Thursday, May 19, 2016

पत्रकारों पर लटकती नंगी तलवारें

निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारों पर कायराना हमले होना कोई नयी बात नहीं है। देश की आजादी के कुछ वर्षों बाद ही इसकी शुरुआत हो गयी थी। लेकिन पिछले पंद्रह-बीस वर्षों से तो बहादुरी और आजादी के साथ पत्रकारिता करने वालों को घोर शत्रु मानने का जो सिलसिला चला, वो थमने का नाम नहीं ले रहा है। सच के प्रति पूरी तरह से समर्पित पत्रकारों, संपादकों के हौसले को तोडने के लिए स्तब्ध कर देने वाली ताकतें सक्रिय हो गयी हैं। देश में एक ही सप्ताह के भीतर दो पत्रकारों को मौत के मुंह सुला दिया गया। पहली हत्या हुई झारखंड में तो दूसरी बिहार में। बिहार के सिवान में दैनिक हिन्दुस्तान के सजग संवाददाता राजदेव रंजन को सैकडों लोगों की मौजूदगी में जिस तरह से माथे पर पिस्तोल सटाकर गोली मारी गयी उससे यह संदेश भी गया कि हत्यारे पूरी तरह से बेखौफ थे। भरी भीड में सरेआम वे पत्रकार की निर्मम हत्या कर चलते बने। कोई उन्हे पहचान भी नहीं सका! कुछ माह पूर्व मध्यप्रदेश में पत्रकार संदीप कोठारी को जिन्दा जला कर दफना दिया गया था! उत्तरप्रदेश में चार महीनों में तीन पत्रकारो और छत्तीसगढ में २०१२ से अब तक छह पत्रकारों की दरिंदगी के साथ हत्या की जा चुकी है। देश के दूसरे प्रदेशों में भी पत्रकारों को मौत के हवाले करने की खबरें सुर्खियां पाती रहती हैं। आखिर कौन हैं वो लोग जो जुझारू पत्रकारों को अपना दुश्मन मानते हैं और उनके खात्मे के दुष्चक्र चलाते रहते हैं? यह कोई ऐसा सवाल नहीं है जिसका जवाब नदारद हो। सिवान में पत्रकार राजदेव रंजन हत्याकांड में जेल में बंद पूर्व सांसद शहाबुद्दीन पर उंगलियां उठने से बहुत कुछ स्पष्ट हो गया है। बिहार पुलिस ने जिन लोगों को हिरासत में लिया है, उनमें एक उपेंद्र सिंह भी है जो हत्यारे, बाहुबली नेता शहाबुद्दीन का करीबी बेहद है। गुंडागर्दी और राजनीति करना उसके शौक में शुमार है। वह आरजेडी का सक्रिय कार्यकर्ता है। बाहुबली किस्म के नेताओं के पास गुंडे-मवालियों का जमावडा रहता है और वे बडी से बडी हस्ती को ठिकाने लगाने का कलेजा रखते हैं। पत्रकार तो उनके लिए कोई अहमियत नहीं रखते। जब और जहां चाहें उनका काम तमाम कर देते हैं। बिहार सरकार के कई मंत्री जेल में बंद अपराधी शहाबुद्दीन से मेल-मुलाकातें करते रहते हैं। भले ही शहाबुद्दीन राष्ट्रीय जनता दल का नेता है, लेकिन मूलत: वह है तो संगीन अपराधी ही। लेकिन सत्ताधीश भी इस सच को नजरअंदाज करते हुए जनता की आंखों में धूल झोंकने के तमाम प्रयास करते रहते हैं। बेनकाब होने के बाद भी मतलबपरस्ती और बेशर्मी का लबादा नहीं उतारते। एक हत्यारे से सांसदों, मंत्रियों का मिलना-जुलना उसकी पहुंच और रुतबे को दर्शाता है और ईमानदार पुलिस वालों के मनोबल को चोट पहुंचाता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कहते हैं प्रदेश में कानून का राज है। जो लोग बिहार में अपराधों का तांता लगने और जंगलराज का शोर मचा रहे है वे अगर दूसरे राज्यों की बिगडती कानून व्यवस्था का अध्ययन करें तो उनकी आंखे खुली की खुली रह जाएंगी। बिहार तो दूसरे प्रदेशों की तुलना में काफी बेहतर है।
