सवा सौ करोड से अधिक की जनसंख्या वाले देश में कुछ लोग हर वक्त बेचैन रहते हैं। उनकी नजर दूसरों की थाली पर टिकी रहती है। जब उनके नापसंद लोगों को कोई उपलब्धि हासिल होती है तो उनकी नींद उड जाती है। पुरस्कार और सम्मान किसे अच्छे नहीं लगते। सरकारी पुरस्कारों और सुविधाओं की तो बात ही निराली है। अनेकों लोग इन्हें पाने की आस लगाये रहते हैं। इनमें लायक भी होते हैं और नालायक भी। लायक खामोशी के साथ अपने काम में लगे रहते हैं, नालायक नगाडे बजाते रहते हैं। इसलिए उनकी आवाज जहां-तहां गूंजती रहती है। इस विशालतम देश में पुरस्कार कम हैं, उम्मीदवार बहुत-बहुत ज्यादा। इसलिए जब भी पद्म एवं अन्य सरकारी पुरस्कारों की घोषणा होती है तो पाने वाले गदगद हो जाते हैं और जो वंचित रह जाते हैं वे सत्ता और व्यवस्था को कोसते हुए पुरस्कार पाने वालों के अतीत के पन्ने खोलने में लग जाते हैं। इस बार भी जैसे ही पद्म पुरस्कारों की घोषणा हुई तो कुछ साहित्यकार, संपादक, पत्रकार, नेता खिसियानी बिल्ली की तरह खंभा नोचने लगे। फिल्म अभिनेता अनुपम खेर को पद्म भूषण मिलने पर तथाकथित प्रगतिशीलों की छाती पर सांप रेंगने लगे। बेचारे ऐसे छटपटाये जैसे भरे मेले में लुट गये हों। उम्रदराज अभिनेता को शर्मिंदा करने के लिए तरह-तरह की बातें की जाने लगीं। उन्हें याद दिलाया गया कि आपने तो पिछले वर्ष २६ जनवरी २०१५ को बहुत तन कर यह ट्वीट किया था कि हमारे देश में पुरस्कार मजाक का सिस्टम बनकर रह गये हैं। इनमें विश्वसनीयता बाकी नहीं रह गयी है, चाहे वे फिल्म पुरस्कार हों, राष्ट्रीय पुरस्कार या पद्म पुरस्कार। फिर ऐसे में २०१६ में क्या परिवर्तन आ गया कि जैसे ही आपको पद्म भूषण सम्मान देने की घोषणा हुई, आप खुशी के मारे उछलने लगे और फौरन यह ट्वीट कर डाला कि... 'यह बात साझा करते हुए मैं सम्मानित महसूस कर रहा हूं कि सरकार ने मुझे पद्म भूषण सम्मान से नवाजा है, यह मेरे जीवन की सबसे बडी खबर है।' २००४ में पद्मश्री से नवाजे जा चुके अभिनेता अनुपम खेर एक अच्छे लेखक भी है। उन्होंने उन साहित्यकारों, कलाकारों और चिंतकों को खरी-खरी सुनायी जिन्हें देश में असहिष्णुता नजर आती है। अभिनेता का यह रवैय्या कई लोगों को पसंद नहीं आया, लेकिन सत्ताधीशों को अनुपम के रोल में दम नजर आया। उनकी पत्नी को लोकसभा का चुनाव लडवाकर संसद भवन पहुंचाने के बाद अब सरकार का पोस्टर ब्वॉय बने अनुपम को भी ऐसा ईनाम दे डाला जिसकी वे वर्षों से आस लगाये थे। भले ही वे ऐसे पुरस्कारों पर सवालिया निशान भी लगाने से नहीं चूक रहे थे। समझदारों की यही तो कलाकारी है जिसे आमजन नहीं समझ पाते। यह भी सच है कि अनुपम की करनी और कथनी पर सवाल उठाने वाले अधिकांश चेहरे भी जिधर दम उधर हम की लीक पर चलकर चाटुकारिता की सभी सीमाएं पार करते रहे हैं। बदकिस्मती से इनका नंबर नहीं लग पाया। उनका गुस्सा अनुपम को पुरस्कृत किये जाने को लेकर नहीं, खुद को नजरअंदाज किये जाने पर है। यदि कहीं इन्हें कोई पद्म पुरस्कार मिल जाता तो इन्हें अनुपम के ट्वीट की याद नहीं आती। संपर्कों का फायदा उठाने में इनका भी कोई सानी नहीं है। एक अखबार के मालिक, जो जोड-जुगाडकर राज्यसभा के सदस्य बनते चले आ रहे