Friday, September 4, 2015

भस्म-भभूत का धुआं और हत्याएं

इस देश में कितनी आसानी से बेखौफ होकर जिन्दा इंसान को लाश में तब्दील कर दिया जाता है। कुछ दिन तक हलचल होती है। खबर छापी और दिखायी जाती है। साफ-साफ नज़र आता है कि यह तो रस्म अदायगी है। ३० अगस्त रविवार की सुबह प्रगतिशील साहित्यकार प्रो. मलेशप्पा एम कलबुर्गी की निर्मम हत्या कर दी गयी। दो हमलावर विद्यार्थी के वेश में बाइक पर आए और ७७ वर्षीय लेखक पर गोलियां दाग कर हवा में गायब हो गए! कर्नाटक के शहर धारवाड में इंसान बसते हैं, लेकिन किसी को हत्यारे नजर नहीं आए। वैसे भी अपने यहां हत्यारों और आतंकियों को दबोचने की सारी की सारी जिम्मेदारी तो पुलिस की है। जनता तो देखकर भी अनजान बनी रहती है। देश के जाने-माने शिक्षाविद् वाम विचारक और बुद्धिजीवी कलबुर्गी ने आखिर ऐसा कौन सा गुनाह किया था कि जो उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया? अपनी सूझ-बूझ निर्भीक लेखनी की बदौलत साहित्य जगत में छा जाने वाले कलबुर्गी मूर्तिपूजा के घोर विरोधी थे। नकली संतों पर अपनी लेखनी से सतत प्रहार करते रहते थे। पाखण्ड और भस्म-भभूत का नशीला धुआं फैलाकर जनता को दकियानूसी के अंधेरे में धकेलने वाले गेरुआ वस्त्रधारियों को लताडने का कोई भी मौका नहीं छोडते थे। अंधविश्वास फैलाने वालों के खिलाफ बोलने और लिखने के कारण उन्हें कई संगठनों की नाराजगी का कोपभाजन भी बनना पडा था, लेकिन उन्होंने कभी किसी की परवाह नहीं की। अपने लेखन में रमे रहकर लोगों की आस्था के साथ खिलवाड करने वालों को बेनकाब करते रहे। पिछले ५० वर्ष में करीब ४०० शोधपत्र लिख चुके इस जाने-माने विद्धान को केंद्रीय और राज्य साहित्य अकादमी के पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका था। अपने भाषणों और लेखन के जरिए धार्मिक, सामाजिक और अन्य जीवंत मुद्दो पर अपनी बेबाक राय व्यक्त करने वाले उम्रदराज चिंतक की हत्या कर दी जाएगी इसकी तो किसी ने भी कभी कल्पना ही नहीं की थी। हालांकि खुद इस निर्भीक लेखक को खबर तो थी कि वे कट्टरपंथी संगठनों के निशाने पर हैं। उन्हें धमकियां भी मिलती रहती थीं, लेकिन वे पूरी तरह से आश्वस्त थे कि जिस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है वहां विचारों की असहमती के चलते विरोध के स्वर तो उठ सकते हैं, लेकिन गोलियां नहीं बरस सकतीं। उन्हें सरकार ने पुलिस सुरक्षा भी उपलब्ध करायी थी। लेकिन उन्हीं के तीव्र आग्रह पर घर के बाहर तैनात किये गए पुलिस कर्मियों को हटा दिया गया था। वे अक्सर कहा करते थे कि मैंने अपने जीवन में ऐसा कोई अपराध नहीं किया है जिसके लिए मुझे भयभीत होना पडे। मैं तो लोगों को जागृत करता चला आ रहा हूं। ऐसे में भयभीत होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
