Thursday, May 5, 2016

एक नया रंग बनाएं

राष्ट्रीय साप्ताहिक 'राष्ट्र पत्रिका' की वर्षगांठ के शुभ अवसर पर सर्वप्रथम उन लाखों सजग पाठकों का आभार... अभिनंदन जिन्होंने इसे तहेदिल से अपनाया, सराहा और इसे भीड से अलग खडा होने की ताकत बख्शी। किसी भी समाचार पत्र की सफलता की रीढ की हड्डी होते हैं उसके सजग पाठक। 'राष्ट्र पत्रिका' इस मामले में वाकई बहुत खुशकिस्मत है। किसी भी अखबार और उसके संपादक, प्रकाशक के लिए भी सबसे बडा पुरस्कार निस्संदेह वह है जो पाठको, शुभचिंतकों, समालोचकों, आलोचकों की प्रशंसा, आलोचना और मार्गदर्शन के रूप में मिलता है। हमारी वर्षों की निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकारिता की राह में अनेकों अवरोध खडे किये गये, कांटे बिछाये गए, लेकिन हम नहीं घबराये, नहीं हारे, इसकी एक ही वजह है उन लाखों पाठकों का अटूट साथ जिन्होंने सतत हमारा मनोबल बढाया। बिना थके चलते चले जाने के लिए प्रेरित किया। 'राष्ट्र पत्रिका' के प्रकाशन के अवसर पर किये गये वादों को पूरा करने में हम कितने सफल हुए और खरे उतरे हैं इसका जवाब भी पाठकों से बेहतर और कोई नहीं दे सकता।  'राष्ट्र पत्रिका' के प्रकाशन के पूर्व ही हमने यह संकल्प किया था कि चाहे कुछ भी हो जाए सच के पथ पर चलते ही जाना है। बडी से बडी हस्ती के दबाव में नहीं आना है। भेदभाव और चाटुकारिता की पत्रकारिता की परछाई से भी कोसों दूर रहना है। हमें मालूम था कि भाई-भतीजावाद और 'गठबंधन' के इस दौर में हमें कई परेशानियों और तकलीफों से रूबरू होना पडेगा। पत्रकारिता का पेशा कोई फूलों की सेज नहीं है। हमने लीक से हटकर चलने का जो निर्णय लिया था उस पर  हम आज भी अडिग हैं। यह देश का ऐसा साप्ताहिक हैै जिसमें कला, संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान, राजनीति, साहित्य के साथ-साथ मनोबल को बढाने वाली सकारात्मक खबरों को प्राथमिकता दी जाती है। अपराध भी हमारे ही समाज में घटित होते हैं इसलिए अपराध और अपराधियों की खबरों को भी इस तरह से पेश किया जाता है कि जिससे अपराधियों के हौसले पस्त हों, उन्हें कानून का खौफ सताए और अपराधों में कमी आए। दरअसल, हमारी पत्रकारिता का केंद्र बिंदु देश का वो आम आदमी है जो बंदिशों और तकलीफों में जीता है। वह बहुत जल्दी चालबाज नेताओं पर भरोसा कर लेता है और पछतावे के अलावा कुछ भी नहीं पाता। उसकी बेबसी और मजबूरी की अनदेखी की जाती है। हमारे लिए जनपक्षधर पत्रकारिता ही सर्वोपरि है। यह सच अब जगजाहिर हो चुका है कि मीडिया के कई 'धुरंधर' राजनेताओं, उद्योगपतियों और सत्ताधीशों के महिमामंडन को ही वास्तविक पत्रकारिता मान चुके हैं। उनकी खबरें और कलम इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। उन्हें और कुछ न दिखता है, न सूझता है। हम पत्रकारिता के साथ ऐसी धोखाधडी होते नहीं देख सकते। हमारा हिन्दुस्तान आज दूसरी आजादी के लिए लड रहा है। जनता जाग चुकी है। दलितों, शोषितों, किसानों और नारियों ने चुप्पी तोडकर सडकों पर आने और जूझने के लिए कमर कस ली है। गरीबी, गैरबराबरी, शोषण, अशिक्षा और बेरोजगारी का खात्मा करने के नाम पर वोट हथियाने वाले अधिकांश नेताओं का खोखलापन उजागर हो चुका है। उनके नकाब उतर चुके हैं। नेताओं की कथनी और करनी के अथाह अंतर की मार को झेलते-झेलते लोग त्रस्त हो चुके हैं। आज देश के अधिकांश अखबारों और न्यूज चैनलों पर नेताओं और पूंजीपतियों का कब्जा हो चुका है। वे आर्थिक रूप से इतने सक्षम हैं कि अच्छे-अच्छे पत्रकार इनके गुलाम बनकर रह गये हैं। देश में कई ऐसे सांसद और मंत्री हैं जिनके अखबार और न्यूज चैनल चल रहे हैं। उनका आम जनता से कोई सरोकार नहीं है। आम लोगों की समस्याओं की अनदेखी कर अपनी-अपनी पार्टी और अपनों के