Thursday, January 28, 2016

प्रश्न यह भी है कि...?

बददिमाग दबंगों और रसूखदारों के अहंकार की कोई सीमा नहीं है। अपना जुल्म ढाने के लिए दलित और शोषित उनके लिए सर्व सुलभ साधन हैं। कई बार तो दलितों के साथ जानवर से भी बदतर सलूक कर उन्हें खुद के सर्वश्रेष्ट होने का गुमान होता है। उनके विषैले फन को संतुष्टि मिलती है। गरीबों और दलितो को बंधुआ मजदूर मानकर उनके साथ निष्कृष्ट व्यवहार करने की भी अपने देश में बडी शर्मनाक परिपाटी रही है। कुछ लोग दबंगों की बर्बरता के विरोध में तन कर खडे हो जाने का हौसला भी दिखाते हैं। उन्हीं में शामिल हैं... बंत सिंह। पंजाब के मनसा जिले में एक गांव है बुर्ज झब्बर! पंद्रह साल पहले की बात है। तब गांव में अमीर किसानों की चला करती थी। छोटी जाति के अधिकांश लोग अमीर किसानों के खेतों में हल चलाया करते थे। बंत सिंह भी उन्हीं बंधुआ मजदूरों में शामिल थे जिन्हें अपने मालिक के हुकम के इशारों पर दिन-रात नाचना पडता था। बंत सिंह अनपढ और गरीब जरूर थे, लेकिन उनके सपने जिन्दा थे। उनकी सोच औरों से अलग थी। गाने का भी जबर्दस्त शौक था। जब मौका मिलता गुनगुनाने लगते। संगी-साथी उनकी सोच और कला के कद्रदान थे। साथी मजदूरों को तब बहुत अच्छा लगता था जब वे सामाजिक समानता और न्याय की बातें करते हुए क्रांति के गीत गाने लगते थे। वे गांव के पहले शख्स थे जिन्होंने, अपने घर में बेटी के पैदा होने पर मिठाई बांटी थी और खूब खुशियां मनायी थीं। गांव में तो बेटों के आगमन पर ही जश्न मनाया जाता था। लोगों ने उन पर ताने कसे थे। हंसी उडायी थी। बेवकूफ बेटी के जन्म पर झूम रहा है। भूल गया है कि बेटों से ही वंश चलता है। बेटियां तो पराया धन होती हैं। तब बेटियों को घर में कैद करके रखा जाता था। पढाई-लिखायी तो बहुत दूर की सोच थी। पर बंत ने अपनी बिटिया का स्कूल में नाम लिखवा कर वर्षों से चली आ रही परंपरा के जैसे पर ही काट डाले। बिटिया को भी पढना-लिखना अच्छा लगता था। वक्त गुजरता गया। बंत की बेटी बलजीत ने उम्र के सोलहवें साल की दहलीज पर पांव धर दिये थे और दसवीं की परीक्षा की तैयारी कर रही थी। वर्ष २००० की तारीख थी छह जुलाई। बलजीत अपने पिता के सपनों को साकार करने के लिए किताबों में ही खोयी रहती थी, लेकिन ऊंची जाति के दबंगों को यह बात रास नहीं आ रही थी। एक दिन मौका पाते ही कुछ दबंगों ने बलजीत पर बलात्कार कर डाला। बंत सिंह का तो खून ही खौल उठा। करीबियों ने उसे ठंडा करने की कोशिश करते हुए समझाया कि यह कोई नयी बात नहीं है। सामंतवादी सोच वाले अमीर ऐसे ही गरीबों की लडकियों की अस्मत लुटते रहते हैं। कभी किसी ने जुबान नहीं खोली। वह भी चीखने-चिल्लाने और पुलिस के पास जाने की कोशिश न करे। इससे तो उसी की लडकी की ही बदनामी होगी। बलात्कारियों का कुछ भी नहीं बिग‹डेगा। उनकी बहुत ऊपर तक पहुंच है। तू चींटी है, वो हाथी हैं। मसल डालेंगे तुझे। समझाइश में दम था। गांव के सरपंच और लगभग तमाम प्रभावशाली लोग दलित की बेटी की अस्मत लूटने वालों के साथ हो गये थे। बंत सिंह को धन का लालच भी दिया गया। धमकाने में कोई कसर नहीं छोडी गयी। लेकिन फिर भी वह बलात्कारी