अंधविश्वास और धर्म के नाम पर पाखंड का बाजार सजाने वाले तांत्रिकों और पुरोहितों के खिलाफ झंडा बुलंद करने वाले तर्कशास्त्री डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की भी दो वर्ष पूर्व इसी तरह से पुणे में हत्या कर दी गयी थी। उन्हें तब गोलियां बरसाकर मौत की नींद सुला दिया गया जब वे सुबह की सैर पर निकले थे। उनका भी एक मात्र कसूर यही था कि वे अंधविश्वास, जादू-टोने, ज्योतिष, धर्म और आस्था से जुडे तमाम पाखंडों के जबरदस्त विरोधी थे। डॉ. दाभोलकर ने कई पुस्तकें लिखीं जिनमें पोंगा-पंडितों और झूठे चमत्कारों का दावा करने वालों का ऐसा पर्दाफाश किया गया कि वे तिलमिला उठे। १९८९ में उन्होंने महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिती की स्थापना कर लोगों को जागृत करने का अभियान चलाया। उनकी सक्रियता और लोगों पर पडते प्रभाव ने जहां झाडफूंक, मंत्र जाप, माला मनके, अंगूठी, पत्थर धागे, गंडा ताबीज और जादूटोने के जरिए लोगों की मुश्किलों को हल करने का झूठा दावा करने वालों का धंधा मंदा कर डाला, वहीं सफेदपोश पाखंडियों की जमात भी उन्हें अपना दुश्मन मानने लगी। अपने मायावी विज्ञापनों के जाल में फांस कर फटाफट शादी करवाने, रोजगार दिलवाने, लडकी को पटाने, नाराज प्रेमिका को मनाने और वर्षों से तरसते पति-पत्नी को तथाकथित संतान सुख दिलाने वाले बंगाली बाबाओं और महिला ज्योतिषियों की मुंबई, पुणे, नाशिक, नागपुर आदि में खूब दुकानदारी चलती है। मायानगरी मुंबई में चौबीस घंटे दौडने वाली लोकल ट्रेनों में तो जहां-तहां इन रहस्यमयी, चमत्कारी बाबाओं के विज्ञापनी पोस्टर ऐसे लगे नजर आते हैं जैसे पूरी मुंबई तकलीफों के समन्दर में डूबी हुई हो और उसे तमाम मुसीबतों से निजात दिलाने का ठेका तांत्रिको-मांत्रिकों को मिला हुआ हो। मुंबई की लाइफ लाइन मानी जाने वाली इन ट्रेनों में प्रतिदिन लाखों लोग सफर करते हैं। संपूर्ण महाराष्ट्र में ऐसे ढोंगी और पाखंडी भरे पडे हैं जो तंत्र-मंत्र, झाडफूंक और वर्षों की तपस्या के बाद हासिल की गयी जडी बूटियों से किसी भी बीमारी को भगाने का दावा कर भोले-भाले ग्रामीणों से लेकर शहरियों तक को बेवकूफ बनाते रहते हैं। डॉ. दाभोलकर ने ऐसे तमाम ठगों के खिलाफ आवाज उठायी और सज़ा के तौर पर मौत पायी। दुष्कर्मी आसाराम के जेल में जाने के बाद कई गवाहों की भी बिलकुल वैसे ही हत्या कर दी गयी जैसे कलबुर्गी और दाभोलकर की...। हमारे यहां सच का साथ देना भी खतरनाक होता जा रहा है। फिर भी कई लोग हैं जो अपना धर्म निभाने के लिए कोई भी कीमत देने को तत्पर रहते हैं, यह भी काबिलेगौर है कि आसाराम को सज़ा से बचाने के लिए जिस तरह से गवाहों की हत्याएं हुर्इं उससे कई लोग घबरा गये। जिस बहादुर लडकी के कारण आसाराम को हवालात में सडना पडा उसे भी खौफ ने दबोच लिया। वह चिंताग्रस्त हो गयी कि कहीं उसे भी गोलियों से भून कर खत्म न कर दिया जाए। जब वह आसाराम के कुकर्म का शिकार हुई थी तब ११वीं क्लास में पढ रही थी। लडकी के परिवार को धमकाने का अबाध सिलसिला चलता रहा। फिर भी लडकी डट कर खडी रही। कोर्ट कचहरी के चक्कर में उसकी पढाई छूट गयी। खौफ भी साये की तरह साथ-साथ चलता रहा। एक दिन उसने तालिबानी आतंकियों की गोलियां खाने के बाद भी हिम्मत नहीं हारने वाली मलाला की कहानी पढी। बस उसने उसी दिन ठान लिया कि अब डरना नहीं है। आगे बढना है। भय चिंता से मुक्त हो चुकी लडकी ने १२वीं की परीक्षा पास कर अब कॉलेज जाना भी शुरू कर दिया है...।

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