गीत गाते हुए मिलावटी खबरों की बरसात करते चले आ रहे हैं। असली सच गायब कर दिया गया है। इन शातिरों की वजह से ही मीडिया कटघरे में है। भूमाफियाओं, चिटफंड के घोटालेबाजों और खनन माफियाओं के स्वामित्व में चलने वाले अधिकांश अखबारों में ऐसे-ऐसे 'प्रगतिशील बुद्धिजीवी' अपनी सेवाएं दे रहे हैं कि उन्हें देखकर दंग रह जाना पडता है। इन्हें अपने मालिकों की तमाम करतूतों की जानकारी होती है, लेकिन फिर भी यह आंखें बंद किये रहते हैं। मनचाही तनख्वाहें और भत्ते इनकी जेबों में जाते हैं और यह सबकुछ भूलकर सोने की मुर्गियों को फांसने की चाकरी में लगे नजर आते हैं। अपने पुराने संपर्कों के तार जोड मालिकों को फायदा पहुंचाते हुए अपने भविष्य के लिए सुरक्षित इंतजाम करने के सिवाय इन्हें और कुछ नहीं सूझता। ऐसे कई वर्तमान और गुजरे जमाने के पत्रकार-संपादक हैं जो आज सत्ता के दलाल बनकर रह गए हैं। यह दलाली खाते हैं तो इनके घाघ मालिक सत्ता के गलियारों में अपनी पहुंच बनाते हुए कोयले की खदानें, शराब कारखाने, मेडिकल, इंजीनियरिंग कॉलेज और अरबों-खरबों के सरकारी ठेके हथियाते हैं और पहले से भी ज्यादा मालामाल हो जाते हैं। कुछ को तो राज्यसभा की सांसदी और मंत्री पद का उपहार भी मिल जाता है। अपने देश की पत्रकारिता में गजब का तमाशा चल रहा है। स्वतंत्र पत्रकारिता का गला घोंटने में देरी नहीं लगायी जाती। सरकारें चाहे किसी भी पार्टी की हों, जागरुक पत्रकारों को वे अपना दुश्मन समझती हैं और उन्हें प्रताडित करने के मौके तलाशती रहती हैं। यह सरकारें भूल जाती हैं कि 'प्रेस' का काम आम जनता को जागृत करना है और सरकार के निठल्लेपन के खिलाफ आवाज उठाना है। मुखौटेबाज संपादकों और मालिकों की टकसाल से निकले कई खोटे सिक्के पत्रकारिता को बाजार बनाने पर तुले हैं। यह भी अटल सच है कि बिना बिके और बिना झुके पत्रकारिता करने वाले आज भी देश में अनेकों पत्रकार हैं जिनकी बदौलत 'प्रेस' की साख बची हुई है। देशवासी उन्हें सलाम करते हैं। समर्पित और विश्वसनीय पत्रकारिता करने वाले सजग पत्रकारों और अखबारों को भले ही हाशिए में धकेलने का षडयंत्र चल रहा है, लेकिन फिर भी खोटे सिक्कों की खनक में इतना दम नहीं कि वे खरे सिक्कों का मुकाबला कर पाएं। पाठक भी खोटे और खरे की बखूबी पहचान करना जानते हैं। इसलिए ईमानदार और सच्चे पत्रकारों और प्रेस का भविष्य कल भी सुरक्षित था, आज भी है और कल भी रहेगा। सच्चाई का कोई भी बाल बांका नहीं कर सकता। बिकाऊ पत्रकारों, संपादकों और शातिर मालिकों के खिलाफ 'राष्ट्र पत्रिका' का सतत अभियान चलता रहता है। जिसकी वजह से हम उनके निशाने पर रहते हैं। खनन माफियाओं और भूमाफियाओं को बेनकाब करते रहने के कारण उनकी भी हमारे खिलाफ साजिशें चलती रहती हैं फिर भी अंतत: उन्हें ही मुंह की खानी पडती है। निष्पक्ष पत्रकारिता ही हमारा धर्म है इसलिए निर्भीकता के साथ हम अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर हैं। 'आधुनिक साहित्य' पत्रिका के विद्धान संपादक और चर्चित कवि आशीष कंधवे की कविता की यह पंक्तियां 'राष्ट्र पत्रिका' की सपने, सोच और चाहत को रेखांकित करती हैं। दरअसल हर सच्चा भारतवासी यही तो चाहता है :
"छोडना चाहता हूँ
मैं कुछ रंगों को
भविष्य के भारत के लिए
मिटाना चाहता हूँ
भूख और लाचारी के रंग को
भ्रष्टाचार और लूट के रंग को
धर्म के अधर्मी रंग को
आदमी के गिरगिटियां रंग को
और राजनीति के लोभी मन को
आओ, सभी रंगों को मिला कर
एक नया रंग बनाएं
भारत बनाएं, भारत बचाएं।'
'राष्ट्र पत्रिका' की आठवीं वर्षगांठ पर समस्त स्नेही पाठकों, संवाददाताओं, लेखकों, विज्ञापनदाताओं, अभिकर्ताओं, शुभचिंतकों को हार्दिक शुभकामनाएं...।

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