Thursday, May 12, 2016

आक्रोश और आँसू

सोमवार का दिन था। मुंबई में एक व्यक्ति ने पुलिस कंट्रोलरूम में फोन करके बताया कि बोरीवली २४ वें न्यायालय में एक ताकतवर बम रखा है जिसके फटने से बहुत बडी तबाही होना तय है। इस जानकारी ने पुलिस के हाथ-पांव फूला दिए। वैसे भी मायानगरी मुंबई आतंकियों के निशाने पर रहती आयी है। यहां के विभिन्न व्यस्त इलाकों में बम-बारुद बिछाकर कई बार खून-खराबा करते हुए अनेकों निर्दोषों की जानें ली जा चुकी हैं। खाकी वर्दीधारियों ने अदालत की इमारत को चारों तरफ से घेर लिया। चप्पा-चप्पा छान मारा, लेकिन बम नहीं मिला। जांच में पता चला कि यह फोन ग्रांट रोड स्टेशन के करीब किसी बूथ से किया गया था। इसके बाद पुलिस ने सीसीटीवी के फुटेज के आधार पर आरोपी की निशानदेही नालासोपरा इलाके में की और उसे गिरफ्तार कर लिया गया। पूछताछ में ५२ वर्षीय संदीप बटिया नाम के व्यक्ति ने यह कहकर चौंका दिया कि बार-बार होने वाली अदालत की पेशी और मिलने वाली तारीखों से परेशान होकर उसने बम होने की अफवाह उडायी थी। यह सच्ची खबर यही बताती है कि लोग अदालतों की चक्करबाजी से कितने परेशान हैं। तारीख पे तारीख के शर्मनाक खेल ने भुक्तभोगियों के मानसिक संतुलन को बिगाड कर रख दिया है। गरीबों के लिए तो न्याय पाना जैसे टेढी खीर हो गया है। अदालतों की चक्करबाजी और वकीलों की मनमानी फीस किसी को भी तोड डालती है। कई वकील तो इस चक्कर में रहते हैं कि फैसला आने में देरी पर देरी हो और उनकी जेब में सतत धन आता रहे। अदालतबाजी में माहिर अमीरों और आदतन अपराधियों को तो इससे कोई फर्क नहीं पडता, लेकिन साजिशों के शिकार हुए सीधे-सादे गरीबों के लिए देर से मिलने वाला न्याय भी बेइंसाफी की तरह घातक और पीडादायी होता है। निचली अदालतो में चलने वाला गडबडझाला सजग दिमाग वालों को तुरंत समझ में आ जाता है। बहुत जोर-शोर के साथ यह कहा जाता कि कानून सबके लिए बराबर है, लेकिन कई मामलों में भेदभाव का तमाशा अचंभित कर जाता है। सभी संजय दत्त और सलमान खान की तरह भाग्यवान नहीं होते। कहने को तो कानून की किताबों में लिखा है कि छोटा हो या बडा, कानून सबके लिए बराबर है, लेकिन बडे लोग अपराध करने के बाद भी कानून को चकमा देने और बच निकलने का जो कीर्तिमान बनाते हैं उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हम सब जानते हैं कि न्याय को एक देवी के रूप में चित्रित किया गया है, जिसकी दोनों आंखों पर काली पट्टी बंधी है और हाथ में तराजू है, जो सत्य और असत्य के दो पलडों का द्योतक है। आंखों पर पट्टी इसलिए बंधी है कि बडे-छोटे, शक्तिशाली, प्रभावशाली और कमजोर तथा गरीब से कोई मतलब नहीं। न्याय तो बस न्याय है, लेकिन जो लोग अन्याय के शिकार होते हैं उन्हें कोई भी उद्देश्य, सीख और तसल्ली राहत प्रदान नहीं कर पाती। लोगों को समय पर न्याय मिले, यह सुनिश्चित करना न्यायपालिका की भी जिम्मेदारी है और सरकार की भी। जेलें कैदियों से भरी पडी हैं। इन कैदियों में असली अपराधियों के साथ-साथ निर्दोषों का भी समावेश है। जिनकी आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर है कि वे कानूनी लडाई के लिए वकील तक खडा नहीं कर पाते। अनेकों विचाराधीन कैदी अभियोग में मुकर्रर सजा से कहीं ज्यादा वक्त सलाखों के पीछे काट चुके हैं। उनके लिए कोई आवाज नहीं उठाता। अपराधी, अभिनेताओं, नेताओं और धनवानों के लिए भीड उमड आती है। हजारों जमानती अपराध के आरोपी सिर्फ इसलिए जेल में सडने को मजबूर हैं क्योंकि उनके पास जमानत देने वाला कोई नहीं है।  