिता की पत्रकारिता की बदौलत ही इनके सभी सपने पूरे हो जाते हैं। उद्योगधंधे लग जाते हैं। अरबो-खरबों की कोयले की खदानें मिल जाती हैं। राज्यसभा में पहुंचने का सपना भी पूरा हो जाता है। इन्हीं कुटिल धंधेबाजों के कारण ही कुछ प्रबुद्धजन पत्रकारिता को बिकाऊ और वेश्या का दर्जा देने से नहीं हिचकते। अभी हाल ही में एक व्यवसायी अखबार मालिक की खिलखिलाती तस्वीर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ देखने में आयी। यह महाशय कांग्रेस की मेहरबानी के चलते राज्यसभा का सदस्य भी बनते चले आ रहे हैं। कांग्रेस, सोनिया गांधी और राहुल गांधी का महिमामंडन कर इन्होंने महाराष्ट्र में अखबारों की कतार लगा दी। एक न्यूज चैनल पर भी कब्जा कर लिया। डॉ. मनमोहन के शासन काल में इस सफेदपोश ने अरबों-खरबों की कोयला खदाने हथिया कर अच्छी-खासी सुर्खियां पायी थीं। जेल जाने की नौबत भी आ गयी थी। अब देश में आयी परिवर्तन की लहर के चलते भाजपा और नरेंद्र मोदी की सरकार है। पिछले एक वर्ष से इस धनपति अखबारीलाल को भाजपा, कांग्रेस से बेहतर नजर आने लगी है। इसलिए जैसे ही नरेंद्र मोदी की सरकार ने एक वर्ष पूर्ण किया तो इस 'हुनरबाज' ने एक विशेषांक निकाला जिसे नाम दिया- 'मोदी महान'। भाजपा सरकार की आरती से परिपूर्ण इस विशेषांक को दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चरणों में अर्पित कर दिया और उनके कंधे पर हाथ रखकर ऐसी धांसू तस्वीर खिंचवायी और अपने सभी अखबारों में छपवायी कि देखने वालों को बस यही लगा कि मोदी से तो इनकी काफी घनिष्ठता है, बडा पुराना याराना है। भाजपा के शासन काल में भी इनका बाल भी बांका नहीं होने वाला। इसे कहते हैं दोनों हाथों में लड्डू रखना और हर किसी को खुश रखते हुए अपना काम निकालते जाना।
हम ऐसे अखबार मालिकों, संपादकों और पत्रकारों को पत्रकारिता का सबसे बडा शत्रु मानते हैं। इनके होते हुए पत्रकारिता की पवित्रता बरकरार नहीं रह सकती। आज देश बहुत बडे संकट से जूझ रहा है। प्रांत, जाति, धर्म, पहनावे और खानपान के आधार पर विभाजन की रेखाएं खींची जा रही हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा मंडरा रहा है। ऐसे में साप्ताहिक 'राष्ट्र पत्रिका' अपने कर्तव्य और दायित्व को नजरअंदाज नहीं कर सकता। मनमोहन सरकार की तरह नरेंद्र मोदी सरकार में भी कई खामियां हैं। इसमें भी ऐसे भ्रष्ट और दागी हैं जो लूटपाट के मौकों की तलाश में हैं। ईमानदारी से जनसेवा करना इन 'पूर्ति कुमारों' के बस की बात नहीं है। इन्होंने करोडों रुपये लुटाकर लोकसभा चुनाव जीता है। जब खर्च किया है तो किसी भी हालत में वसूलेंगे भी। भाजपा के कुछ सांसदो, साध्वी-साधुओं के बयान भी साम्प्रदायिक सौहार्द और आपसी भाईचारे की हत्या करने का ताना-बाना बुनते दिखायी देते हैं। उन्हें किसी का भी भय नहीं दिखता। ऐसे में देश के अल्पसंख्यकों में दहशत व्याप्त है। इस देश पर हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, सबका बराबर का अधिकार है। किसी की भी अवहेलना, अपमान और नजरअंदाजी लोकतंत्र का अपमान है। पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है। देश और देशवासियों को जगाए और जोडे रखना इसका फर्ज भी है और धर्म भी। 'राष्ट्र पत्रिका' की वर्षगांठ के शुभअवसर पर सभी पाठकों, विज्ञापनदाताओं, संवाददाताओं, एजेंट बंधुओं, सहयोगियों, शुभचिंतकों को असीम शुभकामनाएं... बधाई...।

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