हैं, ने रहस्योद्घाटन किया है कि मुझे अच्छी तरह से पता है कि ऐसे पुरस्कारों में हर तरह की राजनीति होती है। सम्पादक महोदय इस सच को तब उजागर क्यों नहीं कर पाये जब देश में कांग्रेस की सरकार थी? यकीनन उनकी कलम की स्याही तब इस वजह से सूख गयी थी क्योंकि वे कांग्रेस की मेहरबानी से राज्यसभा सदस्य बनने के साथ-साथ कोयला खदानें और तरह-तरह की फायदे पाते चले आ रहे थे। वर्तमान में वजनी केंद्रीय मंत्रियों का बार-बार गुणगान करना उनकी असली मंशा को छिपा नहीं पाता। इस कलमकार का दावा है आने वाले वर्षो में जब भी ऐसे पुरस्कार से वंचित आलोचकों को खुश कर दिया जायेगा तो इन्हें पुरस्कारों में कोई राजनीति नजर नहीं आयेगी। यह भी अनुपम की तरह खुद को सम्मानित महसूस करते हुए सरकार के वंदन और अभिनंदन के गीत गाते नजर आएंगे। यही दस्तूर है जो पाता है वही गाता है और बाकी अपना माथा पीटते रह जाते हैं। धीरूभाई अंबानी की तरक्की दर तरक्की का इतिहास बताता है कि उन्होंने सत्ता और व्यवस्था को साध कर इतनी अपार दौलत कमायी कि लोगों की आंखें चौंधिया गयीं। धीरूभाई अंबानी अफसरशाही को अपनी मुट्ठी में कर अपना हर काम निकालने की कला में पारंगत थे। उनके बेटे मुकेश और अनिल अंबानी भी पिता के पद चिन्हों पर चल रहे हैं। इनकी हैरतअंगेज तरक्की बताती है कि जिन्हें सत्ता का साथ मिल जाता है उनका रास्ता रोकना असंभव है। भले ही कितने ही आडे-टेडे काम करते चले जाएं। अगर आज की पीढी अंबानियों को अपना आदर्श मान ले तो देश का कबाडा होने में देरी नहीं लगेगी। धीरूभाई को देश का दूसरा सर्वोच्च सम्मान पद्म विभूषण दिये जाने पर किसी न्यूज चैनल मालिक, अखबार मालिक तथा संपादक ने सवालों की झडी नहीं लगायी। मुकेश और अनिल अंबानी से मिलने वाले करोडों रुपये के विज्ञापनों ने उनकी बोलती बंद कर दी।
यह मान लेने में कहीं कोई हर्ज नहीं कि अधिकांश पद्म सम्मानों का पात्रता और योग्यता से कोई लेना-देना नहीं है। जो लोग सत्ताधीशों का किसी न किसी तरह से साथ देते हैं और वाह-वाही करते हैं उनका नंबर सबसे पहले लगता है। धीरूभाई में यही गुण था। अनुपम जैसे पुरस्कृत चेहरे भी उन्हीं के पथगामी हैं। उद्योगजगत के करिश्माई व्यक्तित्व, जीटीवी के मालिक सुभाष चंद्रा की आत्मकथा का सार ही यही है कि हुक्मरानों की मेहरबानी और करीबी की बदौलत कुछ भी हासिल किया जा सकता है। सुभाष चंद्रा पर अगर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की कृपा दृष्टि नहीं होती तो वे विदेशों में चावल का अंधाधुंध निर्यात कर अरबों-खरबों रुपये नहीं जुटा पाते। उन्होंने सत्ता के दलालों से करीबी रिश्ते बनाकर जो आर्थिक साम्राज्य खडा किया है उससे तो यही लगता है कि वे भी धीरूभाई अंबानी के सजग चेले हैं। इस बार धीरूभाई को पद्म विभुषण से नवाजा गया है तो आने वाले वर्षों में संपर्कों के शहशांह सुभाष चंद्रा का नंबर लगना तय है। पिछले दिनों उनकी आत्मकथा की पुस्तक के विमोचन के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं स्वीकारा कि उनकी चंद्रा परिवार से करीबियां रही हैं। यही रिश्ते बहुत फलदायी होते हैं। मजदूरों को कोई नहीं पूछता। इमारतों के मालिकों का ही नाम होता