Thursday, September 24, 2015

यह नहीं सुधरने वाले

अपने देश के हर प्रदेश की अपनी-अपनी खासियत है, लेकिन बिहार लाजवाब है। अद्भुत और अजूबा भी। इसकी शक्ल बिगाड कर रख देने वाले यहां के नेताओं के क्या कहने! इन होशियारों को खुद के हाल का भी पता नहीं होता। अपने में मस्त रहते हैं। कब क्या कर जाएं, क्या कह जाएं और हंसी के पात्र बन जाएं इसकी भी उन्हें खबर और चिंता नहीं रहती। जातियों से ऊपर उठ पाने में असहाय यह नेता बोलना और हंसवाना खूब जानते हैं। इनकी दोस्ती कभी भी दुश्मनी में बदल सकती है। इनकी राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं है। सत्ता के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।
जिसने भी यह निष्कर्ष निकाला है उसके दिमाग में यकीनन लालू प्रसाद यादव जैसे जोकर किस्म के नेताओं की छवि बसी हुई होगी। कई लोग यह भी कहते हैं कि लालू तो कुछ ज्यादा ही बदनाम हो गये हैं, बिहार में उन जैसे ही सत्ता चलाते आ रहे हैं। जो लोग सत्ता पाने की होड में हैं उनका चरित्र भी 'जंगलराज' और 'चारा घोटाले' के नायक से अलग नहीं है। लालू प्रसाद यादव को चाहने वाले भी कमाल के हैं। उन्हें अपने नेता के महा भ्रष्टाचारी और घोर मतलबपरस्त होने से कोई फर्क नहीं पडता। खुद लालू भी तो मस्तमौला हैं कहीं कोई शर्म और मलाल नहीं। अगर किसी अन्य प्रदेश का नेता लालू की तरह बार-बार जेल गया होता तो मतदाता उन्हें घास डालना ही बंद कर देते, लेकिन बिहार तो बिहार है जहां जातिवादी नेताओं की जबरदस्त तूती बोलती है। यहां की राजनीति में खोटे सिक्के कभी बाहर नहीं होते। जिस नीतिश कुमार ने कभी चाराबाज की नालायकी और सत्ता की अंधी भूख का ढिंढोरा पीट कर बिहार की सत्ता पायी थी, वही आज लालू-लालू कर रहे हैं। उन्हें करोडों की हेराफेरी करने वाला जोकर एक ऐसा मसीहा लग रहा है जिसके साथ के बदौलत बिहार के करोडों वोटरों को लुभाया और अपना बनाया जा सकता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश की मजबूरी और बेबसी ने अपना मनोबल खो चुके लालू के सपनों को फिर से पंख लगा दिये हैं। लालू को लग रहा है कि वे एक बार फिर से किंगमेकर बनने जा रहे हैं। देश नहीं तो प्रदेश सही। सीढी तो तैयार हो रही है। खुद के लिए नहीं तो बच्चों के लिए ही सही। वंशवाद के खूंटे तो गाडने ही हैं। अपने दोनों लाडलों, तेजप्रताप और तेजस्वी को विधायक का ताज पहनवा कर ही दम लेना है...। लालू के विरासतधारी भी जानते हैं कि पिता के रहते अगर उन्होंने झंडे नहीं गाडे तो बाद में उन्हें कोई नहीं पूछने वाला। पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता चिढे हुए हैं। उन्हें अपने मुखिया का पुत्र मोह शूल की तरह चुभ रहा है।