दरिंदों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवाने के लिए पुलिस स्टेशन जा पहुंचा। गांव ही नहीं, पंजाब के इतिहास में पहली बार किसी दलित सिख ने ऊंची जाति के खिलाफ केस दर्ज करवाने की हिम्मत दिखायी। पूरा गांव एक तरफ था और बंत सिंह एकदम अकेले थे। बेटी की इज्जत के लुटेरों को सज़ा दिलवाने की जिद उनकी सबल साथी थी। जाति विशेष के लोगों ने उनका अघोषित बहिष्कार कर डराने और केस वापस लेने की ढेरों कोशिशें कीं। आखिरकार बंत सिंह की लडाई रंग लायी। २००४ में तीन बलात्कारियों को उम्र कैद की सजा मिली। बंत सिंह की जिद के कारण ऊंची जाति के दबंगों को मिली उम्र कैद की सजा से गांव के धनाढ्य ऐसे बौखलाए कि उन्होंने उन्हें तबाह करने की कसम खा ली। उन पर जानलेवा हमलों का सिलसिला सा चल पडा। आरोपी पकडे जाते और फिर जमानत पर रिहा होकर बंत को आतंकित करने लगते।
पांच जनवरी २००६ की सुबह वे खेत से घर लौट रहे थे। सात लोगों ने उन्हें घेर लिया। उनके हाथ में लोहे की राड, कुल्हाडी, चाकू और पिस्टल जैसे घातक हथियार थे। उन्होंने बंत के शरीर के हर हिस्से को लहुलूहान कर डाला। बंत बेहोश हो गये। हमलावरों को पक्का भरोसा था कि वे मर चुके हैं। लेकिन उनकी सांसें चल रही थीं। उन्हें अस्पताल पहुंचाया गया। डाक्टर भी दबंगों से खौफ खाते थे। उन्होंने भी इलाज में काफी ढिलायी बरती। शरीर के अंग-अंग से रिसते खून और दर्द की वजह वे तडप रहे थे, चीख रहे थे, लेकिन डॉक्टर पत्थर दिल बने रहे। बाद में उन्हें पीजीआई अस्पताल पहुंचाया गया। वहां के डॉक्टरों ने मानवता दिखायी। हालांकि गैंगरीन की वजह से उनके हाथ-पांव काटने पडे। होश में आने के बाद जब उन्हें पता चला कि वे अपंग हो चुके हैं तो भी वे मायूस नहीं हुए। अस्पताल के बिस्तर पर ही वे क्रांति के गीत गुनगुनाने लगे। धीरे-धीरे अस्पताल के वार्ड में उनके गीतो की आवाज गूंजने लगी। महीनों इलाज चलता रहा। उन्होंने अपना हौसला नहीं खोया। बलजीत को अपने पिता पर गर्व है। पिता ने जिस तरह से डटकर दबंगों का सामना किया उससे बलजीत की भी हिम्मत बढी। वह भी अन्याय के खिलाफ लडाई लडने में पीछे नहीं रहती। बंत सिंह अभी भी बिलकुल नहीं बदले हैं। उनका वही लडाकू अंदाज कायम है। अपंग होने के बावजूद भी वे आसपास के शहरों और गांवों में जाकर लोगों को शोषकों के खिलाफ खडे होने और लडने की प्रेरणा देते हैं। उनका एक ही मकसद है दलितों के जीवन में उजाला आए। वे जागें और जुल्म और अन्याय के खिलाफ बेखौफ खडे हो जाएं। अटूट संघर्ष की मिसाल बन चुके बंत सिंह पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। उनके संघर्ष का पूरा विवरण पेश करने वाली एक किताब भी छपी है। किताब की लेखिका निरुपमा दत्त बडे गर्व के साथ कहती हैं कि बंत सिंह जैसे गरीब और अनपढ इंसान ने अन्याय के खिलाफ जिस साहस के साथ खुद को झोंक दिया और किंचित भी हार नहीं मानी, वह अभूतपूर्व भी है और प्रेरणास्त्रोत भी।