है। नंबर तो मुकेश अंबानी, अदानी और उन जैसे तमाम उद्योगपतियों का भी लगना तय है जिन्होंने चुनाव के वक्त अंधाधुंध थैलियां देने में कोई कंजूसी नहीं की। ऐसे दाता और पाता का रिश्ता ही स्वार्थ पर ही टिका होता है। ऐसे में उन्हें कतई निराश नहीं होना चाहिए जिन्होंने आडे वक्त में अपने चहेते नेताओं की चुनावी सहायता की और आज वे सत्ता पर विराजमान हैं। देश के करोडो-करोडो लोगों के अच्छे दिन भले ही न आएं, लेकिन सेवकों और चाटूकारों की किस्मत जरूर चमकेगी। वो सम्पादक, पत्रकार, साहित्यकार भी निराश न हों जिनका काम ही सत्ताधीशों के तारीफों के पुल बांधना है। उन्हें भी थोडा सब्र करना चाहिए जो किसी भी तरह का पुरस्कार पाने के लिए मंत्रियों, सांसदों और विधायकों की चौखटों पर नाक रगडने में कतई नहीं हिचकिचाते। यह कहावत गलत नहीं कि 'सब्र का फल मीठा होता है।'
यह मान लेने में कहीं कोई हर्ज नहीं कि अधिकांश पद्म सम्मानों का पात्रता और योग्यता से कोई लेना-देना नहीं है। जो लोग सत्ताधीशों का किसी न किसी तरह से साथ देते हैं और वाह-वाही करते हैं उनका नंबर सबसे पहले लगता है। धीरूभाई में यही गुण था। अनुपम जैसे पुरस्कृत चेहरे भी उन्हीं के पथगामी हैं। उद्योगजगत के करिश्माई व्यक्तित्व, जीटीवी के मालिक सुभाष चंद्रा की आत्मकथा का सार ही यही है कि हुक्मरानों की मेहरबानी और करीबी की बदौलत कुछ भी हासिल किया जा सकता है। सुभाष चंद्रा पर अगर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की कृपा दृष्टि नहीं होती तो वे विदेशों में चावल का अंधाधुंध निर्यात कर अरबों-खरबों रुपये नहीं जुटा पाते। उन्होंने सत्ता के दलालों से करीबी रिश्ते बनाकर जो आर्थिक साम्राज्य खडा किया है उससे तो यही लगता है कि वे भी धीरूभाई अंबानी के सजग चेले हैं। इस बार धीरूभाई को पद्म विभुषण से नवाजा गया है तो आने वाले वर्षों में संपर्कों के शहशांह सुभाष चंद्रा का नंबर लगना तय है। पिछले दिनों उनकी आत्मकथा की पुस्तक के विमोचन के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं स्वीकारा कि उनकी चंद्रा परिवार से करीबियां रही हैं। यही रिश्ते बहुत फलदायी होते हैं। मजदूरों को कोई नहीं पूछता। इमारतों के मालिकों का ही नाम होता है। नंबर तो मुकेश अंबानी, अदानी और उन जैसे तमाम उद्योगपतियों का भी लगना तय है जिन्होंने चुनाव के वक्त अंधाधुंध थैलियां देने में कोई कंजूसी नहीं की। ऐसे दाता और पाता का रिश्ता ही स्वार्थ पर ही टिका होता है। ऐसे में उन्हें कतई निराश नहीं होना चाहिए जिन्होंने आडे वक्त में अपने चहेते नेताओं की चुनावी सहायता की और आज वे सत्ता पर विराजमान हैं। देश के करोडो-करोडो लोगों के अच्छे दिन भले ही न आएं, लेकिन सेवकों और चाटूकारों की किस्मत जरूर चमकेगी। वो सम्पादक, पत्रकार, साहित्यकार भी निराश न हों जिनका काम ही सत्ताधीशों के तारीफों के पुल बांधना है। उन्हें भी थोडा सब्र करना चाहिए जो किसी भी तरह का पुरस्कार पाने के लिए मंत्रियों, सांसदों और विधायकों की चौखटों पर नाक रगडने में कतई नहीं हिचकिचाते। यह कहावत गलत नहीं कि 'सब्र का फल मीठा होता है।'
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