अभी तो हालत यह है कि एक औसत सिविल केस में फैसला आने में १५ साल और क्रिमिनल केस में पांच से सात साल लग ही जाते हैं। ट्रायल अदालतों में करोडों केस लम्बित पडे हैं। न्याय में होने वाली देरी को लेकर पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश भी बेहद चिन्तित नजर आए। उन्होंने कहा कि मुकदमों का अंबार लगा है। उन्हें समय पर निबटाने के लिए जजों की नितांत कमी है। लोगों को तरह-तरह की तकलीफों से जूझना पड रहा है। उन्होंने नम आंखों से बताया कि १९८७ में विधि आयोग ने जजों की संख्या प्रति दस लाख लोगों पर १० से बढाकर ५० करने की सिफारिश की थी, लेकिन उस वक्त से लेकर अब तक इस पर कुछ नहीं हुआ। अमेरिका में ९ जज एक साल में ८१, भारत में एक जज २६०० केस सुनता है। सरकार को भारतवर्ष में जजों की संख्या बढानी चाहिए। तभी लोगों को जल्दी न्याय की प्राप्ति संभव हो पायेगी, नहीं तो ऐसे ही चलता रहेगा और अदालतों के प्रति भी गुस्से और निराशा का माहौल बना रहेगा। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अलतमस कबीर का मानना था कि केवल अदालत या जजों की संख्या बढाने से देश में अपराधों की संख्या को कम नहीं किया जा सकता, बल्कि लोगों को अपनी मानसिकता बदलने की जरूरत है। उन्होंने महिलाओं के विरुद्ध बढ रही हिंसा पर चिन्ता जताते हुए स्पष्ट किया था कि यदि समाज अपनी मानसिकता बदले तो यौन अपराधों पर काबू पाया जा सकता है। समाज में महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग असुरक्षित हैं। जब तक कानूनी व्यवस्था को दुरुस्त नहीं किया जाता जब तक सुधार की उम्मीद करना निरर्थक है।
निर्भया कांड से जिस तरह से सरकार ने जागने का अभिनय किया था और लाखों लोग मोमबतियां लेकर सडकों पर उतर आये थे, तो लगा था कि समाज के लोग सतर्क हो गये हैं। अब वे अपराधियों की शिनाख्त करने में संकोच नहीं करेंगे। पुलिस भी अपना दायित्व सजगता से निभायेगी, लेकिन हालत तो जस के तस हैं। कानून का खौफ न होने के कारण अपराधी प्रवृति के लोग बदलने को तैयार नहीं हैं। आज भी नारी के यौन शोषण की खबरें सबसे ज्यादा पढने और सुनने में आती हैं। भारतीय अदालतों में अन्य विभिन्न आपराधिक मामलों के साथ ही बलात्कार के लाखों मामले लंबित पडे हैं। अपने यहां अपराधियों के लिए सजाएं तो घोषित हो जाती है, लेकिन फिर भी सजा देने में वर्षों लग जाते हैं। अपराधियों को जमानतों पर छूटने के अवसर भी बडी आसानी से मिल जाते हैं। भारतीय न्याय व्यवस्था में और भी कई छेद बना दिये गये हैं जिनमें से हाथीनुमा अपराधी तो सहजता से निकल जाते हैं, लेकिन गरीबों, असहायों और सीधे-सरल लोगों को घुट-घुट कर मरना पडता है। इंसाफ की इसी बेबसी पर ही बहे हैं देश के प्रधान न्यायाधीश श्री तीरथसिंह ठाकुर की आंखों से आंसू और न्यायालय परिसर में बम रखे होने की अफवाह फैलाने वाले एक आम आदमी का फूटा है गुस्सा।

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