Thursday, August 6, 2015

सूरत की असली सूरत

किसी भी शहर की असली पहचान वहां की लम्बी-चौडी सडकों, जहां-तहां तन कर खडी गगनचुम्बी इमारतों और विशालतम मॉल से नहीं, वहां पर रहने और बसने वाले लोगों से होती है। उनके व्यवहार, रहन-सहन और उनके आपसी रिश्तों से तस्वीर का काफी कुछ सच बयां हो जाता है। इमारतें तो बनती, टूटती रहती हैं। मॉल और बाजारों की शक्ल बदलने में भी देरी नहीं लगती। गुजरात के तेजी से बढते शहर सूरत को यूं तो कपडा और हीरा उद्योग के लिए जाना जाता है, लेकिन इस शहर की और भी कई विशेषताएं हैं, जो इसे खास दर्जे से भी काफी ऊपर ले जाती हैं। यह कहना कहीं कोई अतिशयोक्ति नहीं कि इस व्यावसायिक नगरी में पूरा भारत बसता है। बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, उडीसा के मेहनतकश लोगों को यह शहर सम्मानजनक नौकरियां और रोजगार उपलब्ध कराता है। हरियाणा और छत्तीसगढ के पानीपत, सोनीपत, रोहतक, झज्जर, रायपुर, बिलासपुर, कोरबा, राजनांदगांव आदि जैसे छोटे शहरों से कई लोग यहां आए और अपनी मेहनत और सूझबूझ के दम पर देखते ही देखते कपडा बाजार के सम्राट बन करोडों और अरबों में खेलने लगे। उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वे इतनी अधिक आर्थिक तरक्की कर लेंगे कि देखने वालों की आंखें चौंधिया जाएंगी। दरअसल, यह शहर बिना किसी भेदभाव के हर किसी की उन्नति और स्वागत को तत्पर रहता है। जिनके हौसले बुलंद होते हैं और अपने सपनों को साकार करने की अथाह जिद होती है, उन्हें यह नगरी कभी निराश नहीं करती। यहां पर कई पीढ़ियों से रहते चले आ रहे गुजराती भाई और अन्य बाशिंदे टांग खीचने की बजाय पीठ थपथपाने की परिपाटी के हिमायती हैं। यहां के किसी नेता ने बाहर से आने वाले लोगों के प्रति कभी रोष नहीं जताया। किसी भी उभरते नेता ने गुजरातियों को भडकाने के लिए यह भाषणबाजी नहीं उछाली कि देश के दूसरे प्रदेशों से आने वाले लोगों ने यहां के मूल निवासियों की तरक्की के रास्ते रोक दिए हैं। गुजरात और सूरत पर सिर्फ हमारा अधिकार है। अगर आपको साम्प्रदायिक सौहाद्र्र की जीवंत तस्वीर देखनी हो तो गुजरात के शहर सूरत से बेहतर और कोई जगह नहीं हो सकती। यहां पर लाख कोशिशों के बाद भी आपको गोधरा कांड और उसके बाद हुए गुजरात दंगों की याद दिलाने वाली स्मृति की परछाई तक दिखायी नहीं देगी। यह शहर कभी भी अतीत में नहीं जीता। यहां के लोग वर्तमान में जीने की कला में पारंगत हैं। जो बीत गया, वो सपना था। कटु सपनों को याद रखने से क्या फायदा...। यहां के लोग रिश्ते निभाने में कभी कोई कंजूसी नहीं करते। जाति और धर्म की संकीर्ण भावना से ऊपर उठकर इन्हें अटूट दोस्ती निभाना भी खूब आता है। ऐसी ही एक दोस्ती की दास्तां से जब मुझे रूबरू होने का अवसर मिला तो एक बारगी तो मन में विचार आया कि ऐसा तो सिर्फ फिल्मों में होता है, लेकिन यह सच है। सौ फीसदी सच। हिंदू जय और मुस्लिम जुनेद सूरत की पहचान बन चुके हैं। प्रबल एकता और भाईचारे के प्रतीक। जय और जुनेद की दोस्ती की शुरुआत लगभग तीस वर्ष पूर्व हुई। जय का पूरा नाम है जयकुमार अग्रवाल और जुनेद का मेमण जुनेद ओरावाला। दोनों के विचार मिलते थे,  इसलिए पहली मुलाकात में ही दोस्ती की ऐसी नींव पडी, जिसे आज तक कोई हिला नहीं पाया। १९८९, १९९२ तथा २००२ में जब गुजरात में दंगे हुए तो सूरत भी उनकी लपेट में आने से नहीं बच पाया था। जय और जुनेद ने चुपचाप तमाशा देखने की बजाय फौरन दंगाग्रस्त क्षेत्र में पहुंचकर पीडितों की तन-मन-धन से मदद की। इतना ही नहीं, उन्होंने दोनों समुदायों के लोगों को समझाया-बुझाया और मिलजुल कर रहने का पाठ पढाया। हमारे यहां धर्म-कर्म के ढोल तो बहुत पीटे जाते हैं, लेकिन इन्हें जीवन में उतारने का जब समय आता है तो अक्सर कन्नी काट ली जाती है। सभी धर्मों का आदर-सम्मान करने वाले जय और जुनेद के धर्म और जीवन का मूल मंत्र दुखियारों, गरीबों और सभी जरूरतमंदों की निस्वार्थ सेवा करना है। जय और जुनेद की दोस्ती को उनके परिजनों तथा समाज ने भी पूरे मन के साथ स्वीकारा और सराहा है। सभी को उनकी इस आदर्श दोस्ती पर फख्र है। दोनों के परिवारों के बीच की प्रगाढ आत्मीयता देखते बनती है। एक दूसरे के पारिवारिक कार्यक्रमों, त्योहारों में जय और जुनेद के परिवार के लोग बडे उत्साह के साथ उपस्थित होकर खुशियां मनाते हुए एक दूसरे को अटूट शुभकामनाओं और बधाई से सराबोर कर देते हैं। राजस्थान में रहने वाली जय की बहन मंजू तो जुनेद पर अपनी जान छिडकती है। उसे जुनेद पर अपने भाई जय से ज्यादा भरोसा है। वह किसी पर्व पर भले ही जय को भूल जाए, लेकिन जुनेद को याद करना नहीं भूलती। दोनों दोस्त अपने-अपने धर्म के प्रति भी पूरी तरह से समर्पित हैं। जय जहां प्रतिदिन मंदिर जाकर पूजा अर्चना करते हैं वहीं जुनेद की नियमित नमाज में कभी कोई चूक नहीं होती। इनकी दोस्ती का संदेश दूर-दूर तक पहुंचा है। सूरत तथा आसपास के इलाके के असहाय मरीजों की देखभाल करने वाली संस्था मरहूम अ. सत्तार नुरानी सार्वजनिक सहायता केंद्र में जय कुमार को सदस्य बनाया है। इस संस्था में २४ सदस्य हैं। जय कुमार एकमात्र हिंदू सदस्य हैं। सूरत के जय और जुनेद ने दोस्ती की आदर्श मिसाल पेश कर किसी कवि की लिखी इन पंक्तियों को यकीनन बडी सहजता और खूबसूरती के साथ साकार किया है :
"दोस्ती की नन्हीं-सी परिभाषा,
मैं शब्द, तुम अर्थ, तुम बिन मैं व्यर्थ।।"

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