Thursday, April 14, 2016

यह कैसी बेइंसाफी?

आजादी के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी छुआछूत और भेदभाव की आतंकी सोच का पूरी तरह से अंत नहीं हो पाया है। दलित समाज के लोग सामाजिक रूप से सजग और प्रभावी भी हुए हैं, लेकिन आज भी उनको अपमानित कर विषैले दंश देने की बेखौफ हरकतें की जा रही हैं। अभी कुछ समय पहले आदिवासी सोनभद्र जिले में एक वृद्धा और उसकी बेटी को डायन बताकर उनके बाल काट डाले गये। इससे पहले भी उत्तरप्रदेश के बुदेलखंड समेत कई इलाकों में डायन बताकर महिलाओं को लज्जित और उत्पीडित करने की शर्मनाक घटनाएं सामने आयीं।
कर्नाटक का एक छोटा-सा गांव है मारकुंबी। इस गांव में सवर्णों का वर्चस्व है, जो यह मानते हैं कि दलितों और शोषितों को इस दुनिया में सम्मान के साथ जीने का कोई हक नहीं है। कोई दलित यदि पढ-लिख जाता है और ऊंचे ओहदे पर पहुंच जाता है तो सवर्णों के सीने में सांप लोट जाता है। मारकुंबी गांव में एक नाई की दुकान है जहां बिना किसी भेदभाव के सभी के दाढी और बाल काटे जाते थे, लेकिन एक दिन अचानक नाई ने दलितों के बाल काटने से मना कर दिया। दलितों के विरोध जताने पर नाई ने उन्हें अपनी पीडा और परेशानी बतायी उसे चेतावनी दे दी गयी है कि वह दलितों को अपनी दुकान की चौखट पर पैर ही न रखने दे। यदि उनकी बात नहीं मानी गयी तो उसकी खैर नहीं। ऐसे में तनातनी तो बढनी ही थी। दलितों के बढते आक्रोश को देख सवर्ण तिलमिला उठे कि इनकी इतनी जुर्रत कि हमारे सामने सिर उठाएं। चींटी की हाथी के सामने क्या औकात। दलित और सवर्ण आमने-सामने डट गए। मारापीटी की नौबत आ गयी। आपसी संघर्ष में २७ लोग घायल हो गए। दलितों के तीन मकान राख कर दिये गये।
दरअसल देश के कई ग्रामीण इलाके ऐसे हैं जहां सवर्णों और धनवानों की तूती बोलती है। उन्हीं का शासन चलता है। उनके अहंकार की कोई सीमा नहीं है। उनकी मनमानी दलितों पर मनमाना कहर बरपाती है। उन्हें कानून का भी कोई खौफ नहीं। उनके लिए यह २१ वीं सदी नहीं, सोलहवीं सदी है। वे कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं। उन्हें लगता है कि यह देश सिर्फ उन्हीं का है। प्रशासन उनका, सत्ता भी उनकी, शासक भी उनके। ऐसे में फिर डर काहे का?
मध्यप्रदेश के इंदौर शहर के निकट स्थित पीथमपुर से १५ किलोमीटर दूर बसा है सुलवाड गांव। इस गांव में किसी दलित की शवयात्रा सवर्णों की गली से नहीं गुजर सकती। दलितों की शवयात्रा गांव के कच्चे रास्ते से निकलती है। दलित डामर वाली सडक से जुलूस आदि भी नहीं निकाल सकते। वर्ष २००८, १४ दिसंबर का दिन था। ८० साल की कुवरा पूनम की मौत की अंतिम यात्रा की तैयारी हो चुकी थी। बेटों ने मां की अंतिम यात्रा के लिए बैंड-बाजे बुलवाए। जैसे ही यात्रा गांव के भीतर पहुंची तभी एकाएक पथराव हुआ और सवर्णों ने दलितों पर लाठियां बरसानी शुरू कर दीं। बेटों और उनके परिजनों को यात्रा पलट कर गांव के बाहरी गंदे रास्ते से ले जानी पडी। पुलिस, कलेक्टर और सरकार तक शिकायत पहुंचायी गयी, लेकिन किसी ने नहीं सुनी। गुस्साए सवर्णों ने दलितों का हुक्का-पानी बंद कर दिया। आखिरकार दलितों को ही झुकना पडा। तब से आज तक यही परंपरा चली आ रही है। दलितों की न खुशियां अपनी हैं और न ही गम। सवर्ण जैसा चाहते हैं वैसा उन्हें नचाते हैं।
