Thursday, February 18, 2016

राष्ट्र है... तो हम सब हैं

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय के प्रांगण में एक आयोजन के दौरान जिस तरह से राष्ट्र विरोधी नारों की गूंज सुनायी दी उससे देशवासियों को बहुत बडा धक्का लगा। सजग भारतवासी सोचने को मजबूर हो गये कि महात्मा गांधी और भगत सिंग के देश में यह क्या हो रहा है! मतभेद और असहमति तो मानव प्रवृत्ति है, लेकिन भारतमाता को शूल चुभोने की हिमाकत ने चौंकाया भी और जगाया भी। 'आस्तीन में पल रहे सांपों' से सतर्क होना जरूरी है। इतनी शर्मनाक घटना को नजरअंदाज करना बहुत महंगा पड सकता है। हर सजग नागरिक को जागरूक हो जाना चाहिए। भारतमाता की आबो-हवा में सांस लेने वाले कुछ लोगों के खतरनाक इरादे शंकाग्रस्त होने को विवश कर रहे हैं। ऐसा भी लगता है कि वे किसी गलतफहमी के शिकार हैं। उन्होंने कहीं न कहीं यह भ्रम पाल रखा है कि उनके तथाकथित विद्रोह का साथ देने के लिए हिन्दुस्तान के करोडों लोग उनके साथ आ खडे होंगे। पर उन्हें यह कौन बताये कि इस देश के लोग भारतमाता के टुकडे होने की कल्पना को ही बर्दाश्त नहीं कर सकते। हर सजग भारतवासी आजादी की कीमत जानता और समझता है। उन्हें पता है कि कितनी कुर्बानियों के बाद हमने इसे पाया है। भारतमाता को आहत करने का काम गैर करते तो बात कुछ समझ में भी आती। यहां तो अपने ही उसको लहूलुहान करने की प्रतिस्पर्धा में लीन हैं। इससे किसे इन्कार है कि हिन्दुस्तान के हर नागरिक को अभिव्यक्ति की पूरी की पूरी आजादी है, लेकिन यही आजादी जब राष्ट्र की ही बर्बादी की कामना करने लगे तो पीडा तो होगी ही। कुछ लोग भले ही खुश हो लें, तालियां पीट लें, लेकिन जागरूक भारतवासियों का तो खून खौलेगा ही। इस बात में अब कोई खास दम नहीं दिखता कि जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय लोकतंत्र, वैचारिक असहमति और सामाजिक विषयों पर बहस और शिक्षा का अति बेहतर स्थल है। कभी रहे होंगे यहां के प्रेरक हालात, होती रही होंगी सार्थक चर्चाएं और बहसबाजियां, लेकिन अब तो यह ऐसे उन्मादियों के वर्चस्व का ठिकाना नजर आता हैं जिन्हें न तो देश के लोकतंत्र पर यकीन है, न शासन और प्रशासन पर। वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, भाजपा और नरेंद्र मोदी से बौखलाये प्रतीत होते हैं। अगर उन्हें इनसे इतनी ही नाराज़गी है तो उसे शालीन तरीके से अभिव्यक्त कर सकते थे। किसने रोका था उन्हें? अफजल गुरू को दी गयी फांसी को लेकर पहले भी कुछ लोग आपत्ति दर्ज कराते रहे हैं। यहां तक कि मानवाधिकार संगठनों ने भी विरोध जताया था, लेकिन संसद के हमले के षडयंत्रकारी को शहीद का दर्जा देकर उसका महिमामंडन करना उन शहीदों का अपमान करना है जिन्होंने संसद भवन की रक्षा और सुरक्षा के लिए अपनी जान की कुर्बानी दे दी। 'भारत तेरे टुकडे होंगे, इंशा अल्लाह, इंशा अल्लाह और तुम कितने अफजल मारोगे, घर-घर से अफजल निकलेगा के नारों के तो यही मायने हैं कि इन लोगों का आतंकवादियों से लगाव है। देशवासियों के लहुलूहान होने और बेमौत मारे जाने की इन्हे चिन्ता नहीं सताती। नक्सलियों के हाथों जब जवान शहीद होते हैं तो यह लोग खुशियां मनाते हैं। नक्सलियों की मौत पर यह मातम मनाते हैं। देशवासियों के रक्त को खौलाकर रख देने वाले इन नारेबाजों का कहना है कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया। उन्हें अपनी बात कहने की पूरी आजादी है। उनका यह हक कोई नहीं छीन सकता। यह तो 'चोरी ऊपर से सीनाजोरी' वाली बात है। इनके नारे लगाने के अंदाज से पता चल जाता है कि यह देशवासियों को ललकार रहे हैं। उन्हें चुनौती दे रहे हैं। भारतमाता का अपमान करते हुए आतंकवादियों का मनोबल बढा रहे हैं। अफसोस तो यह भी है कि इनके साथ कुछ सांसद, विधायक और मंत्री भी खडे नजर आते हैं। क्या इन्हें भारतमाता के टुकडे-टुकडे कर देने की भडकाऊ नारेबाजी की भाषा और उसके मायने समझ में नहीं आते? दरअसल यह भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने में लगे हैं। इन्हे देश के भविष्य की कोई चिन्ता नहीं हैं। यह तो बस अपना वर्तमान सुधारने के चक्कर में देश को तबाही और बर्बादी के गर्त में ढकेल देना चाहते हैं।
देश की राजधानी दिल्ली में ही प्रेस क्लब में अफजल गुरू और मकबूल बट के पक्ष में नारे लगाये गये और भारतमाता के खिलाफ जहर उगला गया। अफजल की तरह ही मकबूल बट भी हिन्दुस्तान का कट्टर दुश्मन था। इस आतंकी को १९८४ में फांसी दी गयी थी। देश के दुश्मनों के प्रति श्रद्धा दिखाकर राष्ट्र विरोधी नारेबाजी करने और लोगों की भावनाएं भडकाने को आतुर यह विषैले चेहरे विदेशी धन और ताकत की बदौलत कूदते-फांदते हुए अशांति और अस्थिरता लाना चाहते हैं। प्रेस क्लब में आतंकियों की याद में आयोजित कार्यक्रम में मंच पर बैठे वक्ताओं के पीछे की दीवार पर अपने आदर्श अफजल गुरू और मकबूल बट का विशाल फोटो लगाने वालों ने भी कश्मीर की आजादी और पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाकर देशवासियो को भावी खतरे से अवगत करा दिया। इन खतरनाक लोगों को भारत की न्याय व्यवस्था पर कोई भरोसा नहीं है। इनका मानना है कि अफजल गुरू और मकबूल बट के साथ बेइंसाफी की गयी। इन दोनों आतंकियों को न्यायिक अत्याचार का शिकार बनाकर फांसी के फंदे पर लटका दिया गया। इनकी सोच वाकई हैरत में डालने वाली है। हमें तो ऐसा भी लगता है कि यदि भविष्य में दरिंदा हत्यारा दाऊद इब्राहिम पकड में आता है और फांसी पर लटका दिया जाता है तो इस तरह के कई लोग उसके भी पक्ष में खडे नजर आ सकते हैं। मुंबई हमले के सरगना याकूब मेनन की फांसी पर भी ऐसे लोगों ने कम आंसू नहीं बहाये थे। उसे बेकसूर बताकर भारतीय न्याय व्यवस्था को कठघरे में खडा कर दिया था। यह लोग आम भारतीय की सोच और समझ से अंजान हैं या फिर जानबूझकर हकीकत से मुंह चुराये हुए हैं।  अभिव्यक्ति की आजादी सभी का मूलभूत अधिकार हैं, लेकिन राष्ट्रद्रोहियों का यशोगान और राष्ट्र का अपमान किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इनकी देखा-देखी देश में और भी कुछ विश्व विद्यालयों के छात्रों का आतंकवादियों की तरफ बढता झुकाव और सहानुभूति चिन्ता का विषय है। इन हालातों ने देश के हर सजग नागरिक को चिन्ता में डाल दिया है। देशभक्त लेखक और कवि कितने चिन्तित हैं उसकी गवाह हैं नागपुर के जागरूक कवि अविनाश बागडे की कविता की यह पंक्तियां...'
'अपने पैरों पर कुल्हाडी-सा बयान मत देना
किसी के हाथ में जाकर ये हिन्दुस्तान मत देना
'तुमङ्क तुम हो जब तक देश है जिन्दा
सियासत में गवां अपना कभी ईमान मत देना।'

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