१७ जनवरी २०१६ को हैदराबाद विश्व विद्यालय के दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने समूचे देश को हिलाकर रख दिया। इस विश्व विद्यालय में पहले भी आठ दलित छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। रोहित का फांसी के फंदे पर झूल जाना कई सवाल छोड गया। क्या उसका खुद को मौत के हवाले कर देने का कदम सही था? छब्बीस साल का रिसर्च स्कॉलर (शोध छात्र) रोहित वेमुला एक साधारण परिवार में जन्मा था। वह बेहद महत्वाकांक्षी था। वर्तमान व्यवस्था और कट्टरपंथी ताकतों के प्रति उसके मन में काफी रोष था। विश्वप्रसिद्ध विज्ञान लेखक कार्ल सेगान की तरह वह भी विज्ञान लेखक बनकर नाम कमाना चाहता था। उसे देश के हालात चिंतित, विचलित और परेशान कर दिया करते थे। पता नहीं यह कैसा दौर आया है कि देखते ही देखते आपसी तनातनी का माहौल बन जाता है। अपनी सुविधा और इच्छा के अनुसार किसी को राष्ट्रप्रेमी का तमगा पहना दिया जाता है तो किसी को राष्ट्रद्रोही का दर्जा देकर आहत करने में देरी नहीं की जाती। आंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य रोहित और उनके साथियों ने नकुल सिंह साहनी की विवादास्पद फिल्म 'मुजफ्फर नगर अभी बाकी है' को दिखाये जाने का समर्थन और मुंबई बम कांड के खलनायक खूनी दरिंदे याकुब मेनन को दी गयी फांसी का विरोध कर राष्ट्रीय स्वयं संघ और भाजपा की स्टूडेंट विग अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) की नाराजगी मोल ले ली थी। एबीवीपी के एक नेता ने अपना रोष जताते हुए रोहित और उनके साथियों को गुंडा बताया था। यह सच्चाई दीगर है कि बाद में उसने माफी भी मांग ली थी। आतंकी याकुब मेनन के प्रति हमदर्दी जताने वाले रोहित और उनके साथियों को राष्ट्र विरोधी करार देकर आहत किया गया था।
ऐसे में मनमुटाव और झगडा बढना ही था। एबीवीपी के एक छात्र ने यह आरोप भी जडा कि आंबेडकर स्टूडेंट एसो. के तीस छात्रों ने उसे इस कदर मारा-पीटा कि उसे अस्पताल में भर्ती होना पडा। हालांकि इसका कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिला। लेकिन फिर भी पांच दलित छात्रों को अंतत: निलंबित कर होस्टल से खदेड दिया गया। यहां तक कि उनकी फेलोशिप तक रोक दी गयी। छात्रों के समक्ष आर्थिक संकट खडा हो गया। इस सारे कांड में राजनीति का शर्मनाक खेल खेले जाने के भी आरोप लगे। नये कुलपति सत्ताधीशों के हाथों की कठपुतली बने नजर आए। सच तो यह भी हैं कि यह तो दो छात्र संगठनों की लडाई थी जिसे मिल-बैठकर निपटाया जा सकता था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। रोहित ने आत्महत्या कर ली। उसने अपने सुसाइड नोट में लिखा कि यूनिवर्सिटी प्रशासन को सभी दलित छात्रों को जहर उपलब्ध करवा देना चाहिए, क्योंकि उनके साथ भेदभाव हो रहा है। साथ ही वार्डन को सभी दलित छात्रों को कमरे में रस्सी भी उपलब्ध करवा देना चाहिए। लेकिन क्या रोहित की आत्महत्या को सही निर्णय माना जाए? क्या इसके सिवाय और कोई चारा नहीं था? ऊंची जाति के दबंगों के दांत खट्टे करने वाले बंत सिंह की तरह रोहित ने अंत तक लडने की हिम्मत क्यों नहीं दिखायी? उसकी जीवटता और संकल्प क्यों ठंडे पड गये? फांसी के फंदे पर झूलने की बजाय रोहित अगर अथक यौद्धा की भूमिका में नजर आता तो अखबारों की भुला दी जाने वाली खबरों की बजाय यकीनन बंत सिंह की तरह इतिहास में जगह पाता...।

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