लेकिन इस हकीकत को कैसे नजरअंदाज कर दें कि बिहार में जबसे नीतीश-लालू गठबंधन ने सत्ता संभाली है तब से कानून व्यवस्था के चीथडे उडते नजर आने लगे हैं। अपराधी बेखौफ हो गये हैं। अब तक पांच सौ से ज्यादा हत्याएं हो चुकी हैं। बिहार के लोग दहशत में हैं। उन्हें लालू-राबडी का वो पंद्रह वर्षों का जंगलराज याद आने लगा है जिसने उनका जीना हराम कर दिया था। कहा तो यह भी जा रहा है कि नीतीश कुमार, लालू और सत्ता में शामिल उसके बेटों के हाथों की कठपुतली बनकर रह गये हैं। नीतीश प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहे हैं। मुख्यमंत्री का पद अब उन्हें अपने कद से कमतर लगने लगा है। इसलिए अपने दायित्व को सही ढंग से निभा नहीं पा रहे हैं। बिहार के बोधगया में आदित्य सचदेवा नामक युवक की हत्या ने नीतीश के सुशासन की पोल खोल दी है और इस सच से भी पर्दाफाश कर दिया है कि उनकी सरकार की नींव कैसे-कैसे दागी चेहरों के दम पर टिकी है। गौरतलब है कि आदित्य सचदेवा की हत्या करने वाला और कोई नहीं सत्तारूढ जदयू की एक विधान परिषद सदस्य का नालायक बेटा है। उसका पति भी जाना-माना बाहुबली बदमाश है जिस पर देशद्रोह का मामला चल रहा है। यह तो सर्वविदित है कि सत्ता का नशा नेताओं से अधिक उनके परिजनों और यार-दोस्तों पर सवार रहता है। वे खुद को सर्वशक्तिमान मानने लगते हैं। बिहार में यही हो रहा है। इसमें दो मत नहीं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की व्यक्तिगत छवि पर कोई दाग-धब्बा नहीं है, लेकिन उनके इर्द-गिर्द सत्ता के नशे में डूबे जिन चेहरों का जमावडा है वे उनकी छवि की ऐसी-तैसी कर रहे हैं। निस्संदेह नीतीश कुमार जंगलराज के हिमायती नहीं हैं। लेकिन कई दुशासन ऐसे हैं जो प्रदेश के पत्रकारों को डराकर रखना चाहते हैं। जो पत्रकार उनके बस में नहीं आते उनको मौत के हवाले कर देते हैं। नीतीश ने प्रदेश में शराब बंदी का चुनावी वादा पूरा करके दिखा दिया है कि वे उन नेताओं में शामिल नहीं हैं जो कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। पत्रकारों को जो दिखायी देता है उसी पर उनकी कलम चलती है। अराजक तत्व आईना देखना पसंद नहीं करते। उनके कुकर्मों का पर्दाफाश करने वाले मीडिया कर्मी उन्हें अपने दुश्मन नम्बर एक नजर आते हैं। अफसोस तो इस बात का भी है कि किस्म-किस्म के आपराधिक तत्वों को नेताओं और सत्ताधीशों का भरपूर साथ और वरदहस्त हासिल है। कुछ नेता तो खुद मूल रूप से अपराधी हैं जो लोकतंत्र के चमत्कार के चलते विधायक, सांसद, मंत्री बन गये हैं। उन्हें अपनी मनमानी के आडे आने वाले पत्रकार शूल की तरह चुभते हैं। भ्रष्टाचारियों, व्याभिचारियों, काला धंधा करने वालों को बेनकाब करना हर सच्चे पत्रकार का फर्ज भी है, धर्म भी। अपने पत्रकारीय दायित्व को ईमानदारी से निभाने वाले पत्रकारों को अपनी सुरक्षा के इंतजाम भी खुद ही करने होंगे। जो सरकारें चाटूकार पत्रकारों को पुरस्कृत और निष्पक्ष पत्रकारों को जेल में सडाने में यकीन रखती हों उनसे पत्रकारों की सुरक्षा की उम्मीद रखना व्यर्थ है। इतिहास गवाह है कि ईमानदार पत्रकारों को ही बाहुबलियों और काली ताकतों का शिकार होना पडता है। जो लोग समझौता कर लेते हैं उनका कुछ भी नहीं बिगडता।

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