गत वर्ष रामकिशन के बेटे की शादी थी। लडकी वाले घर कपडे चढाने आए थे। उन्होंने गांव की मुख्य सडक से ढोल बाजे के साथ त्योहारी का सामान चढाने की तैयारी की। जैसे ही सवणों को खबर लगी तो वे रामकिशन के घर आ धमके और उसे चेताया और धमकाया कि अपनी औकात मत भूलो। ज्यादा उचकने की कोशिश की तो ठीक नहीं होगा। इसी गांव के धुल जी ने जब अपने परिवार की एक बारात को गांव के मंदिर से दर्शन करवाते हुए दूसरे गांव ले जाना चाहा तो उसे रोक दिया गया। तब भी जमकर हंगामा हुआ और मारपीट भी हुई।
बददिमाग दबंगों और रसूखदारों के अहंकार की कोई सीमा नहीं है। अपनी मनमानी करने और जुल्म ढाने के लिए दलित और शोषित उनके लिए सर्वसुलभ साधन हैं। देश की राजधानी दिल्ली में एक युवक जबरन पिट गया। उसका बस यह कसूर था कि वह दलित था। वह जब घुडचढी की रस्म निभाने के लिए बग्घी पर सवार हो रहा था तो उसी दौरान दो दबंग युवक अपनी दादागिरी दिखाने लगे। उन्होंने दुल्हे पर अपशब्दों की बौछार की और घोडे पर चढने से रोका। विरोध किये जाने पर दुल्हे तथा उसके परिजनों को भी मारा-पीटा गया। दबंगों को दलित की तामझाम वाली शादी और घुड चढायी शूल की तरह चुभ गयी। ऐसे में उन्होंने मर्यादा और आपा खोने में जरा भी देरी नहीं लगायी और अपनी पर उतर आये। ऐसी न जाने कितनी घटनाएं घटती रहती हैं, लेकिन सभी को मीडिया में जगह नहीं मिलती।
चुनाव के दौरान भी दलितों और महादलितों पर आतताइयों के आतंक की नंगी तलवार टंगी रहती है। ८ मार्च २०१२ को उत्तरप्रदेश एक गांव में समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी की जीत के बाद दलितों के १३ घर फूंक दिये गये। इस कहर के टूटने का कारण था दलितों के द्वारा समाजवादी पार्टी को वोट न देना। दलित खुद अपने फैसले लें और मनचाही राह चुनें, यह सामंतवादी सोच के शोषकों को बर्दाश्त नहीं होता। वर्ष २०१६, ऐन होली के दिन केंद्रीय कृषि मंत्री एवं मोतिहारी के सांसद राधामोहन सिंह द्वारा गोद लिए गए आदर्श ग्राम खैरीमाल में दबंगों ने ५०, महादलित परिवारों पर अमानवीय जुल्म ढाते हुए न सिर्फ उन्हें मारापीटा बल्कि लूटपाट मचाते हुए उनके घर तक उजाड डाले। नशे में धुत दबंग उनके मवेशी हांक कर ले गए और महिलाओं से छेडछाड करने की गलीच मर्दानगी भी दिखायी। यह सब कुछ उन राजनेताओं की आंखों के सामने होता  चला आ रहा है जो दलितों और शोषितो के मसीहा कहलाते हैं।
दलितों और शोषितो के हित की लडाई लडने के नाम पर राजनीति करने वाले यह तथाकथित मसीहा फर्श से अर्श तक पहुंच जाते हैं। सत्ता पाते ही यह राजा-महाराजाओं को मात देने लगते हैं। उद्योगपतियों, पूंजीपतियों और चाटूकार राजनेताओं के रंग में रंग जाते हैं। कोई छगन भुजबल देखते ही देखते अथाह भ्रष्टाचार की जादुई छडी घुमाकर हजारों करोड के वारे-न्यारे करता है और जेल पहुंच जाता है। फिर भी उसके चेहरे पर शर्मिंदगी की हल्की-सी लकीर नजर नहीं आती। अधिकांश पाला बदलने वाले सत्तालोलुप दलित नेताओं का इतिहास उठाकर देख लीजिए... बहुत कम ऐसे हैं जो वाकई दलितों के प्रति पूरी तरह से ईमानदार हैं।

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