वैसे भी देश की राजनीति वंशवाद और भाई-भतीजावाद के शिकंजे में इस कदर फंस चुकी है कि उसका इससे बाहर निकलना काफी मुश्किल है। राजनीतिक पार्टी के मुखियाओं को अपने परिजनों के अलावा किसी और पर भरोसा नहीं। गैरों के पोल खोलने और बहकने का खतरा बना रहता है। बहुत कम ऐसे कार्यकर्ता होते हैं जिन पर पार्टी सुप्रीमों की कृपा बरसती है। उनका रोल तो सिर्फ झंडा उठाने और नारे लगाने तक सीमित होता है। लोकजन पाटी के सर्वेसर्वा रामविलास पासवान की सत्ता की भूख किसी से छिपी नहीं है। जब से राजनीति में आये हैं, तभी से जिधर दम, उधर हम के उसूल पर चलते चले आ रहे हैं। इस बार अपने दुलारे चिराग को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने का उनका सपना है। उन्होंने भी अपने भाई-भतीजों और लोट-पोट हो जाने वाले विश्वासपात्रों को टिकटें देकर पार्टी के लिए वर्षों से खून पसीना बहाते चले आ रहे समर्पित कार्यकर्ताओं के साथ-साथ अपने दामाद का भी बडी बेरहमी से पत्ता काट दिया। बौखलाये दामाद अनिल कुमार साधु ने भी पहले तो बच्चों की तरह बिलख-बिलख कर रोने की नौटंकी की, लेकिन जब कहीं भी दाल गलती नजर नहीं आयी तो बगावत का बिगुल फूंक दिया। दामाद का न्यूज चैनलों पर आकर दहाडना यह भी बता गया कि विधायक और सांसद बनने के लिए ही राजनीति की राह पकडी जाती है। टिकट न मिलने से खफा साधु ने तो शैतानी सुर अलापते हुए ससुर की 'झोपडी' को फूंकने का भी ऐलान कर दिया है। इतिहास गवाह है कि घर के भेदी ही लंका ढहाते आये हैं। राष्ट्रीय लोक समता पार्टी भी अपने समर्पित कार्यकर्ताओं को खुश नहीं कर पायी। अशोक गुप्ता नामक कार्यकर्ता को टिकट मिलने का पूरा-पूरा यकीन था। जब उन्हे पता चला कि उनके साथ धोखा हुआ है तो उन्होंने हाथ-पैर पटक-पटक कर हंगामा खडा कर दिया।
अशोक गुप्ता ने दावा किया कि उन्हें जहां से उम्मीदवार बनाने का आश्वासन दिया गया था, पार्टी अध्यक्ष उपेंद्र प्रसाद कुशवाहा ने दगाबाजी करते हुए अपने समधी को वहां से प्रत्याशी बना दिया। उन्होंने वर्षों तक पार्टी के लिए खून-पसीना बहाया। अपना घर तक बेचकर अध्यक्ष को कार और पचास लाख भेंट कर दिए। टिकट मिलने के पूरे भरोसे के चलते उन्होंने तो जीप खरीद कर अपना चुनाव प्रचार भी प्रारंभ कर दिया था।
दरअसल, यह ऐसी रिश्वतबाजी और सौदेबाजी है जिससे मतदाताओं की आंखों में धूल झोंककर अपना मतलब साधा जाता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि देने वाला लेने की नहीं सोचे? राजनीतिक दलों के द्वारा चुनावी टिकटें बेचे जाने की सभी खबरें झूठी तो नहीं होतीं। मायावती, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान जैसे नवधनाढ्य पार्टी मुखिया चंदे के नाम पर क्या-क्या नहीं करते! कोई भी दल इस लेन-देन को रोकने की पहल करने की हिम्मत नहीं दिखाता। सभी को पार्टी चलाने के लिए धन चाहिए। टिकटें काटना और बेचना उनकी मजबूरी है। फिर भी वे इस सच को कबूलने में आनाकानी करते हैं! यह भी सच है कि हर बडी राजनीतिक पार्टी के पास अपने-अपने अदानी और अंबानी हैं। छोटी पार्टियां भी कहीं बडे तो कहीं छोटे धनपति खिलाडियों के बलबूते पर चलती हैं। दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश इन्हीं खिलाडियों के चक्रव्यूह में फंस चुका है। कहने को तो राजनेता देश चलाते हैं, लेकिन राजनेताओं की नकेल खिलाडियों के हाथ में ही होती है। इसलिए चुनावों के मौसम में टिकटों के बंटवारे से खफा कार्यकर्ताओं के रोने-धोने और चीखने-चिल्लाने के सिलसिले अनवरत चलते रहते हैं। नया कुछ भी नहीं है।

No comments:

Post a Comment